Friday, 29 July 2016

दी बीएफ़ज़ी (THE BFG): तिलिस्म बड़ा, इमोशंस छोटे! [3/5]

परी-कथाओं को आपके बचपन से खींच कर परदे पर सजीव करने में डिज्नी को महारत हासिल है. और उसी मासूम बचपन को सिनेमा में सबसे बड़ा कैनवस देने में स्टीवन स्पीलबर्ग को. डिज्नी की फिल्में अगर मीठी-मीठी चाशनी में लिपटी हुई रंग-बिरंगी कैंडी जैसी होती हैं, जो जबान पे देर तक अपना रंग छोड़ जाती हैं तो स्पीलबर्ग की फिल्में आपको अपने जादुई ख्यालों के बेलगाम उड़ानों से भौंचक्का कर देने का दम रखती हैं. बच्चों के लिए लिखी गयी ब्रिटिश नॉवलिस्ट रोआल डल की कहानी पर बनी ‘दी बीएफ़जी’ इन दोनों की दुनियाओं में एक साथ, एक नज़र से झाँकने की कोशिश है. हालाँकि यहाँ दोनों की अलग-अलग छाप आपको साफ़ तौर पर देखने को मिलती है, पर फिर भी कहानी में कहीं न कहीं भावनाओं का वो उफान, वो बहाव नहीं दिखता जो आपको बेरोक-टोक, बरबस और बाकायदा बहा ले जा सके.

अनाथालय की चश्मिश लड़की सोफ़ी [रूबी बर्नहिल] को रात में नींद नहीं आती. अपने बिस्तर में घुस कर टोर्च की रौशनी में बच्चे उठा ले जाने वाले दैत्याकार राक्षसों की कहानियाँ पढ़ती रहती है, जब एक रात वो सचमुच एक ऐसे ही बड़ी इमारतों जितने विशालकाय दैत्य के सामने गलती से आ जाती है और वो उसे अपनी दुनिया में उठा ले जाता है. शहर से बहुत दूर एक गुफा में इस बूढ़े दानव ने अपना एक अलग लैब बना रखा है. छोटे-छोटे मर्तबानों में अच्छे-बुरे सपने कैद करके रखना और बाद में इन सपनों को बच्चों में बांटना, इस बूढ़े, मायावी पर दिल के अच्छे दानव का यही काम है. और ये सपने उसे टिमटिमाते जुगनुओं की तरह उड़ते हुए मिलते हैं, उस बड़े से पहाड़ की चोटी पर खड़े बड़े पेड़ के इर्द-गिर्द मंडराते हुए. सोफ़ी इस दानव के साफ़ दिल को टटोल कर उसे नाम देती है, बीएफ़जी यानी बिग फ्रेंडली जायंट. पर उसकी दुनिया में सारे दानव उस जैसे नहीं हैं. 9 और दानवों की एक पूरी टोली है जो बच्चों को खा जाती है. अब दोनों को एक-दूसरे को उन दानवों से बचना और बचाना होगा.

स्पीलबर्ग अपने ‘लार्जर दैन लाइफ’ विज़न और ‘वाइल्ड’ इमेजिनेशन से आपको चौंकाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ते. फिल्म उन दृश्यों में ख़ास तौर पर उभर कर आती है जहां सोफ़ी और बीएफ़जी के शारीरिक कद के बीच का अंतर आपको सिर्फ दिखाया नहीं जाता बल्कि महसूस कराया जाता है. बीएफ़जी के टेबल पर एक गंदी लिजलिजी सब्जी काटने का दृश्य हो, जहां सोफ़ी छुरी के हर वार पर बचती-उछलती रहती है या उसका बीएफ़जी के पर्स में घुस के छिप जाना; आपको इंडियन टीवी कमर्शियल का वो बच्चा ज़रूर याद आ जायेगा, जो डाइनिंग टेबल पर बड़ी-बड़ी पूरियों से बच कर निकलता रहता था. बौढ़म बीएफ़जी के उटपटांग शब्द जो वास्तविक शब्दों में बेवजह दो-चार-छः और अक्षर जोड़ कर बनाए गए होते हैं, आपको हर बार गुदगुदाते हैं. मसलन, क्रोकोडायल को क्रोकोडाउनडिलीज़ कहना! फिल्म में ब्रिटेन की महारानी के महल में बीएफ़जी का ब्रेकफास्ट वाला दृश्य भी बहुत सामान्य होने के बावजूद हंसने पर मजबूर कर देता है.

