Friday, 31 March 2017

पूर्णा: सिनेमा और समाज के बीच की ‘उम्मीद’...कायम रहे! [4/5]

एवरेस्ट सिर्फ इसलिए नहीं चढ़ना है, क्यूंकि एवरेस्ट बड़ा है, सबसे बड़ा. वजह बड़ी होनी चाहिए, उससे भी बड़ी. तेलंगाना के एक आदिवासी इलाके की पूर्णा महज़ 13 साल की है. भूख, गरीबी, अशिक्षा जैसी मुसीबतों का पहाड़ पहले भी लांघती आई है, पर एवरेस्ट-विजय करने की वो ‘बड़ी’ वजह अभी भी उसके पास नहीं है. वो वजह उसे मिलती है अपनी अक्का (बड़ी दीदी) की दम तोड़ती आँखों में; एक ऐसे चमकीले सपने की तरह, जिसमें पूर्णा ने एवरेस्ट फ़तेह कर ली है और अब उसके छोटे से गाँव को पूरी दुनिया जानती है. उम्मीद की एक चौड़ी सड़क उसके गाँव के बीच से होकर निकलने लगी है. पूर्णा को अब अपने लिए नहीं, अपनी अक्का, अपने गाँव और अपने जैसी हज़ारों दूसरी लड़कियों के लिए एवरेस्ट चढ़ना है. अब एवरेस्ट बड़ा नहीं रहा, वजह बड़ी हो गयी.

पूर्णा’ के साथ, निर्माता-निर्देशक और अभिनेता राहुल बोस सिनेमा के लिए भी कुछ ऐसी ही मिसाल पेश करते हैं. फिल्म बड़ी हो, न हो, उसके पीछे की वजह बड़ी होनी ही चाहिए. एवरेस्ट पर पहले भी आपने बहुत सारी फिल्में देखी होंगी (हिंदी में कुछ गिनती की, अंग्रेजी में ज्यादा); परदे पर एवरेस्ट को खलनायक की तरह अजेय, अभेद्य और विशालकाय दिखा कर, किरदारों को ‘नायक’ बनाने में लगभग सब की सब सफल भी रही हैं, पर राहुल जिस संजीदगी और समझदारी से अपना सारा ध्यान एवरेस्ट की उंचाईयों से हटाकर, तमाम सतही सामाजिक बुराइयों और गर्त में धंसते जा रहे समाज के कुछ ख़ास तबकों की तकलीफों पर केन्द्रित करते हैं, वो न सिर्फ काबिल-ऐ-तारीफ़ है, बल्कि उतना ही प्रेरक भी.

चचेरी बहनें प्रिया (एस मारिया) और पूर्णा (अदिति ईनामदार) सरकारी स्कूल में जाती तो हैं, पर उनका पूरा दिन झाड़ू लगाने में ही बीतता है. उनके पास फ़ीस के पैसे नहीं हैं. प्रिया गाँव से दूर एक ऐसे स्कूल में जाना चाहती है, जहां पढ़ाई के साथ-साथ खाना भी मिलता है. “अंडा मिलता है. कभी देखी भी हो?” पूर्णा नहीं में सर हिला देती है. फिल्म के एक दृश्य में, जहां लड़कियां आपस में ‘कौन कितना गरीब’ खेल खेल रही होतीं हैं, पूर्णा की मार्मिक दलील देखिये, “मेरे तो नाम में ही ‘पुअर’ (‘poor’na) है.” प्रिया की शादी हो गयी है, पर पूर्णा को प्रोत्साहित करना नहीं छोड़ती. पूर्णा अब उसी स्कूल में है, जहां उसे प्रवीण कुमार (राहुल बोस) के रूप में समाज कल्याण विभाग के कर्मठ, सशक्त और दूरदर्शी अधिकारी के शिक्षा के क्षेत्र में नए-नए सुधारों और सुझावों का साथ मिलता है.

सच्ची कहानी को उतने ही सच्चे तरीके से परदे पर लाने के लिए, राहुल फिल्म को वास्तविकता के इतने नज़दीक लेकर आते हैं कि कई बार आप सिनेमा और सच्चाई में फर्क ही महसूस नहीं कर पाते, ख़ास कर मुख्य कलाकारों (मारिया और अदिति) के अभिनय और बोल-चाल में. हालाँकि धृतिमान चैटर्जी, हीबा शाह, आरिफ़ जकारिया और खुद राहुल जैसे जाने-पहचाने चेहरों की मौजूदगी फिल्म को फिल्म समझ कर ही देखने के लिए बार-बार भटकाती रहती है, पर दूसरे कलाकार कुछ ज्यादा ही सहज रूप से कैमरे को नज़रअंदाज़ करने में सफल साबित होते हैं. राहुल निर्देशक के तौर पर भी खुद को बहुत संयमित रखते हैं. तकनीकी तौर पर बहुत ज्यादा उत्साहित होकर दर्शकों को चौंकाने या प्रभावित करने के लोभ से खुद को बचाए रखने में उनकी समझदारी साफ़ नज़र आती है. फिल्म के आखिरी हिस्से में वो सन्नाटे का जिस खूबी से इस्तेमाल करते हैं, परदे पर ही देखने की बात है.

