Friday, 24 June 2016

रमन राघव 2.0 (A) : कालिख़ से भी काली, कश्यप की दुनिया! [4/5]

जोड़ियां आसमानों में बनती हैं. अकेले हम अधूरे हैं और हमें पूरा करने वाला भी दुनिया में कहीं न कहीं अधूरा-अधूरा घूम रहा है, तब तक जब तक दोनों मिल नहीं जाते. कई बार हम उसे ग़लत जगह तलाशने में लगे रहते हैं, और कई बार एक झटके में ही वो सामने दिख जाता है. फिल्मों में पहली नज़र का प्यार अगर आपको लगता है कुछ ख़ास बड़े नामों की ही बपौती है? तो आप को बड़ी बुरी तरह ग़लत साबित करते हैं अनुराग कश्यप. अपनी नई फिल्म ‘रमन राघव 2.0’ को अनुराग उनकी सबसे ख़तरनाक लव-स्टोरी का दर्जा देते हैं.

अनुराग कश्यप और लव-स्टोरी?? इसका सटीक जवाब तो आपको फिल्म के आख़िरी पलों में ही मिलता है, पर अच्छी बात ये है कि ‘बॉम्बे वेलवेट’ की नाकामयाबी ने उन्हें वापस उनके अपने जाने-पहचाने दायरे में ला खड़ा किया है. हालांकि भारतीय सिनेमा में ये दायरा भी उन्हीं की बदौलत इस मुकाम तक पहुंचा है. यहाँ उनका कोई दूसरा सानी नहीं. इस बार भी उनसे कहीं कोई चूक नहीं होती. ‘रमन राघव 2.0’ अब तक की उनकी सबसे ‘डार्क’ फिल्म बिना किसी झिझक कही जा सकती है. रक्त का रस और गाढ़ा हो चला है. खौफ़ का चेहरा पल-पल मुखौटे बदल रहा है. अँधेरे का साम्राज्य और गहराने लगा है.

अनुराग शुरुआत में ही साफ़ कर देते हैं, फिल्म 60 के दशक में रूह कंपा देने वाले सनकी सीरियल किलर रमन राघव की कहानी बिलकुल नहीं है. हाँ, कहानी पर उस पुराने रमन राघव की परछाईं हमेशा ज़रूर मंडराती रहती है पर 2015 के आस-पास के कथाकाल में अब रमन और राघव दो अलग किरदारों में बंट जाते हैं. पिछले ढाई साल में 9 क़त्ल हुए हैं. रमन्ना [नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी] ने खुद को पुलिस के सामने पेश कर इकबालिया बयान में जुर्म कबूल भी कर लिया है, पर उसकी ऊटपटांग बातों और हद औसत हुलिये पर ना तो एसीपी राघवन [विक्की कौशल] को यकीन है ना ही दूसरे पुलिसवालों को. हालाँकि दर्शक के तौर पर आपके मन में रमन्ना को लेकर कोई संदेह नहीं रहता. असली रमन राघव वायरलेस पर भगवान से सीधे-सीधे बात करने का दम भरता था. अपना रमन्ना खुद को भगवान का ‘सीसीटीवी कैमरा’ मानता है और दोनों हाथों से हवाई दूरबीन बनाकर अपने शिकार को अपनी लोमड़ी वाली कंचई आँखों से देखता रहता है. मारना उसके लिए ‘खाना खाने और हगने’ जैसा ही है. रोजमर्रा का काम.

राघवन एक अलग तरह का जानवर है. बहुत कुछ हमारी ही तरह. पुरुष अहंवाद में लिपटाया, नारी-विरोधी और नशे में सर तक डूबा हुआ. सड़ रही लाशों के बीच क्राइम-सीन पर भी नाक में पाउडर उड़ेलता, बिस्तर पर ‘कंडोम’ न पहनने वाला आम मर्द, जिसे नशे के चलते अपने ढीली पड़ती मर्दानगी के ऊपर किये गए ठहाके अन्दर तक भेद जाते हैं. राघवन सोता नहीं. कभी नहीं. राघवन को तलाश है रमन की और मज़े की बात है कि रमन को भी राघवन उतना ही चाहिए, जितना सिगरेट के लिए माचिस. पकड़म-पकड़ाई के इस खेल में अँधेरा जब छंटता है तो उजाला नहीं होता, बल्कि अन्दर से एक और अँधेरा आपको निगलने के लिये बढ़ लेता है. पहले वाले से कहीं ज्यादा काला, घुप्प और डरावना.

मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों के बीच अनुराग एक ऐसी दुनिया खोज लेते हैं, जो आपका देखा-सुना-जाना तो लगता है पर एक अनजाने रहस्य की तरह आपके सामने परत-दर-परत खुलता भी रहता है. विचलित कर देने वाली हत्याओं के वक़्त, अनुराग डर, खौफ़ और सनक का एक ऐसा मिला-जुला माहौल बनाते हैं कि आप उसमें अन्दर धंसते चले जाते हैं. कैमरा इस बार खून में नहा जाता हो, ऐसा शायद ही कभी होता है (मैं शिकायत कत्तई नहीं कर रहा) पर जिस तसल्ली से अनुराग पहले रमन्ना के हाव-भाव पर नज़रें गड़ाये रहते हैं और बाद में उन खौफज़दा चेहरों पर, आप सहम कर अपनी सीटों में दुबक जाते हैं या फिर आँखें फेर लेते हैं. फिल्म में औरतों के किरदार से आप कमोबेश नाखुश ही लौटते हैं. डरी-सहमी, घुटने टेक देने वाली अपने ही भाई से यौन-पीड़ित बहन हो या तीन-तीन गर्भपातों से गुजर चुकी गर्लफ्रेंड, यहाँ आपको कुछ बहुत मज़बूत नहीं दिखने वाला.

अभिनय में जूनून देखना हो तो ‘रमन राघव 2.0’ में सिद्दीकी को देखिये. हालाँकि उनमें ‘बदलापुर’ के ‘लायिक’ की झलक देखने को ज़रूर मिलती है, पर इस बार उनका पागलपन सारी हदें पार कर देता है. हैरत में डालते हैं आपको ‘मसान’ के विक्की कौशल. अपनी तीसरी ही फिल्म में उन्हें इस तरह का जटिल किरदार इतनी बखूबी निभाते देखना हैरतंगेज़ अनुभव है. अमृता सुभाष जबरदस्त हैं. अपने एक अदद सीन में ही वो आपको अन्दर तक झकझोर जाती हैं.

अंत में, ‘रमन राघव 2.0’ सिर्फ एक आम क्राइम थ्रिलर नहीं है. फिल्म उन अनुराग कश्यप की वापसी दर्ज कराती है जिन्हें लीक पर चलना आता ही नहीं. हिंदी सिनेमा के सदियों पुराने घेरे तोड़ने में जो बहुत उतावले भी दिखते हैं और कभी-कभी बहुत बनावटी भी, पर हैं दो-टूक. सनकी रमन्ना कहता है ना, “मैं आड़ में नहीं मारता. वर्दी की, धर्म की, इंसानियत की खाल के पीछे छुपकर नहीं मारता.” ठीक वैसे ही. [4/5]        

Saturday, 18 June 2016

धनक: मासूम, मजेदार, मनोरंजक!! [3.5/5]

एक सच की दुनिया है जो हमारे आस-पास चारों तरफ पसरी है, और एक दुनिया है जैसी हम अपने लिये तलाशते हैं, जिसके होने में हम यकीन करना चाहते हैं. अपने देश के साथ भी ऐसा ही कुछ कनेक्शन है हमारा. एक, जैसी हम देखना चाहते हैं, मानना चाहते हैं और दूसरा जो वाकई में है. नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ हमारी परिकल्पना और सच्चाई की इन्हीं दो दुनियाओं के बीचोंबीच कहीं बसी है. अगर आप अच्छे हैं, दिल के सच्चे हैं तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है? परीकथाओं में अक्सर इस तरह के मनोबल बढ़ाने और नेकी की राह पर चलते रहने के लिए हिम्मत बंधाने वाली उक्तियाँ आपने भी पढ़ी या सुनी होंगी. ‘धनक’ किसी एक प्यारी और मजेदार परी-कथा जैसी ही है, जिसमें बहुत सारे अच्छे लोग हैं और जो बुरे भी हैं वो सदियों पुराने, जाने-पहचाने जैसे हमेशा कोसते रहने वाली ‘डायन’ चाची और बच्चे उठाने वाला दुष्ट गिरोह.

बड़ी फिल्मों में अपनी बात का लोहा मनवाने के लिए कई तरह के हथकंडे आजमाए जाते हैं. अभिनय जगत के बड़े-बड़े नाम, पब्लिसिटी का ज़ोर-शोर, शानदार सेट्स की चकाचौंध और खूबसूरत विदेशी लोकेशन्स, पर ‘धनक’ जैसी छोटी फिल्मों के पास सिर्फ एक ही रामबाण होता है...बड़ी ही सादगी से कही गयी एक जादुई कहानी, जो दिल छू जाए! राजस्थान के एक छोटे से गाँव में छोटू [कृष छाबड़िया] अपनी बहन परी [हेतल गडा] और चाचा-चाची के साथ रहता है. छोटू देख नहीं सकता. एक बीमारी ने उसकी आँखें लील लीं. पर चार साल पहले उसने ‘दबंग’ देखी थी और आज तक सलमान ‘भाई’ का फैन है, जबकि उसकी बहन ‘सारुक खान’ को पसंद करती है. ‘नेत्रदान महादान’ के पोस्टर में शाहरुख़ खान को देख कर परी मान बैठी है कि उसके भाई की आँखें अब वो ही ला सकता है. ऐसे में, एक दिन खबर मिलती है शाहरुख़ खान जैसलमेर से कहीं शूटिंग कर रहा है. बस, परी छोटू को लेकर निकल पड़ती है उसकी आँखें दिलाने.