इंसानी हो या इस दुनिया से अलग, स्पीलबर्ग जिस तरह की रिश्तों में गर्माहट और इमोशंस की मूसलाधार बारिश में भिगोने के लिए जाने जाते हैं, उस तरह की अनुभूति के लिए आप इस फिल्म में तरसते ही रहते हैं. ज्यादातर वक़्त आप सिर्फ उस मायावी दुनिया की चकाचौंध और तिलिस्म में ही फँस कर रह जाते हैं, और फिल्म के दोनों प्रमुख किरदारों के बहुत करीब जाने में झिझकते रहते हैं. यही वजह है कि फिल्म अपने दो घंटे के सीमित समय में भी आपको कई बार अपनी एकरसता से उबाने लगती है.

अंत में, स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘दी बीएफ़जी’ एक प्यारी सी फिल्म है, जिसकी कहानी आपको बचपन में सुनी तमाम अविश्वसनीय, अकल्पनीय कहानियों की याद दिलाती है, और उस तिलस्मी दुनिया में ले भी जाती है. जब तक आप थिएटर में हैं तब तक की तो पूरी गारंटी है पर फिल्म के बाद, आप फिल्म के साथ कितने दिन और कितनी देर और जुड़े रहते हैं, वो देखने वाली बात होगी. [3/5]

ढिशूम: बेमतलब है, पर वाहियात नहीं! [2/5]

रोहित धवन की ‘ढिशूम’ बिलकुल अपने नाम की तरह ही है, बेमतलब. ढिशूम को सालों-साल पहले हिंदी फिल्मों में मार-धाड़ के दृश्यों में मुक्के और घूंसों की आवाज़ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था, वो भी डबिंग के वक़्त मुंह से बोल कर. आज अगर उन दृश्यों को आप देखें तो शायद उस वक़्त की तकनीकी कमियों पर हंस भी पड़ें, पर उस जमाने के दर्शकों पर उसके प्रभाव को नज़रअंदाज़ करना आपके बस में नहीं. खैर, सिंक-साउंड और रीयलिस्टिक सिनेमा के दौर में धीरे-धीरे इस लफ्ज़-ऐ-इज़हार में वो प्रभाव, वो असर अब रहा नहीं. ऐसी ही कुछ तबियत, रंगत और सीरत ‘ढिशूम’ फिल्म की भी है. हाँ, एक बात तारीफ के काबिल ज़रूर है...’ढिशूम’ बेमतलब और बेअसर की होने के बावजूद आपको दूसरी वाहियात फिल्मों की तरह परेशान बिलकुल नहीं करती. सच्चाई तो ये है कि ये फिल्म अपने आपको भी कभी सीरियसली नहीं लेती. नतीजा ये होता है कि पूरी फिल्म आपकी आँखों के आगे से यूँ निकल जाती है और आप उस पर रियेक्ट करने की जेहमत ही नहीं उठाते!

मिडिल-ईस्ट में कहीं किसी जगह, भारत-पाकिस्तान के फाइनल क्रिकेट मैच से ठीक पहले भारतीय टीम के धुआंधार बल्लेबाज विराज शर्मा [साकिब सलीम] को किसी ने अगवा कर लिया है. भारत ने स्पेशल टास्क फ़ोर्स के अपने सबसे काबिल ऑफिसर कबीर [जॉन अब्राहम] को अगली ही फ्लाइट से वहाँ के लिये रवाना कर दिया है. कबीर की मदद के लिए वहां है जुनैद [वरुण धवन], अपनी छिछोरी, बेवकूफ़ाना और हंसोड़ हरकतों के साथ. गुस्सैल-अकड़ू कबीर और मजाकिया जुनैद की ये जोड़ी बॉलीवुड के लिए कोई नई नहीं है. दिमाग पर ज़ोर डालिए और इस तरह की ‘एक अनाड़ी-एक खिलाड़ी’ मर्द जोड़ियों के जो भी नाम आपको याद आयेंगे, यकीन मानिए कबीर और जुनैद उन सब से ही निकलते मिलेंगे, उन सब जैसे ही दिखते मिलेंगे.