देश में विकास का जो सारा ताना-बाना शहरों और गाँवों को जोड़ने की बात करता है, ‘पूर्णा’ काफी हद तक उसकी कड़वी सच्चाई आप तक पेश कर पाती है. ‘पूर्णा’ आपको कचोटती है, जब आप शादी के जंजाल में बाँध दी गयी प्रिया को पहली बार साड़ी में देखते हैं. ‘कुछ कर गुजरने’ की चाह लिए मोटी-मोटी आँखों वाली बच्ची को ‘सब कुछ करने-सहने वाली’ औरत बनाने पर हम कैसे और क्यूँ आमादा हो जाते हैं? ‘पूर्णा’ आपको अन्दर से तोड़ देती है, जब सिर्फ 13 साल की पूर्णा को आप हालातों से लड़ते-झगड़ते-बढ़ते देखते हैं. हालाँकि प्रवीण कुमार जैसे जज्बाती और जुझारू लोगों की ईमानदार कोशिशों पर रौशनी डालकर, ‘पूर्णा’ उम्मीदें भी बहुत जगाती है. सिनेमा के लिए भी, समाज के लिए भी.

मैले-कुचैले कपड़ों में, सिग्नल पर भीख मांगते बच्चों को तो हम अब भी डांट-डपट कर दुत्कार देंगे, सारा ठीकरा निकम्मी सरकारों के माथे फोड़ कर मुंह भी मोड़ लेंगे; पर ‘पूर्णा’ कम से कम अपने 105 मिनट के छोटे से वक़्त तक ही, आपको बेहतर इंसान बनाये रखने की एक कामयाब कोशिश तो करती ही है. 105 मिनट के बाद की जिम्मेदारी, समझदारी और ईमानदारी आपकी अपनी! [4/5]                            

नाम शबाना: ‘पुअर बेबी’! [2/5]

देश की सुरक्षा का ज़िम्मा जितना सीमा पर तैनात सेना के जाबांजों का है, उतना या उससे थोड़ा सा ज्यादा ही ऐसी गुप्तचर सुरक्षा एजेंसियों का भी, जिन्हें गुमनामी के अँधेरे में रहकर हर पल खतरे के साये में जीना और मरना मंजूर होता है. नीरज पाण्डेय की ‘बेबी’ अगर आपने देखी हो, तो इन ‘अंडरकवर’ लड़ाकों के काम करने के तरीकों को तो अब तक आप जान ही गए होंगे? ‘नाम शबाना’ थोड़ा पीछे जाने की कोशिश करती है, कहानी के साथ भी और इन सीक्रेट एजेंट्स को चुने जाने की कड़ी कार्यवाही को सामने रखने के साथ भी. बहुत हैरतअंगेज़ है सब कुछ, एक ऐसी रहस्यमयी दुनिया, जहां फिल्मों की मानें तो 5 साल से एक ऐसी लड़की (तापसी पन्नू) पर पल-पल नज़र रखी जा रही है, जो अपने शराबी बाप की गैर-इरादतन हत्या के अपराध में सज़ा भुगत चुकी है. नज़र रखने वाले ने लड़की के जाने कितने फोटोग्राफ्स खींचे होंगे इस दरमियान? ऐसी दुनिया में आपका उम्रदराज़ केबल वाला (वीरेंद्र सक्सेना) भी ‘रॉ’ का एक अच्छा-खासा सीनियर टाइप ट्रेनर निकल सकता है, इसीलिए जब वो फ़ोन पर कहे, “मैडम, नया स्कीम चाहिए?’ तो ‘हाँ’ या ‘ना’ बोलने में पूरा वक़्त लीजिये, क्यूंकि बात सिर्फ आपके केबल कनेक्शन की नहीं है, सवाल सीक्रेट एजेंट के तौर पर आपके कैरियर का भी है.   

हालाँकि चौबीसों घंटे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का जाप करने वाली ये ‘एजेंसी’ अपनी एक उम्मीदवार और उसके साथी पर हो रहे जानलेवा हमले में सिर्फ इसलिए दखल नहीं देती क्यूंकि अभी तक वो उनकी ‘अपनी’ नहीं हुई है, पर उसी जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए क़ानून की हद से आगे बढ़कर, उसे कातिल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती. जाहिर है, इस दुनिया के अपने कायदे क़ानून हैं, और इस फिल्म की स्क्रिप्ट में जरूरत से कहीं ज्यादा ‘कॉमन सेंस’ की कमी. ‘बेबी’ में तापसी की किरदार शबाना खान महज़ 20 मिनट के लिये परदे पर आती है, और अपने हाव-भाव-ताव से ताकतवर मर्दों से भरे उस फ्रेम में अपनी जगह बहुत दिलेरी से छीन लेती है, बना लेती है. ‘बेबी’ में शबाना के उस 20 मिनट वाले रुतबे तक पहुँचने में ‘नाम शबाना’ ढाई घंटे तक का वक़्त खर्च कर देती है, और फिर भी उसे छू पाने का दावा पेश नहीं कर पाती. जहां नीरज पाण्डेय की स्क्रिप्ट कहीं भी अपने आप को गंभीरता से नहीं लेती, वहीँ अपने ढीले-ढाले निर्देशन से शिवम् नायर पहले तो फिल्म का पूरा पहला हिस्सा सुरक्षा एजेंसी से दूर-दूर रह कर शबाना के निजी जिंदगी में झाँक-झांक कर निकाल देते हैं और उसके बाद, जब रोमांच का सारा खेल गढ़ने की बारी आती है तो बेवजह के ‘ट्विस्ट’ परोस कर (प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे बदल लेने वाला विलेन, पृथ्वीराज सुकुमारन) और ‘बेबी’ के किरदारों का अधपका हवाला देकर (...और सर, ऑपरेशन बेबी कहाँ तक पहुंचा?) मनोरंजन की नैय्या पार लगाने की कोशिश करने लगते हैं.  