धनक’ एक ऐसी फिल्म है जो अपनी मासूमियत कभी खोने नहीं देती. रिश्तों में अपनापन, प्यार और मीठी तकरार का भरपूर लुत्फ़ आपको देती है. होशियार परी 2-3 साल से लगातार फ़ेल हो रही है, ताकि वो अपने छोटे भाई की क्लास में आ जाये. तालाब से पानी भरने जाती है तो छोटू को अपने साथ-साथ दुपट्टे से बांधे रखती है. छोटू हालाँकि बहुत चंट है. गलतियों के लिये डांट पड़ने पर बड़ी चालाकी से अपने अंधेपन की दुहाई देकर बच जाता है. और चटोर भी बहुत. बहरहाल, फिल्म ऐसे पलों से पटी पड़ी है, जहां छोटू का बडबोलापन और उसकी साफगोई आपको ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते हैं. मसलन, एक दृश्य में छोटू से उसका एक दोस्त शमशेर बड़ी संजीदगी से पूछता है, “तेरी बहन की शादी के बाद तू क्या करेगा?” “तो भी मैं उसके साथ ही रहूँगा, उसके आदमी को तकलीफ़ नहीं हुई तो?” शमशेर थोड़ा रुक कर कहता है, “मैं अगर उसका पति होता तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती” “तुझे पसंद है वो?” “सोणी है छोरी” “ठीक है, कल मैं रिश्ते की बात करता हूँ”, 8 साल का छोटू बेबाकी से बोल देता है.         

धनक’ की ख़ूबसूरती राजस्थान के रंग-रंगीले परिवेश और उससे भी रंगीन किरदारों में छुपी हुई है. तुनकमिजाज़, पर मासूमियत से भरे छोटू और पूरी शिद्दत से उसे चाहने, उसका ध्यान रखने वाली परी के अलावा इस फिल्म में आधा दर्जन से ज्यादा और अजब-अनोखे किरदार हैं जो आपका मनोरंजन करने के लिए हमेशा एक पैर पर खड़े रहते हैं. शाहरुख़ से अपनी दोस्ती जताने वाला छैल-छबीला [राजीव लक्ष्मण, ‘रोडीज़’ वाले], राजस्थानी लोकगायक [विजय मौर्या], हवा में स्टेयरिंग पकड़े ट्रक चलाने वाला पागल [सुरेश मेनन], शाहरुख़ के साथ अपनी सेल्फी के साथ गाँव वालों की सेल्फी खिंचाने के लिए पैसे उगाही करने वाला [निनाद कामत], गोल-चिकने पत्थरों से भविष्य बताने वाली जादूगरनी बुढ़िया [भारती अर्चेकर] और चमत्कारी माता के भेष में भक्तों को ठगती एक थिएटर आर्टिस्ट [विभा छिब्बर]. यकीन मानिए, इनमें से हर किरदार आपको गुदगुदाने में कामयाब साबित होता है.

अंत में, नागेश कुकूनूर की ‘धनक’ बारिश में इन्द्रधनुष की तरह ही है. देखते ही दिल छोटे बच्चे जैसा खिल उठता है. कृष छाबड़िया और हेतल गडा का अभिनय आपको पूरी फिल्म में बांधे रखता है. ‘धनक’ शायद साल की सबसे मनोरंजक फिल्म है. सौ करोड़ की दौड़ में मनोरंजन के मायने अपने अपने मतलब से तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाली तमाम ‘फूहड़’ फिल्मों से आज़िज आ गए हों तो इस पते पर दरवाजा खटखटाइये, आप बिलकुल निराश नहीं होंगे! [3.5/5]     

Friday, 17 June 2016

उड़ता पंजाब (A): चुभती सच्चाई. चुभती फिल्म. [4/5]

