Friday, 23 June 2017

ट्यूबलाइट: यकीनन...ख़राब फिल्म-खराब एक्टिंग! [1.5/5]

'ट्यूबलाइट' के होने की वजह मेरे हिसाब से 'बजरंगी भाईजान' की कामयाबी में ही तलाशी गयी होगी. चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने कबीर खान के हाथ अब एक ऐसा अमोघ फार्मूला लग गया था, जिसमें बॉक्स-ऑफिस पर सिक्कों की खनक पैदा करने की हैसियत तो थी ही, आलोचकों और समीक्षकों का मुंह बंद कराने की ताकत और जुड़ गयी. एक सीधी-सादी दिल छू लेने वाली कहानी, थोड़ा सा 'बॉर्डर-प्रेम' का पॉलिटिकल तड़का, चुटकी भर 'बीइंग ह्यूमन' का वैश्विक सन्देश और साफ़ दिल रखने की तख्ती हाथों में लेकर घूमते एक बेपरवाह 'भाईजान'. 'ट्यूबलाइट' बड़े अच्छे तरीके और आसानी से इसी ढर्रे, इसी तैयार सांचे में फिट हो जाती है, पर जब आग में तप कर बाहर आती है तो नतीज़ा कुछ और ही होता है. मिट्टी ही सही नहीं हो, तो ईटें भी कमज़ोर ही निकलती हैं. 

कुमाऊँ के एक छोटे से गाँव में गांधीजी कहकर गये, "यकीन से कुछ भी हासिल किया जा सकता है". ट्यूबलाइट की तरह, देर से दिमाग की बत्ती जलने वाले लक्ष्मण (सलमान खान) की सुई इस 'यकीन' पर आके कुछ ऐसे अटक गयी कि सालों बाद 1962 के भारत-चीन युद्ध में लापता भाई (सोहेल खान) की वापसी के लिए भी, लक्ष्मण उसी 'यकीन' की तरफ टकटकी लगाये देख रहा है. कबीर खान कहानी की इस ठीक-ठाक नींव को मज़बूत करने में थकाऊ धीमी गति और पकाऊ भाषणों से इतना वक़्त खपाते हैं कि फिल्म का वो ज़रूरी पैग़ाम देने में देर हो जाती है, जहां चीनी मूल के भारतीय माँ-बेटे लीलिंग और गुओ (ज़ू ज़ू और माटिन रे तंगु) को गांववाले चीनी समझकर नस्ली भेदभाव दिखाने लगते हैं. लक्ष्मण खुद गुओ को 'गू' कहकर बुलाता है, और एक दृश्य में तो गुओ को 'भारत माता की जय' बोल कर हिन्दुस्तानी होने का सबूत देने को भी कहता है. आज के दौर में, जब सेना के जुझारूपन और हर किसी के 'देशभक्त' होने, न होने की पिपिहरी पूरे देश में जोरों से बज रही है, कबीर खान भारतीय सेना के एक अधिकारी (यशपाल शर्मा) से युद्ध-विरोधी बातें कहलवाने की हिम्मत तो जरूर दिखाते हैं, लेकिन सब कुछ बेदम, बनावटी और बेअसर!

फिल्म में बहुत कुछ बेढंगा और वाहियात है, जो आपको लगातार परेशान करता रहता है. कुमाऊँ का यह गाँव फिल्मी सेट लगने-दिखने की हद से बाहर जा ही नहीं पाता. फिल्मों में 80 के दशक के गाँव और वही 25-50 चेहरे, जो हर जगह भीड़ का हिस्सा बनकर चौराहे पर डटे रहते थे, बेबस याद आ जाते हैं. कैलेंडर पर '62 भले ही चल रहा हो, गाँववालों की बातचीत के लहजे में 'चाइना', 'ज़िप', 'गैप' और तमाम अंग्रेज़ी के शब्द बड़ी बेशर्मी से कानों में सुनाई देते रहते हैं. फिर आती हैं मशहूर चीनी अभिनेत्री ज़ू ज़ू. मुझे कोई वजह समझ नहीं आती कि उनकी जगह कोई दूसरी (नार्थ-ईस्ट की) भारतीय अभिनेत्री क्यूँ नहीं हो सकती थी? जैसे उनके बेटे की भूमिका में माटिन रे तंगु अरुणाचल प्रदेश से ही हैं. 'मैरी कॉम' में प्रियंका चोपड़ा की कास्टिंग जैसी ही कुछ भयानक गलती है ये. 

