एवरेस्ट सिर्फ इसलिए नहीं
चढ़ना है, क्यूंकि एवरेस्ट बड़ा है, सबसे बड़ा. वजह बड़ी होनी चाहिए, उससे भी बड़ी. तेलंगाना
के एक आदिवासी इलाके की पूर्णा महज़ 13 साल की है. भूख, गरीबी,
अशिक्षा जैसी मुसीबतों का पहाड़ पहले भी लांघती आई है, पर एवरेस्ट-विजय करने की वो ‘बड़ी’
वजह अभी भी उसके पास नहीं है. वो वजह उसे मिलती है अपनी अक्का (बड़ी दीदी)
की दम तोड़ती आँखों में; एक ऐसे चमकीले सपने की तरह, जिसमें पूर्णा ने एवरेस्ट फ़तेह
कर ली है और अब उसके छोटे से गाँव को पूरी दुनिया जानती है. उम्मीद की एक चौड़ी सड़क
उसके गाँव के बीच से होकर निकलने लगी है. पूर्णा को अब अपने लिए नहीं, अपनी अक्का,
अपने गाँव और अपने जैसी हज़ारों दूसरी लड़कियों के लिए एवरेस्ट चढ़ना है. अब एवरेस्ट
बड़ा नहीं रहा, वजह बड़ी हो गयी.
‘पूर्णा’ के साथ, निर्माता-निर्देशक
और अभिनेता राहुल बोस सिनेमा के लिए भी कुछ ऐसी ही मिसाल पेश करते
हैं. फिल्म बड़ी हो, न हो, उसके पीछे की वजह बड़ी होनी ही चाहिए. एवरेस्ट पर पहले भी
आपने बहुत सारी फिल्में देखी होंगी (हिंदी में कुछ गिनती की, अंग्रेजी में
ज्यादा); परदे पर एवरेस्ट को खलनायक की तरह अजेय, अभेद्य और विशालकाय दिखा कर,
किरदारों को ‘नायक’ बनाने में लगभग सब की सब सफल भी रही हैं, पर राहुल जिस
संजीदगी और समझदारी से अपना सारा ध्यान एवरेस्ट की उंचाईयों से हटाकर, तमाम सतही
सामाजिक बुराइयों और गर्त में धंसते जा रहे समाज के कुछ ख़ास तबकों की तकलीफों पर
केन्द्रित करते हैं, वो न सिर्फ काबिल-ऐ-तारीफ़ है, बल्कि उतना ही प्रेरक भी.
चचेरी बहनें प्रिया (एस मारिया)
और पूर्णा (अदिति ईनामदार) सरकारी स्कूल में जाती तो हैं, पर उनका पूरा दिन
झाड़ू लगाने में ही बीतता है. उनके पास फ़ीस के पैसे नहीं हैं. प्रिया गाँव से दूर
एक ऐसे स्कूल में जाना चाहती है, जहां पढ़ाई के साथ-साथ खाना भी मिलता है. “अंडा
मिलता है. कभी देखी भी हो?” पूर्णा नहीं में सर हिला देती है. फिल्म के एक दृश्य
में, जहां लड़कियां आपस में ‘कौन कितना गरीब’ खेल खेल रही होतीं हैं, पूर्णा की मार्मिक
दलील देखिये, “मेरे तो नाम में ही ‘पुअर’ (‘poor’na) है.” प्रिया की शादी
हो गयी है, पर पूर्णा को प्रोत्साहित करना नहीं छोड़ती. पूर्णा अब उसी स्कूल में
है, जहां उसे प्रवीण कुमार (राहुल बोस) के रूप में समाज कल्याण विभाग के कर्मठ,
सशक्त और दूरदर्शी अधिकारी के शिक्षा के क्षेत्र में नए-नए सुधारों और सुझावों का
साथ मिलता है.
सच्ची कहानी को उतने ही सच्चे तरीके
से परदे पर लाने के लिए, राहुल फिल्म को वास्तविकता के इतने नज़दीक लेकर आते
हैं कि कई बार आप सिनेमा और सच्चाई में फर्क ही महसूस नहीं कर पाते, ख़ास कर मुख्य
कलाकारों (मारिया और अदिति) के अभिनय और बोल-चाल में. हालाँकि धृतिमान
चैटर्जी, हीबा शाह, आरिफ़ जकारिया और खुद राहुल जैसे जाने-पहचाने चेहरों
की मौजूदगी फिल्म को फिल्म समझ कर ही देखने के लिए बार-बार भटकाती रहती है, पर दूसरे
कलाकार कुछ ज्यादा ही सहज रूप से कैमरे को नज़रअंदाज़ करने में सफल साबित होते हैं. राहुल
निर्देशक के तौर पर भी खुद को बहुत संयमित रखते हैं. तकनीकी तौर पर बहुत ज्यादा
उत्साहित होकर दर्शकों को चौंकाने या प्रभावित करने के लोभ से खुद को बचाए रखने
में उनकी समझदारी साफ़ नज़र आती है. फिल्म के आखिरी हिस्से में वो सन्नाटे का जिस
खूबी से इस्तेमाल करते हैं, परदे पर ही देखने की बात है.
देश में विकास का जो सारा ताना-बाना
शहरों और गाँवों को जोड़ने की बात करता है, ‘पूर्णा’ काफी हद तक उसकी कड़वी सच्चाई
आप तक पेश कर पाती है. ‘पूर्णा’ आपको कचोटती है, जब आप शादी के जंजाल में
बाँध दी गयी प्रिया को पहली बार साड़ी में देखते हैं. ‘कुछ कर गुजरने’ की चाह लिए मोटी-मोटी
आँखों वाली बच्ची को ‘सब कुछ करने-सहने वाली’ औरत बनाने पर हम कैसे और क्यूँ आमादा
हो जाते हैं? ‘पूर्णा’ आपको अन्दर से तोड़ देती है, जब सिर्फ 13 साल की
पूर्णा को आप हालातों से लड़ते-झगड़ते-बढ़ते देखते हैं. हालाँकि प्रवीण कुमार
जैसे जज्बाती और जुझारू लोगों की ईमानदार कोशिशों पर रौशनी डालकर, ‘पूर्णा’
उम्मीदें भी बहुत जगाती है. सिनेमा के लिए भी, समाज के लिए भी.
मैले-कुचैले कपड़ों में, सिग्नल पर
भीख मांगते बच्चों को तो हम अब भी डांट-डपट कर दुत्कार देंगे, सारा ठीकरा निकम्मी सरकारों
के माथे फोड़ कर मुंह भी मोड़ लेंगे; पर ‘पूर्णा’ कम से कम अपने 105 मिनट के
छोटे से वक़्त तक ही, आपको बेहतर इंसान बनाये रखने की एक कामयाब कोशिश तो करती ही
है. 105 मिनट के बाद की जिम्मेदारी, समझदारी और ईमानदारी आपकी अपनी! [4/5]