गुलज़ार साब की ‘माचिस’ जैसी कुछेक को अलग रख कर देखें तो पंजाब को हिंदी फिल्मों ने हमेशा मीठी चाशनी में ही लपेट कर परोसा है. मुंबई का कैमरा जब भी अमृतसर, भटिंडे या पटियाले में लेंस से कैप हटाता है, हरे-पीले सरसों के खेतों में लाल-नीली चुन्नियाँ लहराती मुटियारें रोटी लेकर दौड़ लगा रही होती हैं. दिन में बैसाखी के मेले और रात में लोहड़ी का जश्न, इससे आगे बढ़ने की हिम्मत पंजाबी सिनेमा ने तो कभी-कभी दिखाई भी है पर बॉलीवुड कमोबेश बचता ही रहा है. अब तक. ‘उड़ता पंजाब’ के आने तक. पंजाब की जो सपनीली तस्वीर आपने ‘यशराज फिल्म्स’ के चश्मे से देखी थी और आज तक अपने जेहन में बसाये घूम रहे थे, अभिषेक चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ पहले फ्रेम से ही उस तस्वीर पे चिपके ‘एनआरआई कम्पेटिबल’ चमक को खरोंचने में लग जाती है. सीने पर आतंकवाद का बोझ और पीठ पर ’84 के ज़ख्म उठाये पंजाब को अब हेरोइन, स्मैक और कोकीन की परतों ने ढक लिया है. खुरदुरी, किरकिराती, पपड़ी जमी परतों ने!  

सरसों के खेतों की जगह अब फिल्म बेरंग सफेदे [यूकेलिप्टस] के पेड़ों से शुरू होती है, वो भी रात के अँधेरे में. बॉर्डर पार से पाकिस्तान की जर्सी पहने एक खिलाड़ी हेरोइन का एक पैकेट ऐसे फ़ेंक रहा है, जैसे ओलिंपिक में मेडल जीत लेने का ये उसका आख़िरी चांस हो. नेताओं और पुलिस की मिली-भगत से चल रहे ड्रग्स के इस काले कारोबार का शिकार सब हैं, स्कूल-कॉलेज जाने वाले लड़कों से लेकर उनके पसंदीदा रॉकस्टार टॉमी सिंह [शाहिद कपूर] तक. अपनी मर्ज़ी और खुदगर्जी भरे गानों में गालियाँ बकने वाला ये रॉकस्टार हमेशा नशे में धुत्त, सनकी और गुस्सैल किस्म का आम नशेड़ी है, जिसका अपने ऊपर कोई जोर नहीं. सरताज सिंह [दिलजीत दोसंझ] एक आम पुलिसवाला है जिसे सच्चाई मानने में कोई ख़ास तकलीफ़ नहीं है तब तक, जब तक उसका छोटा भाई खुद नशे में गिरफ्त में नहीं आ जाता. डॉ. प्रीत [करीना कपूर खान] के साथ मिलकर अब सरताज इस पूरे रैकेट की जड़ तक पहुंचना चाहता है. इन सब के बीच एक बिहारन [आलिया भट्ट] भी हर पल पिस रही है. अच्छी ज़िन्दगी की तलाश ने उसे इस गर्त में ला फेंका है, अब जाने कब और कैसे इस कैद से उसकी रिहाई मुमकिन होगी?

फिल्म शुरू ही हुई है, जब थाने की कोठरी में बंद टॉमी अपने रसूख की धौंस में हो-हल्ला मचा रहा है और अपने छोटे भाई की हालत से हिला हुआ सरताज बाहर बैठा नशे को कोस रहा है. थोड़ी ही देर में आप देखते हैं, सरताज टॉमी की थप्पड़ों और घूंसों से जम कर धुलाई कर रहा है. ये बॉलीवुड के लिए नया है. इस एक वाकये से अभिषेक चौबे तय कर देते हैं कि फिल्म किरदारों को तवज्जो देती है न कि उन्हें निभाने वाले अभिनेताओं के कद को. वरना ये वही बॉलीवुड है जो परदे पर किस बड़े स्टार का नाम पहले आएगा, जैसे फ़िज़ूल के हाय-तौब्बा से निर्माताओं की जान सुखा देता था. ‘उड़ता पंजाब’ जमीनी हकीकत को इतनी बेरूखी और बेदर्दी से आपके सामने रखती है कि इसके कुछ दृश्य आपको फिल्म ख़त्म होने के काफी बाद तक परेशान करते रहते हैं. ‘एनएच 10’ के आख़िरी सीन में अनुष्का का किरदार किस बेखौफ़ियत से सिगरेट जलाती है और फिर लोहे की सरिया जमीन पर खरोंचते हुए विलेन की ओर बढती है. आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ‘उड़ता पंजाब’ उसी धारदार कलम [सुदीप शर्मा] से निकली है.

अभिनय में शाहिद अपने ‘कमीने’ वाले पागलपन में पूरे जोश-ओ-खरोश से वापस लौट आये हैं. ठहराव में तो अभी भी गुंजाईश बहुत है पर जिस उतावलेपन और बेचैनी से वो ड्रग एडिक्ट की भूमिका निभाते हैं, कहीं कहीं अपने पिता पंकज कपूर जी की झलक छोड़ जाते हैं. करीना ठीक ही लगती हैं. दिलजीत वाकई में दिल जीत लेते हैं. एक ख़ास किस्म की सादगी तो है ही उनमें, अभिनय में भी कहीं कोई कमी नहीं दिखती. देखना होगा कि बॉलीवुड उन्हें आगे किस तरह ट्रीट करता है. और अब बात आलिया की. आलिया फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी हैं. उनकी बिहारी बोली में थोड़ी घालमेल जरूरी दिखती है, पर जिस दर्द को वो बिना बोले फिल्म में जीते नज़र आती हैं, वो आलिया को आज के दौर के नामचीन अभिनेताओं की श्रेणी में ला खड़ा करने के लिए काफी है.