...पर फिल्म में एक पॉइंट पर आकर आपको ये सारी शिकायतें बहुत छोटी लगने लगती हैं, जब आप फिल्म के मुख्य कलाकार सलमान खान को एक के बाद एक हर दृश्य में अभिनय के नाम पर कुछ भी आढ़े-टेढ़े चेहरे बनाते हुए देखते हैं. कबीर उनके किरदार को परदे पर रोते हुए पेश करने में ज्यादा मेहनत दिखाते हैं, पर हमें रोना आता है तो सिर्फ सलमान की अभिनय में नाकाम कोशिशों से. फिल्म में सलमान अपने यकीन से पहाड़ भी हिला देते हैं, ऐसा ही कोई यकीन उन्हें अपने अभिनय में भी दिखाना चाहिए. कभी-कभी ही सही. मोहम्मद जीशान अय्यूब जैसे मंजे कलाकार के लिए फिल्म में बहुत कुछ करने को नहीं है, पर एक दृश्य में जब वो सलमान के किरदार को थप्पड़ जड़ रहे होते हैं, लगता है सलमान को जैसे सज़ा मिल रही हो, अच्छी एक्टिंग न करने की, उससे जो शायद फ़िल्म में सबसे अच्छी कर रहा हो. सोहेल खान बड़ी समझदारी से फिल्म में आते-जाते रहते हैं, तो उनसे न तो ज्यादा उम्मीदें बनती हैं, न ही शिकायतें. शाहरुख एक दृश्य में आते तो हैं, पर उनसे भी किसी करिश्मे की कोई आस नहीं जगती.    

आखिर में; 'ट्यूबलाइट' में कबीर खान अपने 'बजरंगी भाईजान' वाले फ़ॉर्मूले को बॉक्स-ऑफिस पर दोबारा भुनाने की कोशिश करते हैं, पर ठीक वैसे ही औंधे मुंह गिरते हैं, जैसे 'एक था टाइगर' के बाद 'फैंटम'. रही बात यकीन की, तो मुझे यकीन है कि भाई एक दिन एक्टिंग करनी सीख ही जायेंगे, तब तक के लिए भेजते रहिये 'ईदी'...और बिजली में कटौती, रौशनी में बढौती के लिए अपनाईये एलईडी! [1.5/5]        

Friday, 16 June 2017

बैंक चोर: 'धूम' से धड़ाम, उबाऊ और नाकाम! [1.5/5]

बैंक में बाबा, हाथी और घोड़े घुस आये हैं. ठीक वैसे ही, जैसे देश की राजनीति में योगी, गाय और भैंस. उथल-पुथल तो मचनी ही है; पर राजनीति की तरह ही यहाँ भी 'बैंक चोर' वादे तो बहुत सारे करती है, पर जब निभाने की बारी आती है तो बचाव की मुद्रा में इधर-उधर के बहाने ढूँढने लगती है, रोमांच के लिए झूठ-मूठ का जाल बुनने लगती है और अंत में 'जनता की भलाई' का स्वांग रचकर अपनी सारी गलतियों पर काला कपड़ा डाल देती है. चतुर, चालक और चौकन्ने चोरों पर यशराज फ़िल्म्स 'धूम' के साथ पहले ही काफी तगड़ी रिसर्च कर चुकी है. सरसरी तौर पर देखा जाये, तो 'बैंक चोर' उसी रिसर्च मैटेरियल की खुरचन है, जो उन तमाम 'चोरी' वाली फ़िल्मों का स्पूफ़ ज्यादा लगती है, ट्रिब्यूट कम. 