जैकलीन फर्नान्डीज़ फिल्म में शौकिया चोर की भूमिका में हैं जिसकी अपनी एक दर्द भरी कहानी है, जो करन अंशुमन की ‘बैंगिस्तान’ में उनके किरदार की कहानी से इतनी मिलती-जुलती है मानो जैकलीन सीधा उसी फिल्म के सेट से इस फिल्म में आ गिरी हों. और इन सब के बीच अक्षय खन्ना का वापस फ़िल्मी परदे पर आना! मेहमान भूमिकाएं हों, खूबसूरत लोकेशंस हों या एक्शन, रोहित धवन एक मौका नहीं छोड़ते, आपका ताबड़तोड़ मनोरंजन करने की कोशिश में. एक के बाद एक वो अपने पत्ते कुछ इतनी जल्दी में फेंकते हैं कि आपको दिमाग लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती. गैर-मुल्कों में कैसे सभी लोग इतनी अच्छी हिंदी बोलते-समझते हैं? ये गलती तो बॉलीवुड में अब गलती मानी ही नहीं जाती, पर दुश्मन के अड्डे से बच के निकलना हो, किडनैपिंग के केस में एक लीड से दूसरी लीड तक पहुंचना हो या फिल्म के सबसे बड़े विलेन को पकड़ने में एक कुत्ते की भूमिका; फिल्म के लेखक भी कहानी लिखने में दिमाग का इस्तेमाल करने से बचते रहे हैं. बड़ी बात ये है कि इसके लिए भी उन्हें काफी मोटी रकम पेश हुई होगी.

अभिनय में किसी को भी अच्छा कहना थोड़ा विवादास्पद हो सकता है, और हास्यास्पद भी. जॉन अब्राहम के डोलों की साइज़ में भले ही इज़ाफा हुआ हो, उनकी एक्टिंग में धागे भर की भी तरक्की नहीं दिखती. जैकलीन में जितनी चाभी भरिये, उतनी ही देर तक चलती हैं. हाँ, वरुण आपको अपने भोले-भाले-साफ़ दिल चेहरे से अच्छा-खासा बहलाए रखते हैं. अक्षय खन्ना अभी पूरी तरह वापस नहीं आये हैं, एक-दो फिल्में और लगेंगी. विराट कोहली के इर्द-गिर्द बुने गए किरदार में साकिब सलीम और सुषमा स्वराज जैसी दिखने-लगने-बोलने वाली केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में मोना अम्बेगांवकर फिल्म की सबसे मज़बूत कास्टिंग हैं. अक्षय कुमार, सतीश कौशिक और नरगिस फाखरी अपनी-अपनी मेहमान भूमिकाओं में ठीक-ठाक हैं.

आखिर में, रोहित धवन की ‘ढिशूम’ उन पलों में ज्यादा कारगर साबित होती है, जहां रोहित अपने पिता डेविड धवन मार्का एंटरटेनमेंट की झलकियाँ पेश करते हैं. सतीश कौशिक, विजयराज और वरुण के किरदार डेविड धवन की ‘हार्मलेस’ कॉमेडी फिल्मों के आड़े-टेढ़े किरदारों की ही याद दिलाते हैं. अफसोस, ऐसे मजाकिया पल फिल्म में बस गिनती के ही हैं और ज्यादातर वक़्त फिल्म सिर्फ अपना ही मज़ाक बनाने में गुमसुम रहती है. देखिये, अगर आप उन चंद ख़ास ‘गिफ्टेड’ लोगों में से हैं जो अपना दिमाग हर जगह लेकर नहीं जाते! [2/5]   

Friday, 22 July 2016

कबाली: सुपर-साइज़ बोरियत!! [1/5]