अंत में, ‘उड़ता पंजाब’ आसान फिल्म नहीं है और एकदम से परफेक्ट भी नहीं. पर फिल्म में कुछ ऐसा भी नहीं, जो नहीं कहा जाना चाहिए या जिसे बेहतर तरीके से कहा जा सकता था. गालियों की थोड़ी अति ज़रूर है पर उनसे कहीं ज्यादा चुभती है सच्चाई. फिल्म के एक हिस्से में टॉमी अपने चाहनेवालों के सामने स्टेज में बेबाकी से कह जाता है, “मुझे सिर्फ ड्रग्स पता था. अपने गाने में मैंने वही डाल दिया. मुझसे गये-गुजरे तुम लोग हो, जिन्होंने उसमें फिलोसोफी ढूंढ ली और मुझ 22 साल के लौंडे को रॉकस्टार बना दिया”. ‘उड़ता पंजाब’ देखने से ज्यादा, सोचने की फिल्म है! देखिये, सोचिये और प्लीज शुतुरमुर्ग मत बने रहिये. [4/5]      

Friday, 10 June 2016

तीन: कहानी रिटर्न्स! [3/5]


फिल्मों के नाम इन दिनों काफी चर्चा में हैं. तो शुरुआत नाम से ही करते हैं. रिभु दासगुप्ता की ‘तीन’ का नाम ‘तीन’ ही क्यूँ रखा गया, ‘कहानी-2’ क्यूँ नहीं; फिल्म देखने के बाद भी मेरी समझ से परे है. कहीं ‘तीन’ सुजॉय घोष की ‘कहानी’ श्रृंखला की वो तीसरी पेशकश तो नहीं, जो ‘कहानी-2’ से पहले आ गयी? खैर, नाम के पीछे का रहस्य जो भी हो, एक बात तो तय है कोरियाई क्राइम थ्रिलर ‘मोंटाज़’ की ऑफिशिअल रीमेक ‘तीन’ पर सुजॉय घोष की ‘कहानी’ का असर साफ़-साफ़, सुन्दर-सुन्दर और सही मायनों में दिखता है. सुजॉय फिल्म के निर्माताओं में सबसे प्रमुख हैं तो ये गैर-इरादतन, नाजायज़ या हैरतंगेज़ भी नहीं लगता. बहरहाल, ‘तीन’ एक बहुत ही करीने से बनाई गयी थोड़ी अलग किस्म की थ्रिलर है, जो आपको हर पल नए-नए रहस्यमयी खुलासों की बौछार से असहज भले ही महसूस न कराये, एक जानलेवा ठहराव के साथ आपको अंत तक कुरेदती ज़रूर रहती है.

जॉन बिश्वास [अमिताभ बच्चन] पिछले आठ साल से पुलिस स्टेशन के चक्कर लगा रहे हैं. किडनैपिंग के बाद उनकी नातिन की मौत एक एक्सीडेंट में हो गयी थी, जिसके बाद अब तक किडनैपर का कोई सुराग पुलिस के हाथ नहीं लगा है. केस लगभग बंद हो चुका है. उस वक़्त के इंस्पेक्टर मार्टिन दास [नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी] नाकामी का बोझ सीने पर लिये अब चर्च में फ़ादर बनकर सुकून तलाश रहे हैं. नई पुलिस ऑफिसर सरिता सरकार [विद्या बालन] को भी जॉन से पूरी हमदर्दी है पर कहीं से कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती. ऐसे में एक दिन, एक और बच्चे की किडनैपिंग का मामला सामने आता है. सब कुछ दोबारा ठीक वैसे ही घट रहा है जैसे आठ साल पहले जॉन के साथ हुआ था.