चम्पक (रितेश देशमुख) अपने दो दोस्तों के साथ बैंक लूटने आ तो गया है, पर अब उसके लिए ये खेल इतना आसान रह नहीं गया है, ख़ास कर तब, जब बैंक के बाहर सीबीआई का एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) खुद कमान थामे खड़ा हो. खान को शक है कि शहर की दूसरी बड़ी चोरियों के पीछे भी इन्हीं चोरों का हाथ है, हालाँकि इन मसखरे चोरों की बेवकूफ़ाना हरकतों से ऐसा लगता तो नहीं. चोर-पुलिस और सीबीआई की इस पूरी गुत्थम-गुत्थी में, गिरना-पड़ना, दौड़ना, चीखना-चिल्लाना इतना ज्यादा है कि हंसने के लिए भी मुनासिब जगह और वक़्त नहीं मिलता. साथ में, उल-जलूल हरकतों का ऐसा ताना-बाना कि बोरियत आपको अपनी गिरफ्त में लेने लगती है. और तभी कुछ ऐसा होता है, जो आपकी सुस्त पड़ती बोझिल आंखों और कुर्सी में धंसते शरीर को वापस एक जोर का झटका देती है, परदे पर इंटरवल के साथ ही साहिल वैद्य की एंट्री. बैंक में मौजूद असली चोर के रूप में. 

फिल्म के निर्देशक बम्पी कहानी का सारा ट्विस्ट फिल्म के आखिरी हिस्से के लिए बचा के रखते हैं, मगर वहाँ तक पहुँचने का पूरा सफ़र अपने नाम की तरह ही उबड़-खाबड़ बनाये रखते हैं. फिल्म में सस्पेंस का पुट डालने के लिए वो जितने भी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, वो सारे के सारे आजमाए हुए और पुराने ढर्रे के हैं. साहिल वैद्य की एंट्री इस हिसाब से और भी कारगर दिखने लगती है, जब इशिता मोइत्रा के संवाद अब फिल्म के बाकी हिस्सों के मुकाबले ज्यादा सटीक, मजेदार और रोचक सुनाई देने लगते हैं. साहिल फैजाबाद, उत्तर प्रदेश के एक ऐसे चोर की भूमिका में हैं, जो लखनवी अदब और आदाब का लिहाज़ करना और कराना बखूबी जानता है. तू-तड़ाक उसे जरा भी पसंद नहीं, और दादरा का ताल उसे गोली लगे बदन से रिसते लहू में भी साफ़ सुनाई देता है. 'नए-नए बिस्मिल बने हो, तुम्हें रस्म-ऐ-शहादत क्या मालूम?' जैसी लाइनें और इन्हें चेहरे पर मढ़ते-जड़ते वक़्त, जिस तेवर, जिस लहजे का इस्तेमाल साहिल अपनी अदाकारी में करते हैं, उन्हें फिल्म के दूसरे सभी कलाकारों से आगे निकलने में देर नहीं लगती. फिल्म अगर देखी जा सकती है, तो सिर्फ उनके लिए.

विवेक तो चलो अपने रोबदार किरदार के लम्बे-चौड़े साये में बच-छुप के निकल लेते हैं, पर 'बैंक चोर' रितेश देशमुख के लिए एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर जाती है, "क्या कॉमेडी में रितेश का जलवा सिर्फ सेक्स-कॉमेडी तक ही सीमित है?" साफ़-सुथरी कॉमेडी होते हुए भी, रितेश यहाँ भी वही आड़े-टेढ़े एक्सप्रेशन चेहरे पर बनाते रहते हैं, जो 'क्या कूल हैं हम' जैसी फिल्मों में उनका ट्रेडमार्क मानी जाती हैं. फिल्म के एक बड़े हिस्से तक उनका किरदार न तो हंसाने में ही कामयाब साबित होता है, न ही इमोशनली जोड़े रखने में. आखिर तक आते-आते उनके लिए स्क्रिप्ट में सब कुछ ठीक जरूर कर दिया जाता है, पर तब तक देर बहुत हो चुकी होती है. बाबा सहगल अपनी मेहमान भूमिका से फिल्म में थोड़ी और दिलचस्पी बनाये रखते हैं, पर बेहद कम वक़्त के लिए. 