न चाहते हुए भी मानना पड़ता है कि फिल्म में तापसी स्क्रीन पर भले ही सबसे ज्यादा वक़्त के लिए दिखाई देती हों, भले ही उनकी मौजूदगी परदे पर जरूरी रोमांच बनाए रखने में सौ फीसदी सही साबित होती हो; नीरज पाण्डेय की चलताऊ स्क्रिप्ट उन्हें अक्षय कुमार के किरदार से आगे न निकलने देने के लिए बार-बार रोकती है. शबाना जब-जब मुसीबतों में घिरती नज़र आती है, अक्षय का किरदार उसे बांह पकड़ कर खींचता हुआ बाहर ले आता है. मुश्किलें जैसे जान-बूझकर आसान ही रखी गयी हों, क्योंकि फिल्म की हीरो तापसी हैं, अक्षय नहीं. शबाना को सुरक्षा एजेंसी तक लाने वाले अफसर की भूमिका में मनोज बाजपेई जंचते हैं, पर उनके किरदार की तह में जाने के लिए शायद एक और ‘स्पिन-ऑफ’ की जरूरत अलग से पड़े. कास्टिंग के नजरिये से फिल्म में दो अभिनेताओं को बड़ी चतुराई से उनके किरदार के लिए चुना गया है. शबाना के बॉयफ्रेंड की भूमिका में ताहेर शब्बीर जैसे मेहनती, पर कम तजुर्बे और सीमित अभिनय वाले नए कलाकार को, ताकि तापसी का किरदार उभर कर सामने आये...और विलेन के तौर पर, पृथ्वीराज सुकुमारन. पृथ्वीराज की मौजूदगी फिल्म के पोस्टर और कैनवस को जरूर बड़ा करती है, पर उन जैसे मंजे अभिनेता को इस तरह के वाहियात किरदारों में इस्तेमाल कर बॉलीवुड सिर्फ अपना ही नुक्सान कर रहा है.

आखिर में, ‘नाम शबाना’ अपनी अधपकी, कच्ची, बचकानी स्क्रिप्ट और दकियानूसी निर्देशन से सही मायनों में ‘बेबी’ की ‘प्रीक्वल’ ही लगती है. ऐसी ‘प्रीक्वल’ जो दो साल बाद नहीं आई हो, दो साल पहले आई हो. ऐसी ‘प्रीक्वल’ जो अपने इरादों में ही इतनी कमज़ोर, इतनी सुस्त लगती है कि उसमें ‘बेबी’ का बेंचमार्क छूने भर लेने तक का भी कोई जज़्बा नहीं बचता. फिल्म में एकाउंट्स पढ़ाने वाले मोहन कपूर की भाषा में कहें तो, “बेबी’ अगर संपत्ति (asset) है तो ‘नाम शबाना’ देनदारी (liability)”! [2/5] 

Sunday, 26 March 2017

फ़िल्लौरी: कहानी चुस्त, फिल्म सुस्त! [2.5/5]

हिंदी फिल्मों में पंजाब अब अपनी महक, अपना रंग, अपनी चमक खोता जा रहा है, या यूँ कहें तो दर्शकों को पंजाब के नाम पर दिखाने, भरमाने और लुभाने के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पास अब ज्यादा कुछ रह नहीं गया है. शादी, संगीत, पार्टियों और अजीब-ओ-गरीब मज़ाकिया किरदारों से भरे-पूरे, खतरनाक रूप से अमीर परिवारों के साथ अब हर फिल्म करन जौहर और आदित्य चोपड़ा का ‘खानदानी विडियो’ लगने लगी है. ताज्जुब नहीं होना चाहिए, अगर अंशाई लाल की ‘फ़िल्लौरी’ देखते वक़्त सब कुछ अच्छा-अच्छा होते हुए भी आप बोरियत से घिर जायें! और फिर यहाँ तो दो-दो पंजाब हैं, एक अभी का और दूसरा, आज़ादी से पहले का. आज़ादी से पहले वाला पंजाब ज्यादा सुकून देता है, दिलचस्प है और अनदेखा तो नहीं, पर कम देखा-जाना-सुना है. अब के वाला पंजाब वही है, ‘मानसून वेडिंग’ और ‘बार बार देखो’ के बीच हिचकोले खाता, जिसका जिक्र ऊपर की लाइनों में हो चुका है.