मैं ‘कबाली’ देखने आया हूँ. हिंदी में. मुंबई में. परदे पर सुपरस्टार रजनीकांत की एंट्री हो चुकी है. कैदियों की पोशाक में किताब पढ़ते हुए, अपनी कोठरी से निकलते हुए और बाकी के एक-दो कैदियों से हाथ मिलाते हुए उनका चेहरा, उनके हाव-भाव की एक झलक मिल चुकी है, पर अभी तक सिनेमाहाल में मौजूद उनके प्रशंसकों में किसी तरह का वो अकल्पनीय उत्साह देखने को नहीं मिला. रुकिए, रुकिए! थोड़ी हलचल हो रही है. रजनी सर ब्लेजर डाल रहे हैं. काले चश्मे आँखों पर चढ़ने लगे हैं, अब ये पूरी फिल्म में वहीँ रहने वाले हैं. रजनी सर ने स्लो-मोशन में कैमरे की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है. इंतज़ार ख़तम! सीटियाँ, तालियाँ भीड़ की आवाज़ बन गयी हैं. मैं अपने आस-पास देख रहा हूँ. परदे से आती चकमक रौशनी में नहाये चेहरे जाने-पहचाने लग रहे हैं. ‘भाई’ को ‘भाई’ बनाना हो या रवि किशन को ‘भोजपुरिया सुपरस्टार’, यही चेहरे काम आते रहे हैं. कुछ को मैंने संत-समागम जैसी जगहों पर भी नोटिस किया है.

खैर, स्टारडम का जलवा यहाँ तक तो ठीक था. ढाई घंटे की फिल्म में ऐसे चार या पांच मौके भी आ जाएँ तो ज्यादा शिकायत नहीं होगी. पर ‘कबाली’ शायद आपके सब्र का इम्तिहान लेने के लिए ही बनायी गयी है. फिल्म-स्कूलों में सिनेमा पढ़ रहे किसी भी एक रंगरूट को अगर चार ठीक-ठाक ‘गैंगस्टर’ फिल्में दिखा कर एक वैसी ही फिल्म लिखने को कह दिया जाए तो शायद ‘कबाली’ से ज्यादा बेहतर स्क्रिप्ट सामने आ जाए. हैरत होती है कि ये वही साल है जब मलयालम में राजीव रवि की ‘कम्माटीपादम’ जैसी बेहतरीन गैंगस्टर फिल्में भी बन रही हैं. ‘कबाली’ की सबसे ख़ास बात अगर फिल्म में रजनी सर का होना है तो फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी भी वही हैं. कुछ जबरदस्त डायलाग-बाजी के सीन, पंद्रह-बीस स्लो-मोशन वाक्स और स्टाइलिश ड्रेसिंग के अलावा स्क्रिप्ट उन्हें ज्यादा कुछ कर गुजरने की छूट देता ही नहीं.

गैंग-लीडर और ‘पढ़ा-लिखा गुंडा’ कबाली [रजनीकांत] 25 साल से मलेशिया की जेल में बंद है. उसकी गर्भवती बीवी को उसके दुश्मनों ने मार दिया है. बदले की आग में कबाली ने भी चाइनीज़ माफ़िया और अपने ही गैंग के कुछ गद्दारों के खिलाफ जंग छेड़ दी है. साथ ही, वो एक ‘बीइंग ह्यूमन’ जैसा एन जी ओ भी चलाता है, जो ड्रग्स और दूसरे गैंग्स में काम करने वाले नौजवानों को सुधार कर अपने गैंग में ‘रिप्लेसमेंट’ की सुविधा भी देता है. पूरी फिल्म में आप सर धुनते रह जायेंगे पर ये जान पाना आपके बस की बात नहीं कि आखिर कबाली का गैंग ऐसा क्या करता है जो दूसरे गैंग्स से अलग है?