आखिर में; 'बैंक चोर' उन बदनसीब फिल्मों में से है जो पन्नों पर लिखते वक़्त जरूर मजेदार लगती रही होगी, पर परदे पर उतनी ही उबाऊ और पूरी तरह नाकाम. मशहूर शेफ हरपाल सिंह सोखी फिल्म में बैंक-कैशियर को सलाह देते हुए अपनी चिर-परिचित लाइन दोहराते हैं, "स्वाद के लिए थोड़ा नमक-शमक डाल लीजिये'; इस फ़ीकी फिल्म के लिए भी मेरी सलाह वही रहेगी. [1.5/5] 

Friday, 9 June 2017

राब्ता: पुरानी 'पुनर्जन्म' वाली फ़िल्मों का बासी 'रायता'! [1/5]

एक धूमकेतु है, 'लव जॉय' नाम का. 800 साल में एक बार पृथ्वी के पास से होकर गुजरता है. अगले हफ्ते ये कुदरती करिश्मा फिर होने वाला है, और इसी के साथ कुछ और भी होने वाला है, जो पहले भी हो चुका है. ठीक इसी वक़्त पर, ठीक इसी मुहूर्त में. तकलीफ़ ये है कि चौसर की इस बाज़ी में सारे के सारे अहम् खिलाड़ी दुनिया के अलग-अलग कोनों में हैं. कहानी का राजकुमार (सुशांत सिंह राजपूत) पंजाब में गिन-गिन कर लड़कियां पटाने में व्यस्त है, अनाथ राजकुमारी (कृति सैनन) लन्दन में चॉकलेट शॉप चलाती हैं, और दुष्ट राजा (जिम सरभ) जाने कहाँ समन्दर के बीचो-बीच बने अपने महल में, एक काली-सफ़ेद तस्वीर में बने चेहरे के होठों पर लाल रंग पोत रहा है. 

अब कुदरत, लेखक (गरिमा-सिद्धार्थ) और निर्देशक दिनेश विजान की जिम्मेदारी बनती है, कि कैसे इस एक हफ्ते में तीनों को एक-दूसरे के सामने ला खड़ा करें? रास्ता कठिन है; पहले तो राजकुमार का लन्दन आना, मुलाक़ात के दूसरे दिन ही उनका राजकुमारी के बिस्तर से अंगड़ाईयां लेते हुए बाहर निकलना, दुष्ट राजा साहब का इत्तेफ़ाकन लन्दन आ टपकना, फिर धीरे-धीरे सबको पिछले जनम की याद दिलाना. किसी के आम फ़िल्मकार के बस की कहाँ ये माथापच्ची? फिल्मों में पहले कभी देखा-सुना हो, तो भी थोड़ी मदद हो जाती. खैर...राजकुमारी को सपने आते हैं, अजीब डरावने सपने. अपने 'करन-अर्जुन' की तरह, फोटो-नेगेटिव इफ़ेक्ट में. पानी से डर भी लगता है. राजकुमार के पीठ पर चोट की निशान जैसा बर्थ-मार्क भी है, जैसा शाहरुख़ को था 'ओम शांति ओम' में. राजा साहब से कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं करता कि इस जनम में उन्हें सब कुछ याद कैसे आया? ना ही वो बताने की जरूरत भी समझते हैं, पर इन सबमें जो ढाई घंटे (पूरी की पूरी फिल्म) बर्बाद होते हैं, उसे बचाने का एक उपाय तो मैं ही दिनेश विजान साब को सुझा सकता था. अच्छा होता, अगर फिल्म की शुरुआत में ही सारे किरदारों को 'राज़ पिछले जनम का' के एक-दो एपिसोड दिखा दिये जाते. इसी बहाने रवि किशन से अभिनय के गुर भी सीखने को मिल जाते, और सबका दिमाग भी चलने लगता. 'आग से डर लगता है? आप पिछले जनम में जल के मरे थे' ' गले पे निशान है? आप रस्सी से लटक के मरे थे' और सबके सब पिछले जनम में राजा-रानी-सैनिक. कोई गरीब किसान नहीं, किसी की सामान्य मृत्यु नहीं. जाओ, ऐश करो और अपनी मौत का बदला लो.    