घटनाओं का पहले तो बड़ी बेदर्दी से इधर-उधर घाल-मेल कर देना और फिर धीरे-धीरे उन्हें उनके क्रम में पिरोकर आईने जैसी एक साफ़ तस्वीर सामने रख देना, किसी भी थ्रिलर के लिए ये सबसे अहम् चुनौती होती है. रिभु दासगुप्ता इन दोनों पहलुओं को बराबर तवज्जो देने में थोड़े ढीले नज़र आते हैं. जहां फिल्म के दूसरे भाग में रिभु बेतरतीब सिरों को जोड़ने में जल्दबाजी दिखाने लगते हैं, वहीँ पहले भाग में किरदारों के भीतर के सूनेपन, खालीपन और उदासी में सोख लेने वाली धीमी गति आपको परेशान भी करती रहती है. हालाँकि कोलकाता शहर के किरदार की रंगीनियत को बखूबी स्क्रीन पर उतार देने में रिभु कहीं कमज़ोर नहीं पड़ते. सरकारी दफ़्तरों में धूल चाटती फाइलों के अम्बार के बीच बैठे रूखे चेहरे हों या घरों-दीवारों पर लटकती बाबा आदम के ज़माने की तस्वीरें और तश्तरियां; फिल्म का आर्ट डायरेक्शन काबिल-ए-तारीफ है.

अमिताभ बच्चन जिस कद के अभिनेता हैं, उन्हें अब कुछ भी साबित करने की जरूरत नहीं है. सिनेमा और अभिनय के प्रति उनकी ललक भी बढ़ती उम्र के साथ बढ़ती ही रही है, पर ‘तीन’ में उनका अभिनय कोई नई ऊँचाईयाँ हासिल नहीं करता, बल्कि एकरसता ही दिखाई देती है. हाँ, उन्हें अपनी ही उम्र को परदे पर जीते देखना कोई कम अनुभव नहीं है. नवाज़ुद्दीन अच्छे हैं, पर उनके किरदार में थोड़ी उलझन है. कहीं वो फिल्म में हंसी की कमी पूरी करने में लगा दिए जाते हैं (चर्च वाले दृश्यों में खासकर) तो कहीं एक बड़े संजीदा पुलिस वाले की भूमिका जीने में मशगूल हो जाते हैं. विद्या बालन और सब्यसाची चक्रबर्ती छोटी भूमिकाओं में भी स्क्रीन पर चमक बिखेरने में कामयाब रहते हैं.

कोरियाई फिल्म ‘मोंटाज़’ अगर आपने देखी हो, तो ‘तीन’ दूसरे रीमेक की तरह बेशर्मी से दृश्यों की नक़ल करने की होड़ नहीं दिखाती, बल्कि एक बेहतरीन आर्ट डायरेक्शन और सधे हुए अभिनय के साथ आपको कुछ अलग परोसने की कोशिश करती है. ‘मोंटाज़’ में जहां क्राइम और उससे जुड़े घटनाक्रम को रोमांचक बना कर पेश किया गया है, ‘तीन’ किरदारों के भीतर और बाहर दोनों की दुनिया को तसल्ली से देखने और दिखाने में अपना वक़्त ज्यादा लगाती है. हर कहानी ‘कहानी’ नहीं हो सकती, पर इसमें बहुत कुछ है जो आपको ‘कहानी’ की याद दिलाता रहेगा...और अच्छी यादें किसे पसंद नहीं? [3/5]                

Friday, 3 June 2016

तिथि [कन्नड़]: ...ये जो है ज़िन्दगी! [4.5/5]

जिन्दगी की कठोर, निर्मम, धीर-गंभीर सच्चाईयां जो हास्य उत्पन्न करती हैं, उनका कोई सानी नहीं. करीने से सजे-सजाये, चटख रंगों में रंगे-पुते, ठंडे-हवादार कमरों में बैठकर गढ़े गए चुटकुलों की शेल्फ़-लाइफ़ कुछ घंटों, कुछ दिनों से ज्यादा की कतई नहीं होती, पर असल जिन्दगी के दांव-पेंच कुछ अलग ही मिज़ाज के होते हैं. आपकी व्यथा, आपकी पीड़ा, आपका दुःख कब किसी दूसरे के लिए हास्य का सबब बन जाता है, आपको अंदाज़ा भी नहीं रहता. कुल मिला के 26 साल के हैं फ़िल्मकार राम रेड्डी, पर अपनी पहली ही कन्नड़ फिल्म ‘तिथि’ में जिस सफाई से ज़िन्दगी को उधेड़-उधेड़ कर आपके सामने फैलाते हैं और फिर उतनी ही बारीकी से उसे किरदारों के इर्द-गिर्द बुनते भी हैं, उसे देखकर अगर आप बड़े हैं तो हैरत और अगर बराबर उम्र के हैं तो जलन होना लाज़मी है.