फिल्म का स्क्रीनप्ले इतना बचकाना और वाहियात है कि कभी कभी आपको लगता है आप रजनीकांत की नहीं, हिंदी की कोई बी-ग्रेड एक्शन फिल्म देख रहे हैं. इंटरवल के बाद के 20-25 मिनट सबसे मुश्किल गुजरते हैं जब कबाली को पता चलता है कि सालों पहले मर चुकी उसकी बीवी अभी भी जिंदा है और वो उससे मिलने जाता है. ये वो 20-25 मिनट हैं जब फिल्म फिल्म नहीं रह कर, टीवी के सास-बहू के सीरियल्स का कोई उबाऊ एपिसोड बन जाता है. फिल्म में गोलियों से छलनी होने के बाद भी कोई जिंदा बच गया हो, ये सिर्फ एक या दो बार नहीं होता. बल्कि इतना आम हो जाता है कि जब अस्पताल में एक बुरी तरह घायल गैंग मेम्बर को राधिका आप्टे दिलासा देती हैं, “तुम्हें कुछ नहीं होगा’, आपका मन करता है आप खुद उसका गला घोंट दें और कहें, “रजनी सर का समझ आता है. इसको कैसे कुछ नहीं होगा?” लॉजिक को किसी फिल्म में इतनी बार दम तोड़ते मैंने शायद किसी मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म में ही देखा होगा.

कबाली’ में एक ही बात है जो कहीं से भी अटपटी नहीं लगती, और वो है रजनी सर का ‘प्रेजेंट’ और ‘रेट्रो’ दोनों लुक. परदे पर उनका करिश्मा अभी कहीं से भी कम नहीं हुआ है, जरूरत थी बस एक अदद स्मार्ट स्क्रिप्ट की और बेहतर निर्देशन की. आखिर कितनी देर आप बस यूँही किसी को निहारते, घूरते रह सकते हैं? ढाई घंटे तक?? बिलकुल नहीं! [1/5]   

मदारी: इरफ़ान का ‘तमाशा’! [2.5/5]

किसी एक सतर्क, सजग आम आदमी का सतह से उठना और कानून की हद से बाहर जा के पहाड़ जैसे अजेय दिखने वाले सिस्टम से सीधे-सीधे भिड़ जाना; बॉलीवुड के लिए ये फार्मूला हमेशा से एक ऐसा ऊंट रहा है, जो बड़े आराम से दोनों करवट बैठ लेता है. चाहे वो बॉक्स ऑफिस पर भीड़ इकट्ठी करनी हो या फिल्म समीक्षकों से थोक में सितारे बटोरने हों. वजह बहुत साफ़ है, कहीं न कहीं सब बहुत त्रस्त हैं. दिन भर दफ़्तर की हांक के बाद घर की घुटी-घुटी सांस और ऊपर से महंगाई, भ्रष्टाचार और मूलभूत अधिकारों के हनन जैसे मसलों से हताश आम आदमी को ऐसी फिल्मों के नायक में ही अपना चेहरा ढूंढ लेने की मजबूरी भी है.

पहले भी और मौजूदा हाल में भी आपको बहुत सारे ऐसे नाम खोजने से मिल जायेंगे, जो लाख मुश्किलों के बाद भी सरकार और सिस्टम दोनों की नाकामियों को कठघरे में खड़ा करने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, पर जो सुख, जो रोमांच, जो तृप्ति फ़िल्मी परदे पर एक अदना से आम आदमी के सामने सिस्टम को घुटने टेकते देखने में आता है, वो ‘अन-रियल’ ही है. ‘मदारी’ अपनी ज्यादातर अच्छाइयों और इरफ़ान खान जैसे दिग्गज अभिनेता के अच्छे अभिनय के बावजूद, कहीं न कहीं एक ऐसा ही ‘अभूतपूर्व’ अनुभव बनते-बनते रह जाती है.