'राब्ता' देखते हुए एक ख्याल बार-बार दिमाग में हथौड़े की तरह बजता है कि आखिर कोई भी समझदार इस तरह की बेवकूफ़ी भरी, घिसी-पिटी, वाहियात कहानी पर फिल्म बनाने और उसमें काम करने के लिए राजी क्यूँ, और क्यूँ होगा? फिर याद आये इस फिल्म से निर्देशन में कदम रख रहे दिनेश विजान साब, जो खुद 'बीइंग सायरस', 'लव आज कल', 'कॉकटेल', 'बदलापुर' और 'हिंदी मीडियम' के प्रोड्यूसर रह चुके हैं, और फिर अचानक ही मन की सारी शंकायें, दुविधाएं झट काफ़ूर हो गयीं. 'बॉस हमेशा सही होता है' की तर्ज़ पर एक कहावत फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत मशहूर है, 'मेरा पैसा, मेरा तमाशा'. पैसों की गड्डियों के नीचे दबी डेढ़ सौ पेज की स्क्रिप्ट में खामियां किसे दिखतीं भला. 

बहरहाल, फिल्म में अगर कुछ ठीक-ठाक है, तो वो हैं फिल्म के संवाद. हालाँकि उनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं और कई बार तो इतने पीछे चले जाते हैं, जैसे राजकुमार-वहीदा रहमान-मनोज कुमार के 'नीलकमल' की बची-खुची खुरचन हों; पर अपने नए ज़माने के तौर-तरीकों और लहजों से एक वही हैं जो थोड़ा बहुत मनोरंजन करते रहते हैं. अभिनय में कृति कम निराश करती हैं, और शिकायत के मौके भी कम ही देतीं हैं. सुशांत कोशिश तो बहुत करते हैं, पर चाह के भी आप उनको सराहने का ज़ोखिम नहीं ले पाते. जिम सरभ इस तरह की मेनस्ट्रीम मसाला फिल्मों के लिए बने नहीं दिखते. उनका अभिनय 'नीरजा' में चौंका देने वाला था. यहाँ वो आपके भरोसे को डगमगा देते हैं. मेहमान भूमिका में न तो राजकुमार राव खुद पहचाने जाते हैं, न ही उनके अभिनय की वो चिर-परिचित छाप. हाँ, उनके मेक-अप की जितनी तारीफ़ करनी हो, भले ही कर लीजिये. 

आखिर में, 'राब्ता' देखने की वजह तो छोड़ ही दीजिये, मुझे इस फिल्म के बनने की वजह भी दूर-दूर तक समझ नहीं आती. इस ढाई घंटे की एक भयंकर भूल को भुलाने में मुझे कोई ख़ास दिक्कत नहीं होगी, पर दिनेश विजान साब से एक शिकायत तो रहेगी. "ज़नाब, इतने ही बजट में चार छोटे-छोटे 'मसान' 'अ डेथ इन द गंज', 'बीइंग सायरस' आराम से आ जाते, इतनी क्या हाय-तौबा मची थी 'राब्ता' परोसने की?' पर मुझे क्या, पैसा आपका, तो तमाशा भी आपका'! [1/5]            