शादी की चाह कन्नन (सूरज शर्मा) को सात समुन्दर पार से अमृतसर खींच लायी है. अनु (मेहरीन पीरज़ादा) को वो बचपन से जानता है. दोनों परिवार साथ-साथ शामें रंगीन करते हैं. व्हिस्की पीने वाली बीजी (दादी) भी यहाँ हैं, जो अपने बेटे को ‘दो पैग का नतीज़ा’ कहकर ठहाके लगाती हैं, और बालों में रोलर्स लगाकर बाप-बेटे की हरकतों पे झल्लाने वाली बेबे (माँ) भी. हालात तब मजेदार हो जाते हैं, जब मांगलिक दोष से ग्रस्त कन्नन को असली शादी से पहले, पेड़ से शादी करनी पड़ जाती है. हालाँकि मुश्किल यहाँ ख़तम नहीं होती, बल्कि शुरू होती है. अगले ही रात/दिन से कन्नन को शशि (अनुष्का शर्मा) का भूत दिखाई देने लगता है. शशि का बसेरा उसी पेड़ पर था, जिसको शादी के बाद अब काट दिया गया है. अब शशि जाये तो कहाँ जाये? और अगर शशि नहीं जायेगी, तो कन्नन की जिंदगी में अनु कैसे आएगी?  

फ़िल्लौरी’ उन फिल्मों में से है, जो परंपरागत रूप से फिल्म में कहानी होने की अहमियत समझती हैं, मानती हैं. इस एक बात पर कहीं कोई दो राय नहीं हो सकती कि ‘फ़िल्लौरी’ में कहानी तो अच्छी है ही. हाँ, जिस बचकाने ढंग से उसे बुना जाता है, जिस थकाऊ तरीके से उसे परदे पर परोसा जाता है, वो निर्देशक अंशाई लाल और लेखिका अन्विता दत्त की समझ पर बड़े सवाल खड़े करता है. फिल्म में शशि और उसके प्रेमी फ़िल्लौरी (दलजीत दोसांझ) का खूबसूरत प्रेम-प्रसंग हर बार आपको जैसे कन्नन और अनु के हद एकरस कथानक से झकझोर कर फ्लैशबैक के सुहाने सफ़र पर ले जाता है और जगाये रखता है. हालाँकि मेहरीन अपनी पहली ही फिल्म में बहुत ज्यादा निराश नहीं करतीं, पर सूरज एक ही तरह के भाव चेहरे पर मढ़े-मढ़े पूरी फिल्म निकाल देते हैं. शुरू-शुरू में उनकी कॉमिक-टाइमिंग ताज़गी का एहसास जरूर कराती है, पर फिर धीरे-धीरे वो धार कहीं कुंद पड़ती जाती है.

एनएच 10’ से फिल्म प्रोडक्शन में सफल शुरुआत करने के बाद, अनुष्का की इस नयी कोशिश में विज़ुअल ग्राफ़िक्स कमाल के हैं. अनुष्का भूत से कहीं ज्यादा किसी परी की तरह परदे पर रंगीनियाँ बिखेरती नज़र आती हैं. भूत के रूप में जिन-जिन दृश्यों में वो नज़र आती हैं, उनमें एडिटिंग बेहतरीन तरीके से आपका ध्यान आकर्षित करती है. अनुष्का खुद एक कलाकार के तौर पर दोनों (फ्लैशबैक में, और वर्तमान में) रूपों में भली लगती हैं. दलजीत परदे पर अपना करिश्मा बिखेरने में फिर एक बार कामयाब रहते हैं. मनमौजी गायक की आवारगी से दीवाने आशिक की संजीदगी तक के उनके सफ़र में आपका वक़्त बड़े इत्मीनान से गुजरता है. शशि के भाई की भूमिका में मानव विज एक-दो दृश्यों में ही अपने जौहर दिखा जाते हैं. ‘उड़ता पंजाब’ में हम उन्हें ऐसा ही कुछ कमाल करते पहले ही देख चुके हैं. दिवंगत अभिनेता शिवम् प्रधान (पियूष की भूमिका में) को मजेदार रोल में देखना, और इस सक्षम अदाकार को दुबारा न देख पाने की कसक एक साथ दिल कचोटती रहती है.

आखिर में, ‘फ़िल्लौरी’ एक अच्छी कहानी होने के बावजूद ढीले डायरेक्शन, बेतरतीब राइटिंग और सुस्त रफ़्तार की वजह से वो मुकाम हासिल नहीं कर पाती, जिसकी हकदार वो कई मायनों में वाकई है. जिस ख़ूबसूरती के साथ अंशाई लाल शशि के किरदार को शानदार विज़ुअल ग्राफ़िक्स के जरिये परदे पर ज़िंदा रखते हैं, अंत तक आते-आते उसे कुछ इस हद तक निचोड़ने में लग जाते हैं कि आपको ‘दी एण्ड’ तक रुकना भी भारी लगने लगता है. [2.5/5]                 

Friday, 24 March 2017

अनारकली ऑफ़ आरा (A): बेख़ौफ़, बेपरवाह, तेज़-तर्रार...फिल्म भी, स्वरा भी! [4/5]