गृहमंत्री [तुषार दलवी] का बेटा किडनैप हो गया है. अगवा करने वाले [इरफ़ान] ने अपना भी बेटा सिस्टम की नाकामी के चलते खो दिया था. हिसाब बराबर करने का वक़्त आ गया है. बेटा लाओ-बेटा पाओ! पर कौन है ये आदमी? ढूँढें तो कहाँ? वो खुद कहता है, “कपड़े-लत्ते, शकल-सूरत से 120 करोड़ लोगों जैसा दिखता हूँ, कैसे पहचानोगे?”. सीरत और सूरत में कुछ-कुछ नीरज पाण्डेय की ‘अ वेडनेसडे’ जैसे सेटअप में नचिकेत वर्मा [जिम्मी शेरगिल] ने स्पेशल टास्क फ़ोर्स के साथ अपनी पूरी जान लड़ा दी है. चूजे पर बाज़ का शिकंजा कसता चला जा रहा है. अब कोई जांच समिति नहीं, कोई सुनवाई नहीं, सीधे दोषियों को सज़ा. इसी बीच अगवा हुए बच्चे को लगता है, उसके साथ कुछ कुछ ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ जैसा हो रहा है. (जिसमें किडनैपर और विक्टिम के बीच एक तरह का इमोशनल सम्बन्ध बनने लगता है).

निशिकांत कामत की ‘मदारी’ आपको सीधी, सपाट और सहज रास्ते पर नहीं ले जाती. यहाँ कहानी में हिचकोले बहुत हैं, जो बार-बार फिल्म की लय और आपके सफ़र की उम्मीदों को तोड़ते रहते हैं. फिल्म में पिता-पुत्र के निजी पलों वाले इमोशनल दृश्यों का इसमें ख़ासा योगदान दिखता है. हालाँकि फिल्म जब उठती है तो अपने पूरे उफान पे होती है (अक्सर इरफ़ान की मौजूदगी में), पर जब सरकने की ठान लेती है तो उतनी ही निर्जीव और बेस्वाद! सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मीडिया का आम जन-मानस पर क्षणिक, बदलता और बढता असर इस फिल्म में बखूबी पेश किया गया है.

फिल्म को थ्रिलर का जामा पहनाने के लिए कामत नायक के इरादों और वजहों को बड़ी फ़िल्मी तरीके से छुपाते और उजागर करते रहते हैं. इसी कड़ी में वो फिल्म को दोहरा अंत देने का खेल भी आजमाते नज़र आते हैं, जहां एक अंत पर पहुँच कर आपको बताया जाता है कि पिच्चर तो अभी बाकी है. ‘इमोशनल’ और ‘थ्रिलर’ होने के बीच झूलने वाली ‘मदारी’ अंत तक किसी एक तय मुकाम पर पहुँचने का सुख हासिल नहीं कर पाती.

इरफ़ान ‘मदारी’ हैं और ‘मदारी’ इरफ़ान; इस बात से किसी को इनकार नहीं होगा पर फिल्म के ज्यादातर दृश्य मानो इरफ़ान की काबिलियत को ही भुनाने का और मांजने का एक जरिया भर बनाने की कोशिश लगते हैं. इतने पर भी, अस्पताल में उनका फूट-फूट कर रोने वाला दृश्य हो या फिर अपने बेटे को खो देने के दर्द में खोया हुआ पिता, इरफ़ान आपको उन्हें याद रखने के लिए काफी कुछ दे जाते हैं.

आखिर में, ‘मदारी’ सत्ता-कानून व्यवस्था और सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर हर उस तरीके से बोलने की नीयत दिखाती है, जो आजकल के परिवेश में एकदम फिट बैठते हैं. पर न तो खुद किसी साफ़ नतीजे पर पहुँचती है, न ही आपको पहुँचने के लिए उकसाती है. कुल मिलाकर, ये वो तमाशा है जहां आप खेल की दांव-पेंच पर कम, बाजीगर की उछल-कूद पर ज्यादा तालियाँ बजाते हैं. [2.5/5]          

Friday, 15 July 2016

ग्रेट ग्रैंड मस्ती (A): एक बचकानी एडल्ट कॉमेडी, आपके ‘उस’ व्हाट्स ऐप ग्रुप के लिए! [1/5]

