परी-कथाओं को
आपके बचपन से खींच कर परदे पर सजीव करने में डिज्नी को महारत हासिल है. और उसी
मासूम बचपन को सिनेमा में सबसे बड़ा कैनवस देने में स्टीवन स्पीलबर्ग
को. डिज्नी की फिल्में अगर मीठी-मीठी चाशनी में लिपटी हुई रंग-बिरंगी कैंडी
जैसी होती हैं, जो जबान पे देर तक अपना रंग छोड़ जाती हैं तो स्पीलबर्ग की
फिल्में आपको अपने जादुई ख्यालों के बेलगाम उड़ानों से भौंचक्का कर देने का दम रखती
हैं. बच्चों के लिए लिखी गयी ब्रिटिश नॉवलिस्ट रोआल डल की कहानी पर
बनी ‘दी बीएफ़जी’ इन दोनों की दुनियाओं में एक साथ, एक नज़र से झाँकने
की कोशिश है. हालाँकि यहाँ दोनों की अलग-अलग छाप आपको साफ़ तौर पर देखने को मिलती
है, पर फिर भी कहानी में कहीं न कहीं भावनाओं का वो उफान, वो बहाव नहीं दिखता जो
आपको बेरोक-टोक, बरबस और बाकायदा बहा ले जा सके.
अनाथालय की चश्मिश लड़की सोफ़ी
[रूबी बर्नहिल] को रात में नींद नहीं आती. अपने बिस्तर में घुस कर
टोर्च की रौशनी में बच्चे उठा ले जाने वाले दैत्याकार राक्षसों की कहानियाँ पढ़ती
रहती है, जब एक रात वो सचमुच एक ऐसे ही बड़ी इमारतों जितने विशालकाय दैत्य के सामने
गलती से आ जाती है और वो उसे अपनी दुनिया में उठा ले जाता है. शहर से बहुत दूर एक
गुफा में इस बूढ़े दानव ने अपना एक अलग लैब बना रखा है. छोटे-छोटे मर्तबानों में अच्छे-बुरे
सपने कैद करके रखना और बाद में इन सपनों को बच्चों में बांटना, इस बूढ़े, मायावी पर
दिल के अच्छे दानव का यही काम है. और ये सपने उसे टिमटिमाते जुगनुओं की तरह उड़ते
हुए मिलते हैं, उस बड़े से पहाड़ की चोटी पर खड़े बड़े पेड़ के इर्द-गिर्द मंडराते हुए.
सोफ़ी इस दानव के साफ़ दिल को टटोल कर उसे नाम देती है, बीएफ़जी यानी बिग फ्रेंडली
जायंट. पर उसकी दुनिया में सारे दानव उस जैसे नहीं हैं. 9 और दानवों की एक पूरी
टोली है जो बच्चों को खा जाती है. अब दोनों को एक-दूसरे को उन दानवों से बचना और
बचाना होगा.
स्पीलबर्ग अपने ‘लार्जर दैन लाइफ’
विज़न और ‘वाइल्ड’ इमेजिनेशन से आपको चौंकाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ते. फिल्म
उन दृश्यों में ख़ास तौर पर उभर कर आती है जहां सोफ़ी और बीएफ़जी के शारीरिक कद के बीच
का अंतर आपको सिर्फ दिखाया नहीं जाता बल्कि महसूस कराया जाता है. बीएफ़जी के टेबल
पर एक गंदी लिजलिजी सब्जी काटने का दृश्य हो, जहां सोफ़ी छुरी के हर वार पर
बचती-उछलती रहती है या उसका बीएफ़जी के पर्स में घुस के छिप जाना; आपको इंडियन टीवी
कमर्शियल का वो बच्चा ज़रूर याद आ जायेगा, जो डाइनिंग टेबल पर बड़ी-बड़ी पूरियों से
बच कर निकलता रहता था. बौढ़म बीएफ़जी के उटपटांग शब्द जो वास्तविक शब्दों में बेवजह दो-चार-छः
और अक्षर जोड़ कर बनाए गए होते हैं, आपको हर बार गुदगुदाते हैं. मसलन, क्रोकोडायल
को क्रोकोडाउनडिलीज़ कहना! फिल्म में ब्रिटेन की महारानी के महल में बीएफ़जी का
ब्रेकफास्ट वाला दृश्य भी बहुत सामान्य होने के बावजूद हंसने पर मजबूर कर देता है.
इंसानी हो या इस दुनिया
से अलग, स्पीलबर्ग जिस तरह की रिश्तों में गर्माहट और इमोशंस की मूसलाधार बारिश
में भिगोने के लिए जाने जाते हैं, उस तरह की अनुभूति के लिए आप इस फिल्म में तरसते
ही रहते हैं. ज्यादातर वक़्त आप सिर्फ उस मायावी दुनिया की चकाचौंध और तिलिस्म में
ही फँस कर रह जाते हैं, और फिल्म के दोनों प्रमुख किरदारों के बहुत करीब जाने में
झिझकते रहते हैं. यही वजह है कि फिल्म अपने दो घंटे के सीमित समय में भी आपको कई
बार अपनी एकरसता से उबाने लगती है.
अंत में, स्टीवन स्पीलबर्ग
की ‘दी बीएफ़जी’ एक प्यारी सी फिल्म है, जिसकी कहानी आपको बचपन में
सुनी तमाम अविश्वसनीय, अकल्पनीय कहानियों की याद दिलाती है, और उस तिलस्मी दुनिया
में ले भी जाती है. जब तक आप थिएटर में हैं तब तक की तो पूरी गारंटी है पर फिल्म
के बाद, आप फिल्म के साथ कितने दिन और कितनी देर और जुड़े रहते हैं, वो देखने वाली बात
होगी. [3/5]