‘नाच’ या इस तरह की और दूसरी लोकविधाएं, जिनमें लड़कियां मंच पर सैकड़ों की भीड़ के सामने द्विअर्थी गानों पे उत्तेजक लटके-झटके दिखाती हैं; राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी लोकप्रिय हैं. हमारी फिल्मों ने भी ‘आइटम सॉंग’ के तौर पर इस का पूरा पूरा दोहन किया है. ऐसे तमाम विडियो आपको इन्टरनेट पर देखने को मिल जायेंगे, जहां अक्सर ‘अश्लीलता’ का सारा नैतिक ठीकरा हम ऐसे ‘नचनियों’ पर फोड़ कर उनके ठीक सामने हवस में लिपटे, लार टपकाते मर्दों की जमात को भूल जाते हैं. चाहे मंच पर वो अपने आप को कितना भी ‘कलाकार’, ‘सिंगर’ या ‘डांसर’ मानने और मनवाने की कोशिश करते रहें, हममें से ज्यादातर के लिए हैं तो वो ‘रंडियां’ ही. और ‘रंडियों’ की मर्ज़ी कौन पूछता है? हम मर्द तो बस्स ‘कीमत’ लगाना जानते हैं, उनके जिस्म की कीमत, उनके वक़्त की कीमत, उनके वजूद की कीमत. एक घंटे का इतना, एक रात का इतना!

अनरकलिया (स्वरा भास्कर) आरा जिल्ला की सबसे मशहूर कलाकार है. शादी-बियाह के मौके पर उसका प्रोग्राम न हो, तो सब मज़ा किरकिरा. चाहने वालों में इलाके के थानेदार से लेकर स्थानीय यूनिवर्सिटी के दबंग वीसी (संजय मिश्रा) तक, सबके नाम शामिल हैं. ‘साटा’ पर नाचने-गाने वाली को सब अपनी ‘प्रॉपर्टी’ समझते हैं. वीसी साहब तो इतना ज्यादा कि मंच पर ही उसके साथ जबरदस्ती करने लगते हैं. अनरकलिया देती है एक रख के, वहीँ के वहीँ, उसी वक़्त! हालाँकि वो खुद कबूलती है कि वो कोई सती सावित्री नहीं है, पर मर्ज़ी पूछे जाने का हक़ सिर्फ सती सावित्रियों के ही हिस्से क्यूँ? अनारकली शायद हालिया हिंदी फिल्मों की सबसे सच्ची सशक्त महिला किरदार है. ‘नायिका’ बन कर उभरने के लिए, वो लेखक के पूर्व-नियोजित नाटकीय दृश्यों की मोहताज़ नहीं है, ना ही अविनाश उसे कभी इतना असहाय और कमज़ोर पड़ने ही देते हैं. गुंडों से भागते-भागते थककर, जब वो हाथ में टूटी चप्पल पकड़े रेलवे स्टेशन पर भटक रही होती है, तब भी उसे कहीं से भी कमज़ोर आंकने की गलती आप नहीं करते! उसके ताव बनावटी नहीं हैं, उसकी ताप ढुल-मुल नहीं है.

पिछले साल की ‘पिंक’ ने जिस ‘ना’ की आग को बड़ी बेबाकी से परदे पर हवा दी थी, अविनाश दास की ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ उसी आग को एक बार फिर धधका देती है, पर इस बार पहले से कहीं ज्यादा बेख़ौफ़, बेपरवाह और झन्नाटेदार तरीके से! अविनाश एक नयी धारदार आवाज़ की तरह अपने शब्दों, अपने चित्रों और अपने किरदारों के साथ आपको हर पल बेधते रहते हैं. फिल्म बनाते वक़्त अक्सर बड़े-बड़े नामचीन निर्देशक फ्रेम सजाने का मोह छोड़ नहीं पाते. ‘रियल’ गढ़ने के दबाव में, परदे पर कुछ बेतरतीब भी दिखाना हो, तो थोड़ा सलीके से. पर अविनाश इन बन्धनों से मुक्त दिखते हैं. उनका एक किरदार जब दूसरी महिला किरदार से बदतमीज़ी कर रहा होता है, जब कुछ इतना बेरोक-टोक होता है कि आप अन्दर से दहल जाते हैं. मुट्ठियाँ अपने आप भींच जाती हैं. मल्टीप्लेक्स के ज़माने में, ऐसा कभी-कभी ही होता है. इस एक फिल्म में कई बार होता है.

अनारकली ऑफ़ आरा’ में स्वरा भास्कर एक ज्वालामुखी की तरह परदे पर फटती हैं. अपने किरदार में जिस तरह की आग और जिस तरीके की बेपरवाही वो शामिल करती हैं, उसे देखकर आप उनके मुरीद हुए बिना रह नहीं सकते. ये उनका तेज़-तर्रार अभिनय ही है, जो इस फिल्म के ‘साल के सबसे पावरफुल क्लाइमेक्स’ में आपके रोंगटे खड़े कर देता है. अनारकली का ‘तांडव’, अभिनेत्री के तौर पर स्वरा भास्कर का ‘तांडव’ है. इसके बाद अब शायद ही आप उनके अभिनय-कौशल को शक की नज़र से देखने की भूल करें! स्वरा का अभिनय अगर ‘एक्टिंग’ के सिद्धांत को मज़बूत करता है, तो पंकज त्रिपाठी अपने तीखे और तेज़ प्रतिक्रियात्मक अभिनय से चौंकाते और गुद्गुदाते रहते हैं. नाच-नौटंकी में मसखरे सूत्रधार की भूमिका में उनका आत्म-विश्वास खुल के और खिल के सामने आता है. उन्हें परदे पर देखते हुए उनकी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि का ख्याल कर के, आप उनके प्रति आभार और सम्मान से भर उठते हैं. संजय मिश्रा का अभिनय इन सबमें सबसे नाटकीय लगता है, अपने ‘कैरीकेचर’ जैसे किरदार की वजह से!