बॉलीवुड में फिल्म-प्रमोशन का दौर एक ऐसा जादुई वक़्त होता है, जब फिल्म से जुड़े तमाम लोगों में अचानक ‘दैवीय ज्ञान’ का संचार होने लगता है. अपनी फिल्म को अच्छी बताने और बता कर बेचने में मैंने अक्सर बड़े-बड़े ‘सिनेमा-विशेषज्ञों’ को गिरते देखा है. खैर, ‘इट्स ऑल पार्ट ऑफ़ द जॉब’. हालाँकि ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को बेचते हुए निर्माता-निर्देशक इन्द्र कुमार काफी हद तक सच के साथ खड़े दिखते हैं. उनका कहना है, “अगर हम एडल्ट जोक्स आपस में कह-सुन सकते हैं तो परदे पर एडल्ट कॉमेडी क्यूँ नहीं”. दुरुस्त, पर दुर्भाग्य ये है कि इन्द्र कुमार साब एडल्ट कॉमेडी के नाम पर उन्हीं बासी, घिसे-पिटे एडल्ट जोक्स को बार-बार हमारे सामने परोसते हैं, जिन्हें हम और आप अपने ‘व्हाट्स ऐप ग्रुप’ में पढ़ते ही डिलीट कर देते हैं. सिनेमा डिलीट नहीं होता. और अगर ये सिनेमा है तो काश सिनेमा डिलीट हो सकता! ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ एक उबाऊ, पकाऊ और झेलाऊ फिल्म है, जहां हंसाने के नाम पर बद्तमीजियां ज्यादा होती हैं और फूहड़पन हर तरफ बिखरा पड़ा है.

मस्ती’ अगर बॉलीवुड में एडल्ट कॉमेडी के एक नए दौर की शुरुआत थी तो ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को अंत मान लेना चाहिए, क्यूंकि इसके आगे अब बस ‘पोर्न’ ही बचता है. ऐसा नहीं है कि मैं पोर्न फिल्मों के खिलाफ़ हूँ पर तब वो खांटी तौर पर एक नया मुद्दा होगा बहसबाजी और अवलोकन के लिये. एडल्ट कॉमेडी में अक्सर द्विअर्थी कहावतों और ‘वन-लाइनर्स’ की भरमार होती है. ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ में द्विअर्थी कुछ भी नहीं. यहाँ सबका मतलब साफ़ और एक ही है. फिल्म में अगर ‘मेरा खड़ा है’, ‘इसका छोटा है’, ‘मुझे करना है’ जैसे संवाद बोले जाते हैं, तो दादा कोंडके साब की तरह उन संवादों के आगे-पीछे किसी तरह को कोई एक्सप्लेनेशन जोड़ कर आपको चौंकाया नहीं जाता, बल्कि उनका सीधा मतलब आपके शारीरिक अंगों और यौन-क्रियाकलापों की तरफ ही होता है. जाहिर है, इसमें हँसी आने की कहीं कोई गुंजाईश नहीं बचती. बात सिर्फ संवादों तक ही रुक जाती तो गनीमत होती, यहाँ तो लेखक और निर्देशक उन तमाम अंगों-प्रत्यंगों को ‘कुचलने, काटने, कूटने’ तक पर उतर आते हैं. और हम लोग अनुराग कश्यप को सबसे ‘हिंसक’ फिल्म-निर्देशक का तमगा देने पर आमादा है, कैसी विडंबना है!

अमर, प्रेम और मीत [रितेश, विवेक और आफ़ताब; मुझे फर्क नहीं पड़ा कि किसका क्या नाम है] अपने-अपने वैवाहिक जीवन में ‘सेक्स-सुख’ न मिलने की वजह से ‘बाहर की बिरयानी’ खाने का मन बना चुके हैं. प्लान के मुताबिक तीनों रितेश के गाँव उसके वीरान बंगले को बेचने की नीयत से आते हैं. इस वीरान बंगले में एक भूत का कब्ज़ा है, भूत वो भी हद्द खूबसूरत [उर्वशी रौतेला] और 50 साल से मर्दों के लिए प्यासी. आप सोच रहे होंगे, टेंशन क्या है? पर नहीं, पहले तो ये तीनों भूखे भेड़िये (उनकी एक्टिंग देख कर तो कम से कम ऐसा ही लगता है) आपस में ‘मे बेस्ट मैन विन’ की रेस लगाने लगते हैं और बाद में भूत की शर्त. कुल मिलाकर आपको 2 घंटे 10 मिनट तक बेवकूफ बनाये रखने का पूरा इंतज़ाम यहाँ मौजूद है. कहने की बात नहीं है कि अंत में सारे मर्द ‘लौट के बुद्धू घर को आये’ और ‘सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते’ जैसे कहावतों की बिला पर साफ़ बरी हो जाते हैं.