कर्नाटक के दूर किसी एक छोटे से गाँव में, कच्चे रास्ते के उस पार बैठा एक बूढा आदमी [सिंगरी गौड़ा] आने-जाने वालों पर तीखी फब्तियां कस रहा है. बच्चे हंस रहे हैं. औरतें बिना कोई तवज्जो दिए आगे बढ़ जाती हैं. थोड़ी ही देर बाद गली के अगले मोड़ पर बूढ़ा आदमी लुढ़का हुआ मिलता है. शोर मच गया है, “सेंचुरी गौड़ा मर गए”. सेंचुरी नाम उन्हें सौ साल पूरे कर लेने पर मिला था. अंतिम-क्रिया के लिए जोह भेजा जा रहा है, पर बड़ा बेटा गडप्पा [चन्नेगौड़ा] निरा औघड़ है. एक नंबर का घुमक्कड़ और टाइगर ब्रांड लोकल व्हिस्की का पियक्कड़. 11 दिन बाद की ‘तिथि’ निकली है. आस-पास के गाँवों से कम से कम 500 लोगों को मांसाहारी भोज कराना होगा. सारे का सारा दारोमदार अब गडप्पा के बेटे तमना [थम्मेगौड़ा] के माथे है. जरूरी पैसों के लिए जमीन बेचना होगा, पर उस से पहले ज़मीन गडप्पा से अपने नाम लिखवानी पड़ेगी. गडप्पा माने तब ना?

फिल्म में बहुत कम मौके ऐसे आते हैं, जब आपको ‘तिथि’ के एक फिल्म होने का एहसास होता है, वरना तो लगता है जैसे आपको उठा कर कर्नाटक के उसी गाँव में रख दिया गया हो. रिश्तों में रस्साकशी हो, दुनियादारी का जंजाल हो, किरदारों का ठेठपन हो या फिर ज़िन्दगी जीने का पूरे का पूरा लहजा, फिल्म अपनी ईमानदारी से आपको भौंचक्का कर देती है. इतना वास्तविक, इतना कठोर होते हुए भी फिल्म आपको कभी भी उदासी के अंधेरों की ओर नहीं धकेलती, बल्कि एक हँसी की चमकार हमेशा आपके चेहरे पर बिखेरती रहती है. एक बानगी देखिये. चिता की आग ठंडी हो गयी है. राख में से अस्थियाँ खंगाली जा रही हैं. बातचीत सुनिए. “ये पसली है पसली...रख लो” “ये पैर की हड्डी है” “पैर? इतना छोटा??”.

राम रेड्डी की ‘तिथि’ कहानी कहने के लिए सांचे में कैद अभिनेताओं का सहारा नहीं लेती. फिल्म के सभी प्रमुख किरदार गाँव के आम लोग हैं, नॉन-एक्टर्स जिन्हें कैमरा की भाषा पढ़ने में भले ही दिक्कत आती हो, पर हर सीन को परदे पर जिंदा कर देने का हुनर खूब आता है. इनकी झिझक, इनका अनगढ़ रवैया ही फिल्म की जान बन जाता है. फिल्म कहीं कहीं बहुत क्रूर होने की भी कोशिश करती है, ख़ास कर उस एक दृश्य में जहां गडप्पा अपनी ज़िन्दगी की कहानी के कुछ पुराने पन्ने पलटने लगते हैं. हालाँकि फिल्म 2 घंटे 14 मिनट की अपनी पूरी अवधि में अक्सर छोटे-छोटे पलों में जीती और कुछ बहुत ही खूबसूरत चित्रों में सिमटती दिखाई देती है, पर अंततः इसके रसीले, मीठे, थोड़े मतलबी पर सच्चे किरदार ही है जो इसे एक जिंदा फिल्म बनाये रखने में कामयाब होते हैं.

तिथि’ देखना, न देखना सिर्फ इसी एक एहसास से जुड़ा है कि आप कितनी बेसब्री, कितनी चाहत से अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं. मोटरसाइकिल पर तीन पहले से ही विराजमान है, पर चौथे के हाथ दे देने पर जगह बन ही जाती है. अब इतने थोक में ईमानदारी कहाँ मिलती है आजकल की बड़ी-बड़ी फिल्मों में? [4.5/5]        

हाउसफुल 3: कॉमेडी कोमा में है..! [1/5]

‘कॉमेडी’ कोमा में चली गयी है. अब उसका हॉस्पिटल के बिस्तर से उठना और आपको जी भर के गुदगुदाना न जाने कब होगा? बॉलीवुड की ज़बान में कहें तो, “अब दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है”. हँसी के नाम पर रंग, लिंग और नस्ल-भेद को कोंचती टीका-टिप्पणी के बाद, इस बार ‘कॉमेडी’ को शारीरिक अपंगता पर गढ़े गए भौंडे और भद्दे प्रहार झेलने पड़े हैं. घाव गहरे हैं, पर ऐसा नहीं कि सिर्फ ‘कॉमेडी’ को ही मिले हैं. फ़रहाद-साज़िद की ‘हाउसफुल 3’ आपकी सोच, समझ और संवेदनाओं का भी बड़ी बेशर्मी से मज़ाक उड़ाती है, वरना कौन भलामानस होगा जिसे व्हील चेयर पर बैठे ‘दिव्यांग’ की सच्चाई का पता लगाने के लिए उसकी पैंट में चीटियाँ छोड़े जाने पर हँसी आती हो? शादी न हो इसके लिए बेटियों के पेट से थैली (ovary) निकलवा देने के सुझाव के बाद ‘आय एम जोकिंग’ बोल भर देने से क्या सब सिर्फ मज़ाक की हद तक ही रह जाता है?