आखिर में, ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ तरह-तरह के (अच्छे, बुरे) मर्दों से भरी एक ऐसी गज़ब की फिल्म है, जिसमें एक औरत ‘नायिका’ बन के उभरने का इंतज़ार नहीं करती, और ना ही ‘नायिका’ बनने के तुरंत बाद वापस अपने ढर्रे, अपने सांचे, अपने घोंसले में लौट जाने का समझौता! अविनाश दास से शिकायत बस एक ही रहेगी कि काश, ये फिल्म, अपनी पृष्ठभूमि और बोल-चाल, लहजे की वजह से, भोजपुरी भाषा में बनी होती या बन पाती! कम से कम, उस डूबते जहाज़ के हिस्से एक तो मज़बूत हाथ आता, जो उसे अकेले किनारे तक खींच लाने का दमख़म रखता है! (4/5)

Friday, 17 March 2017

ट्रैप्ड: हिंदी सिनेमा का एक नया अध्याय! [4/5]

दो दुनिया है यहीं कहीं, इक अदृश्य रेखा से बंटी-कटी. जब आप इधर नहीं होते, तो उधर होते हैं; उधर नहीं तो पक्का इधर. एक दुनिया, जहां बहरे होते जा रहे हैं हम. जरूरतों के पीछे की अंधाधुंध दौड़ में, मानवीय संवेदनाओं को सुनने-समझने-देखने की ताकत खोते जा रहे हैं. भीड़ का शोर दूसरी दुनिया से आ रही उस एक अदद आवाज़ को हमारे कानों तक पहुँचने ही नहीं देता, जिस से जुड़ कर हम खुद को ही खोने से बचा सकते हैं. इस दुनिया में, कानों पे एक अलग ही किस्म का रेडियो चिपका रक्खा है हम सभी ने, फरमाईशी फ़िल्मी संगीत का छलावा जिसमें जोरों से थाप दे रहा है. यहाँ अपनी अपनी छतों पे चढ़ कर आसमान में आँखें बोने का चस्का तो सभी को है, पर मदद की गुहार में ज़मीनी सतह से उठते दूसरी दुनिया के हाथ चाह कर भी हमें दिखाई नहीं देते.

मजेदार है कि दूसरी तरफ भी हमीं हैं. इस भीड़ भरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाने का डर पाले, बंद कमरे के अन्दर से दरवाजे पीटने, खिड़कियों की सलाखें पकड़ के ‘बचाओ-बचाओ’ चीखने को मजबूर. जाल और जंजाल तो दोनों ही तरफ हैं, मगर इस दुनिया का संघर्ष तोड़ कर रख देता है. सामाजिक मान्यताओं के खंडन से लेकर व्यक्तिगत पराक्रम की पराकाष्ठा तक, सब कुछ अपने चरम पर. विक्रमादित्य मोटवाने की ‘ट्रैप्ड’ एक ऐसी ही सशक्त फिल्म है, जो एक बंद कमरे के सीमित दायरे में घुटती, लड़ती, जूझती और अंततः जीतती जिन्दगी के हौसले का सम्पूर्ण सम्मान और सत्कार करती है. हॉलीवुड में भले ही आपने ‘127 आवर्स’ या ‘बरी’ड’ जैसी फिल्में बहुत देखी हों, हिंदी सिनेमा में इस तरह का प्रयास अपनी तरह का एकलौता है, और बेहतरीन भी.

मुंबई जैसे महानगर में शौर्य (राजकुमार राव) जैसे नौकरी-शुदा प्रेमियों के लिए शादी की पहली शर्त, रहने का एक अच्छा ठिकाना ही होती है. नूरी (गीतांजलि थापा) अब उसके दोस्तों की जमात वाले एक कमरे के फ्लैट में तो रहने से रही. खैर, जुगाड़ काम आया और शौर्य को 35वें फ्लोर पर एक सही फ्लैट मिल गया है. भीड़-भाड़ वाला इलाका है, पर बिल्डिंग एकदम सुनसान. कानूनी मामलों में फँसी ऐसी बियाबान इमारतें मुंबई जैसे महानगरों में हैरत की बात नहीं, पर किसे अंदाज़ा था कि अगली ही सुबह जब शौर्य गलती से अपने ही फ्लैट में कैद हो जाएगा, तो उसके लिए वहाँ से निकलने में दो-चार घंटे, या एक-दो दिन नहीं, पूरे 21 दिन लग जायेंगे? मैं जानता हूँ, आप इस एक लाइन के ख़त्म होते-होते तक अपने उपायों, सवालों और सुझावों की लम्बी फेहरिस्त के साथ तैयार हो जायेंगे कि ऐसा होना किस हद तक नामुमकिन है, खास कर मुंबई जैसे शहर और आजकल के प्रबल तकनीकी दौर में? पर विक्रमादित्य मोटवाने जैसे ठान कर बैठे हों कि आपको मनवा के ही छोड़ेंगे. और उनकी इस कोशिश में उनका पूरा-पूरा साथ देते हैं राजकुमार राव. उनकी झल्लाहट हो, डर हो, खीझ हो, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की जिद हो या फिर नाउम्मीदी में टूट कर बिखरने और फिर खुद को समेट कर उठ खड़े होने का दम; राव अविश्वसनीय तरीके से पूरी फिल्म को अपने मज़बूत कंधे पर ढोते रहते हैं. फिल्म की दमदार कहानी, अपने सामान्य से दिखने वाले डील-डौल की वजह से राव पर हमेशा हावी दिखाई देती है, जिससे दर्शकों के मन में राव के किरदार के प्रति सहानुभूति का एक भाव लगातार बना रहता है, पर धीरे-धीरे जब राव अपने ताव बदलते हैं, फिल्म उनकी अभिनय-क्षमता के आगे दबती और झुकती चली जाती है.