Friday, 2 June 2017

अ डेथ इन द गंज: रोचक, रोमांचक! इंसानी फ़ितरतों का ‘गंज’! [4/5]

सन् 1979 का मैकक्लुस्कीगंज बस यूँ ही ‘अ डेथ इन द गंज’ का हिस्सा नहीं है. रांची से सटे इस छोटे से पहाड़ी इलाके का एक अपना रोचक किरदार है, जो फिल्म में वक़्त-बेवक्त खुलता रहता है. साहब लोगों का क़स्बा है ये. एंग्लो-इंडियन साहब लोग, जो जितनी दिलचस्पी से संथाली लोकगीतों पर नाच लेते हैं, उतनी ही तबियत से नए साल का जश्न मनाते हुए स्कॉट्स भाषा के गीत ‘ऑल्ड लैंग साईन’ को भी एक सुर में दोहराते हैं. जंगलों से घिरे, ठण्ड के सफ़ेद धुएं ओढ़े बड़े से एक बंगले में, ऐसे ही एक परिवार के साथ वक़्त बिताने का मौका देती है ‘अ डेथ इन द गंज’! पूरे एक हफ्ते के फ़िल्मी वक़्त में ऐसे किरदारों के साथ, जिनकी नीयत, जिनकी तबियत और जिनकी सीरत में आप अपने आप को ही कट-कट कर बंटते हुए देखते हैं. किसी के साथ ज़्यादा, किसी के साथ थोड़ा कम.

नीली अम्बेसडर में नंदू (गुलशन देवैया) अपनी बीवी बोनी (तिलोत्तमा शोम) और बच्ची तानी (आर्या शर्मा) के साथ कलकत्ता से मैकक्लुस्कीगंज अपने घर जा रहा है. साथ में, बोनी की सहेली मिमी (कल्कि कोचलिन) और मौसेरा भाई शुटू (विक्रांत मैसी) भी हैं. माँ (तनूजा) घर की बेतरतीबी को कोस रही हैं, तो बाप (ओम पुरी) रम के पैग बना-बना पेश कर रहा है. जल्द ही, महफ़िल जमने लगती है. लंगोटिए दोस्त विक्रम (रणवीर शौरी) और ब्रायन (जिम सरभ) भी आ पहुंचे हैं. एक-दो दिन में ही सबके चेहरे से धूल हटने लगती है, और अन्दर की कालिख़ गहराने लगती है. इंसानी फितरतें खुल कर सामने आने लगती हैं. किसी एक कमज़ोर पर झुण्ड में दाना-पानी लेकर चढ़ जाने का खेल किसने नहीं खेला होगा? रात को सोने से पहले भूतों का जिक्र, दोपहर में अपने-अपने कमरों में घंटे-दो घंटे के लिए पसर जाने का सुख, एक शाम सबके लिए खाना बनाने का पूरा तामझाम; और इस बीच घर पे काम करने वाली औरत का अपने मरद से पूछना, “कब जइहें ई लोग? इतना काम करे के पड़त है”!

माहौल से नरमी सूखने लगी है. बाप देर रात को उठकर कमरे तक आता है, कुछ खोज रहा है, जाने क्या? बेटा शतरंज की बाज़ी लगाए बैठा है, पूछता है, “आपको कुछ चाहिए?”  “नहीं, भाई! तुम खेलो न”. बेटा अब भी अड़ा है, “सुबह खोज लीजियेगा”, बाप झुंझला के बोल पड़ता है, “बाप मैं हूँ या तुम?” अगले दृश्य में बाप फिर कुछ खोजते हुए बड़बड़ा रहा है, “इस घर में कुछ भी रख दो, मिलता ही नहीं”. कुछ और भी दफ़न है इस घर में, हँसते चेहरों के पीछे. कुछ छुपे हुए सच, कुछ दबी हुई चाहतें, हसरतें, घुटन, कुढ़न, बहुत कुछ. डर यही है कि जब खुलेगा तो अपनी चपेट में किसको लील लेगा? आप और हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं, ठीक ठीक कह नहीं सकते.