लन्दन में कहीं एक बहुत पैसे वाला बाप है बटुक पटेल [बोमन ईरानी] जिनका मानना है, “आदमी को सीधा होना चाहिए, उल्टा तो तारक मेहता का चश्मा भी है”. उसकी तीनों बेटियाँ [जैकलीन फर्नान्डीज़, नरगिस फाखरी, लीज़ा हेडन] भी कम नहीं. एक कहती है, “पापा, मैं बच्चा नहीं कर रही.” आपको लग रहा होगा, लड़की प्रेगनेंसी के खिलाफ है? जी नहीं, उसका मतलब है, “आय एम नॉट किडिंग”. बिहार बोर्ड की टॉपर रूबी राय का विडियो खासा वायरल हुआ है आजकल. फिल्म की पृष्ठभूमि लन्दन न होकर बिहार होती तो ये तीनों बड़ी आसानी से खप जातीं. बहरहाल, तीनों के बॉयफ्रेंड्स भी हैं [अक्षय कुमार, अभिषेक बच्चन, रितेश देशमुख] जो लड़कियों से कम, उनकी दौलत से ज्यादा प्यार करते हैं. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि तीनों को अँधा, गूंगा और अपाहिज़ बनने का नाटक करना पड़ता है. और फिर जो एक बार नाटक शुरू होता है, वो नाटक कम आपके दिल-ओ-दिमाग के साथ खिलवाड़ ज्यादा लगता है.

विकलांगों के प्रति बॉलीवुड पहले भी इस तरह की असंवेदनशीलता दिखा चुका है. दीपक तिजोरी की ‘टॉम, डिक एंड हैरी’ और इंदर कुमार की ‘प्यारे मोहन’ भूलने लायक ही फिल्में थीं. पर ‘हाउसफुल 3’ में फ़रहाद-साजिद सारी हदें लांघ जाते हैं. सस्ते मज़ाक के लिए घिसे-पिटे जोक्स का पूरा बोरा उड़ेल दिया है दोनों ने. हर किरदार जैसे कॉमनसेंस की स्पेल्लिंग भूल कर उल-जलूल हरकतें करने में लगा रहता है. अक्षय का किरदार स्प्लिट पर्सनालिटी डिसऑर्डर का शिकार है. ‘इंडियन’ शब्द सुनते ही उसके भीतर से एक और किरदार बाहर आने लगता है, पहले वाले से ज्यादा खूंखार. देश का जैसा माहौल है, ये एकदम फिट बैठता है. ‘भारत माता’ ‘गाय’ या ‘लता मंगेशकर और सचिन’ सुनते ही अकसर देश के लोगों में इस तरह के बदलाव आजकल खूब देखे जा रहे हैं. रितेश का किरदार शब्दों के चयन में हमेशा मात खा जाता है. ‘विरोध’ की जगह ‘निरोध’, ‘वाइफ’ की जगह ‘तवायफ़’, ‘खिलाड़ी’ की जगह ‘कबाड़ी’; इसलिए कोई हैरत नहीं अगर उसकी ‘कॉमेडी’ आपको ‘ट्रेजेडी’ लगे तो. अभिषेक का किरदार ‘बच्चन-परिवार’ के इर्द-गिर्द ही घूमता है. कभी बड़े बच्चन साब के पुतले के साथ सेल्फी, तो कभी बहू बच्चन [ऐश्वर्या] के पुतले के साथ रोमान्स!

फिल्म में अगर कुछ भी झेल जाने लायक है, तो वो है अक्षय का सब पर हावी हो जाने का अंदाज़. स्क्रिप्ट से बढ़कर सीन में कुछ न कुछ करते रहने का दुस्साहस ही उन्हें इस तरह की फिल्मों में कामयाब बनाता है. और दूसरा, फिल्म का ‘फ़ेक इश्क़’ गाना जिसमें तीनों नायकों को पैसे के पीछे भागना खलने लगता है और सच्चे प्यार का इमोशन हलके-हलके छू रहा होता है. एक यही वक़्त है फिल्म में जब हँसी हलकी-फुलकी ही सही, साफ़-सुथरी, उजली-उजली दिखती है. अंत में, अगर जैकलीन के किरदार के अंदाज़ में कहूं तो, “फ़रहाद-साजिद, जल्दी कुएं में जाओ (गेट वेल सून)!” और आप के लिए, “ठंडी दवाई लो (टेक अ चिल पिल)!...नहीं तो सरदर्द की गोली तो लेनी ही पड़ेगी! [1/5]