ट्रैप्ड’ की सबसे बड़ी खासियत है, एक ही लोकेशन पर सिमटे रहने के बावजूद आपको घुटन महसूस नहीं होने देती. आप खुद भी उस एक कमरे से बाहर निकलने की राह जोहते रहते हैं, पर ऐसा सिर्फ उस किरदार से जुड़ाव की वजह से होता है. बहरी बाहरी दुनिया का ध्यान खींचने के लिए, जब जब शौर्य कोई नयी जुगत लगाता है, आप उसके लिए तालियाँ पीटते हैं, पर जब कुछ भी काम नहीं आता, आप ही उसके साथ झल्लाते भी हैं. मोटवाने अपने लेखकों के साथ मिलकर इतनी मुस्तैदी से सारा ताना-बाना बुनते हैं कि शिकायत करने को ज्यादा कुछ रह नहीं जाता. घर को आग के हवाले कर देने से लेकर, खून से तख्तियां लिख-लिख कर बाहर फेंकने, यहाँ तक कि टीवी को खिड़की से नीचे गिराने तक की सारी जद्दो-जेहद आपको इस ‘बिना इंटरवल की फिल्म’ में शुरू से लेकर अंत तक कुर्सी से बांधे रखती है.

आखिर में; ‘ट्रैप्ड’ भारतीय सिनेमा में ‘सर्वाइवल ड्रामा’ का एक नया अध्याय बड़ी ईमानदारी और पूरी शिद्दत से लिखती है. किशोरावस्था की चुनौतियों से लड़ते ‘उड़ान’ और सिनेमाई परदे की क्लासिक प्रेम-कहानियों को श्रद्धांजलि देती ‘लुटेरा’ के बाद; विक्रमादित्य मोटवाने की ये छोटी सी फिल्म हिंदी सिनेमा के बड़े बदलाव का एक अहम् हिस्सा है. एक ऐसी फिल्म, जिस पर फ़िल्मी दर्शक के रूप में आपको भी नाज़ होगा. कुछ ऐसा जो आपने हिंदी सिनेमा में पहले कभी नहीं देखा; तो जाईये, देख आईये! [4/5]

Sunday, 12 March 2017

बद्रीनाथ की दुल्हनिया: बेटे पढाओ, बेटी बचाओ! [2/5]

दुल्हन शादी के मंडप में दूल्हे को सजा-सजाया छोड़ के भाग गयी है. पढ़ी-लिखी है, उसे ‘क्लौस्ट्रोफ़ोबिया’ का मतलब अच्छी तरह पता है. एक साल बाद खबर आई है कि लड़की मुंबई में कहीं है. लड़का अब भी हाथ भर का मुंह लटकाए, थूथन फुलाए सड़क पर बाइक का एक्सीलेटर चांप रहा है. पिताजी हैं बड़का विलेन टाइप. फरमान सुना दिये हैं कि लड़की को उठा लाओ, हवेली के चौखटे पे लटका देंगे ताकि पता तो चले, बेइज्ज़ती का ज़ायका होता कैसा है? लड़का भी अपने झाँसी का ही है, ‘जो आज्ञा, पिताजी’ बोल के निकल पड़ा है. खैर, दुल्हनिया बद्रीनाथ की हो या केदारनाथ की, पिक्चर तो करन जौहर की ही है ना! तो भईया, आखिर में होना वही है, क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते लड़के में बदलाव के लक्षण इतने तेज़ी से चमकाई देते हैं जैसे फिल्म नहीं, गोरा बनाने वाली फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन चल रहा हो. और लड़की? लड़कियों के लिए तो भाई आजकल सब माफ़ है. हम और आप होते कौन हैं, उनके इंटेंट और ‘चेंज ऑफ़ इंटरेस्ट’ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने वाले?

हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’ के तर्ज़ पर ही, लेखक-निर्देशक शशांक खेतान एक बार फिर आपका परिचय छोटे शहरों के मिडिल-क्लास घरों-परिवारों के बड़े अपने से लगने वाले किरदारों से कराते हैं. तेज़-तर्रार बाप (रितुराज सिंह) के आगे कोई अपनी मर्ज़ी से चूं तक नहीं कर सकता. भाभी (श्वेता बासु प्रसाद) पढ़ी-लिखी होने के बावज़ूद, जॉब करने जैसी फालतू बात सोच भी नहीं सकती. और लड़के तो एक नम्बर के मजनूं. दूसरे की शादी में अपने लिए लड़की पसंद कर आते हैं, वो भी दुल्हन की सबसे क़रीबी. नहीं, नहीं, वो पीछे वाली सांवली-सलोनी नहीं, आगे वाली गोरी-चिट्टी, जो बाकायदा स्टेप मिला-मिला के डांस कर लेती हो. फिर ‘वो तेरी, ये मेरी, इसको तू रख ले, उसको मुझे दे दे’, और उसके बाद लड़की (आलिया भट्ट) के आगे-पीछे चक्कर लगाने का खेल.  वैसे ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ बड़े ठीक मौके पर सिनेमाघरों में आई है. भाजपा जल्द ही उत्तर प्रदेश में ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड’ का गठन करने वाली है. अपनी थेथरई, बेहयाई और अकड़ की वजह से, उनके लिए बद्रीनाथ (वरुण धवन) जैसे आशिक़ एकदम सटीक बैठते हैं, जिनको लड़कियों की ‘ना’ सुनाई ही नहीं देती, जिनके ताव के आगे क्या झाँसी, क्या सिंगापुर, सब बराबर हैं, और जिनको लड़की पर धौंस जमानी हो, तो ‘मेरा बाप कौन है, पता है?” जैसे जुमले उछालने खूब आते हों.   

लड़का-लड़की के बीच का भेदभाव हो, समाज की कुंठित-कुत्सित पितृसत्तात्मक व्यवस्था हो या फिर दहेज़ की समस्या; फिल्म पहले तो बड़ी समझदारी से उन पर व्यंग्य कसती है, हंसती है-हंसाती है, पर कहीं-कहीं उनका मखौल उड़ाने की जल्दबाजी में अपनी कमजोरियां, अपनी उदासीनता भी जग-जाहिर कर बैठती है. झाँसी के लड़के ‘मोलेस्टेशन’ का मतलब भी नहीं जानते, पर जब उन्हीं के साथ (जी हाँ, मर्दों के साथ भी होता है) ऐसी स्थिति बनती है, तो समझदार, सेंसिटिव वैदेही भी मुंह दबा कर हंसती नज़र आती है. वहीँ बदला हुआ बद्री जब अपने परिवार के बारे में टीका-टिप्पणी करता है, “वैदेही तो यहाँ घुट-घुट के मर जाती!’, उस मूढ़ को सामने खड़ी अपनी भाभी नज़र भी नहीं आतीं, जिनकी हालत और हालात वैदेही से कहीं कमतर नहीं. ‘चैरिटी बिगिन्स एट होम’ उसने शायद सुना भी नहीं होगा!

फिल्म अपने पहले हिस्से में बड़े भोलेपन और सादगी के साथ, भारतीय मर्दों के जंग लगे अहं और भारतीय स्त्रियों के बदलते ‘मेरी आजादी, मेरा ब्रांड’ सुर के बीच के टकराव को सामने लाती है, पर मध्यांतर के तुरंत बाद सब उलट-पुलट और गड्डमगड्ड हो जाता है. किरदार अपने रंग छोड़ने लगते हैं. कहानी ढर्रे पर उतरती चली जाती है, और अंत तक पहुँचते-पहुँचते तो सब कुछ ‘बॉलीवुडाना’ हो जाता है. सही को सही कहने के लिए, गलत को गलत ठहराने के लिए ‘बोतल’ की भूमिका अहम हो जाती है, और अंत तो तभी सुखद होगा ना, जब लड़का-लड़की मिलेंगे और ‘शादी’ होगी. ताज्जुब होता है कि ऐसी फिल्म करन जौहर के बैनर से निकलती है, जो खुद ‘शादी’ को इतनी अहमियत नहीं देते और अभी-अभी अविवाहित रहते हुए सरोगेसी के जरिये जुड़वाँ बच्चों के पिता बने हैं.

आखिर में, सिर्फ इतना ही कि फिल्म में ‘क्यूटनेस’ कूट-कूट कर भरी है तो मुद्दों को गंभीर हुए बिना नज़रंदाज़ किया भी जा सकता है. हिंदी सिनेमा अब तक बॉक्सऑफिस पर आखिर यही फार्मूला तो भुनाता आया है, सवाल है कि कब तक? हालाँकि इस फिल्म के बद्री को बदलने में महज़ कुछ घंटे ही लगते हैं, जब वो अपने होने वाले बच्चों के नाम ‘विष्णु, सार्थक, रुक्मणि और प्रेरणा’ से बदल कर ‘वैष्णवी, सार्थकी, रुक्मणि और प्रेरणा’ कर लेता है (मैं इसे अति-फेमिनिज्म कहता हूँ), पर हमारे सिनेमा, समाज और सोच को बदलने में जाने कितने और साल लग जाएँ, कौन कह सकता है? [2/5]