‘अ डेथ इन द गंज’ कोंकना सेन शर्मा के पिता मुकुल शर्मा की कहानी पर आधारित है, जिसे परदे पर पसारते वक़्त, कोंकना महान फ़िल्मकार सत्यजित रे की ‘अरण्येर दिन रात्रि’ से ख़ासा प्रभावित और प्रेरित दिखाई देती हैं, पर शुरू-शुरू के झिझक के बाद आपके लिए जानना मुश्किल नहीं रह जाता कि यह समानता सिर्फ कहानी कहने की कला, बनावट और सजावट तक ही सीमित है, उसके बाद कोंकना जब अपनी छाप छोड़ती हैं, तो उनकी दखलंदाजी पूरी तरह उनकी अपनी होती है. चाहे वो 1979 के वक़्त को दीवाल पर घड़ी की तरह टांकने की हो, या फिर किरदारों के पसंद-नापसंद को माहौल से जोड़े रखने की. कोंकना जिस तरह दृश्यों की परिकल्पना तैयार करती हैं, सिनेमा की एक नयी, बुलंद आवाज़ बन कर उभरती हैं. नए साल के जश्न के बीच, बंगले के एक अँधेरे हिस्से में नौकर दम्पति सूखे चावल निगल रहा है. उन्हीं के साथ साहब लोगों का कुत्ता भी.

अभिनय की नज़र से फिल्म का हर कलाकार अपने चरम पर बैठा आपको अपनी तरफ खींचता है. रणवीर शौरी अगर अपनी अकड़ और तेवर से करिश्माई लगते हैं, तो गुलशन की ईमानदारी उनके झुंझलाहट वाले दृश्यों में साफ़ नज़र आती है. तिलोत्तमा बेहतरीन हैं. तनूजा जी को वापस परदे पर देखना अच्छा लगता है. एक दृश्य में कोंकना उन्हें खर्राटे लेते हुए दिखाती हैं. ये एक दृश्य दोनों के बारे में बहुत कुछ कह जाता है. कल्कि अपनी बेबाकी में अव्वल हैं, पर फिल्म में सबसे ख़ास, सबसे आगे अगर कोई मशाल लिए खड़ा दिखता है, तो वो हैं विक्रांत मैसी! विक्रांत चेहरे पर अलग-अलग भाव एक के बाद एक यूँ और इतनी सफाई से बदलते हैं, जैसे कोई टेलीविज़न पर चैनल बदल रहा हो. दर्शकों से जुड़ाव कायम करने में विक्रांत कुछ इस हद तक सफल रहते हैं कि जब वो परदे पर नहीं भी होते, या कहीं पीछे चुपचाप खड़े भी, तो भी उनके लिए आपकी फ़िक्र जैसे की तैसे ही रहती है. कोई शक ही नहीं, ये साल की सबसे ख़ास और चुनिन्दा परफॉरमेंसेस में से एक है. एक ऐसी परत-दर-परत अदाकारी, जिसे पूरी तरह जानने-समझने के लिए बार-बार देखा और सराहा जाना चाहिए.

आखिर में, ‘अ डेथ इन द गंज’ उन चंद रोमांचक बॉलीवुड फिल्मों में से है, जो आपके अन्दर सिहरन पैदा करने के लिए कोई झूठा खेल नहीं रचतीं, बल्कि आपको उस माहौल में हाथ पकड़ कर खींच ले जाती हैं, जहां आप हर वक़्त अपने दिल-ओ-दिमाग़ के साथ ‘जो हुआ, वो कैसे हुआ’, ‘जो हुआ, वो किसके साथ हुआ’ और ‘जो हुआ, वो कब होगा’ की लड़ाई लड़ते रहते हैं. ‘अ डेथ इन द गंज’ इस साल की ‘मसान’ है, उतनी ही ईमानदार, उतनी ही संजीदा, उतनी ही रोचक! [4/5]