भारत चमत्कारों का देश
है. यहाँ सब भगवान भरोसे होता है. तो एक सुपरहीरो बनने-बनाने में दिमाग या समझदारी
का इस्तेमाल करने की जेहमत क्यूँ उठानी? बस एक तूफ़ानी रात, पेड़ पर बना धार्मिक निशान
(सिख धर्म का खंडा), बैकग्राउंड
में एक जोशीला भक्तिमय गीत और दानव-रुपी खलनायक से लड़ता एक भोला-भाला नौजवान;
बॉलीवुड को इससे ज्यादा कुछ और चाहिए ही नहीं. रेमो डी’सूज़ा की ‘अ
फ्लाइंग जट्ट’ देखते-देखते अक्सर टुकड़ों में ही सही, 1975 की महान पारिवारिक फिल्म
‘जय संतोषी माँ’’ एक बार फिर दिमागी परदे पर चलने लगती है. मजबूर, लाचार और
बेबस की मदद को जहां ईश्वरीय शक्ति हर वक़्त तैयार बैठी रहती है, बस एक भजन भर गाने
की देर है. 40 साल बाद भी बॉलीवुड के लिए मनोरंजन के मापदंडों में कहीं कुछ नहीं
बदला है.
पंजाब के किसी एक शहर
में मल्होत्रा [के के मेनन] प्रदूषण की फैक्ट्री चला रहा है.
उसकी तरक्की के रास्ते में रुकावट बन रहा है जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा, जहां एक
माँ [अमृता सिंह] अपने दो बेटों [टाइगर श्रॉफ, गौरव पांडेय], 40-50
किरायेदारों और एक पवित्र पेड़ के साथ हर शाम 7 बजे व्हिस्की के पैग लगाती पाई जाती
है. मुझे यकीन है, उसके पंजाबी होने का अब आपको और कोई सबूत नहीं चाहिए. मल्होत्रा
के नापाक इरादों को पूरा करने में उसकी मदद को खड़ा है एक दैत्याकार बाहुबली राका [डब्ल्यू
डब्ल्यू ई के नाथन जोंस]. राका के साथ लड़ाई के दौरान ही अमन [टाइगर
श्रॉफ] को दैवीय शक्तियां मिल जाती हैं. उसकी माँ और भाई तो ख़ुशी से नाचने ही
लगते हैं, जब पता चलता है, अमन के अन्दर चाहे छूरा घोंप दो, तो भी कुछ नहीं होता.
दोनों बाकायदा बारी-बारी से उसे चाक़ू मार-मार के तसल्ली भी कर रहे हैं. हालाँकि अमन
के लिए सुपरहीरो बनना और भी दुखदायी हो गया है. माँ रोज रात को तैयार करके कहती
है, “जा, दुनिया बचा!”.
फिल्म की कहानी को मतलब और
मकसद देने के लिए रेमो जिस प्रदूषण और हरियाली के बीच की जंग को मुद्दा बनाकर पेश
करते हैं, वो फिल्म के टाइटल सीक्वेंस में बहुत असरदार तरीके से सामने आता है. एक आदमी
पेड़ काट रहा है और कैसे उसका ये कदम पूरी दुनिया के साथ-साथ उसकी भी तबाही का कारण
बन सकता है, खूबसूरत एनीमेशन के जरिये रेमो अपनी बात चंद मिनटों में ही ख़तम कर
देते हैं. पर बात जब इसी को बाकी के ढाई घंटे में बताने की आती है, तो फिल्म उसी
कटे पेड़ की तरह एक झटके में ढह जाती है. एक हादसे में राका का ‘प्रदूषण, गन्दगी
और धुएं’ से शक्तियां प्राप्त करने वाला दैत्य बन जाना, उसे हराने और मारने के
लिए फ्लाइंग जट्ट का उसे लेकर दूसरे ग्रह पे चले जाना, उनका स्पेस में सेटेलाइट्स
के बीच लड़ाई करना; फिल्म अपनी बचकानी और वाहियात राइटिंग से आपको परेशान करने लगती
है. अफसोस तो ये है कि इसे पूरी तरह बच्चों की फिल्म भी नहीं कहा जा सकता, खासकर उन
दृश्यों की वजह से जहां जैकलिन फ़र्नांडिस फ्लाइंग जट्ट से अपनी ज़िन्दगी
का ‘फर्स्ट किस’ डिमांड कर रही हैं.
‘अ फ्लाइंग जट्ट’
सिर्फ चार या पांच दृश्यों में देखने लायक फिल्म कही जा सकती है. इनमें से
ज्यादातर वो कॉमेडी सीन हैं, जहां सुपरहीरो अमन की टांग-खिंचाई उसकी अपनी ही माँ
और भाई के हाथों हो रही होती है. के के मेनन अपने किरदार में इस तरह का
पागलपन ‘द्रोणा’ और ‘सिंह इज़ ब्लिंग’ में पहले भी
दिखा चुके हैं. अमृता सिंह कहीं-कहीं बहुत बेकाबू हो जाती हैं, पर सब
मिला-जुला के अच्छी लगती हैं. सटीक कास्टिंग के साथ, गौरव पाण्डेय टाइगर
के भाई की भूमिका में अच्छा खासा प्रभावित करते हैं. एक ही बात समझ नहीं आती, अगर
लड़ाई प्रदूषण और पर्यावरण के बीच है तो प्लास्टिक [जैकलिन चाभी वाली गुड़िया से
ज्यादा न कुछ और लगती हैं, न करती हैं] और रबर [टाइगर का हर फिल्म में
मार्शल आर्ट एक्सपर्ट बनना वैसा ही होता जा रहा है, जैसे निरूपा रॉय का हर फिल्म
में अपने बच्चों से बिछड़ जाना] पर्यावरण की तरफ कैसे हो सकते हैं??
बहरहाल, रेमो डी’सूज़ा
की बेवकूफी भरी ‘अ फ्लाइंग जट्ट’ का मज़ा आपको लेना है तो थिएटर में आँखें बंद
करके बैठ जाईये और भगवान पर भरोसा रखिये. कोई सुपरहीरो आपको इस फिल्म से बचाने भले
ही नहीं आये, पर सरदर्द थोड़ा कम होगा और बॉलीवुड से आपका भरोसा पूरी तरह नहीं
टूटेगा. माफ़ कीजिये, पर ये सरदार बेअसरदार है! चलिए, कोई नया ढूंढते हैं! [1.5/5]