अभिनय की नज़र से ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ एक बहुत जरूरी फिल्म है, उन लोगों के लिए ख़ास जिन्हें परदे पर कभी न कभी इंसानों के पूर्वजों की भूमिका करने में दिलचस्पी रही हो. ‘फैरेक्स-बेबी’ आफ़ताब इस लिहाज़ से काफी मजबूत कलाकार हैं. उनकी उछल-कूद देखकर मन में कोई दुविधा नहीं रह जाती. विवेक थोड़े पीछे रह जाते हैं. रितेश इस तरह की भूमिकाओं में ‘पदमश्री’ लेकर ही मानेंगे. उर्वशी रौतेला गानों में अपना जौहर ज्यादा बखूबी से पेश करती हैं, अभिनय में उनका सफ़र अभी काफी लम्बा और काटों भरा है. उषा नाडकर्णी और संजय मिश्रा पर हँसी कम, तरस ज्यादा आता है. फिल्म का सबसे दमदार दृश्य मेहमान भूमिका में सुदेश लाहिरी के हिस्से आता है, जहां वो रामसे ब्रदर्स और उनकी तमाम भूतिया फिल्मों पर छींटाकशी करते नज़र आते हैं. दिलचस्प बात ये है कि वो खुद उन्हीं फिल्मों के ‘लालटेन वाले चौकीदार’ की भूमिका में हैं.

ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ के एक मार-धाड़ वाले दृश्य में एक आदमी उड़ता हुआ मशहूर पेंटर Vincent van Gogh की पेंटिंग के ऊपर आ गिरता है. कला और सिनेमा पर ये फिल्म उसी तरह का एक निर्मम प्रहार है. इनका बंद होना तो नाजायज़ और नामुमकिन है; उम्मीद करता हूँ इन पर हंसने वालों की तादात थोड़ी कम हो. बहरहाल, मस्ती के नाम पर ये है एक गन्दी, सस्ती और बचकानी फिल्म! [1/5]    

Wednesday, 6 July 2016

सुल्तान: भाई मुबारक!! [3/5]

ईद आ गयी है. सिर्फ इसलिए नहीं क्यूंकि रमज़ान का महीना ख़त्म होने को आया बल्कि इसलिए भी क्यूंकि ‘भाई’ की फिल्म सिनेमाघरों में आ गयी है. लोग अपनों में ईद मनाने ‘अन्दरुने मुल्क’ तो जा ही रहे होंगे, सिनेमाघरों में भी भीड़ गज़ब की उमड़ने लगी है. ये अप्रत्याशित नहीं है. इसी की उम्मीद थी, और ये उम्मीद बड़ी सोची-समझी उम्मीद है. इस उम्मीद का सिनेमा से उतना लेना-देना नहीं है, जितना कि फिल्मों के व्यावसायिक पक्ष से. अली अब्बास ज़फर की ‘सुल्तान’ जिस दिमागी कसरत से उपजती है, वहां स्टार की डेट्स और रिलीज़ का दिन पहले मुकर्रर हो जाता है; कहानी, निर्देशन और अभिनय से जुड़े दूसरे पहलू इसके बाद धीरे-धीरे अपने तय क्रम में जुड़ते चले जाते हैं.

‘भाई’ की कोई भी फिल्म ‘भाई’ की ही फिल्म होती है. ‘सुल्तान’ कुछ अलग नहीं है. हाँ, कुछ मामलों में थोड़ी बेहतर ज़रूर है. बड़े कसमसाते हुए ही सही, ‘भाई’ यहाँ 30 की उम्र से सफ़र करते हुए 40 की दहलीज़ तक पहुँचने का दम-ख़म दिखाते हैं, पहली बार. हालाँकि ‘भाई’ पहले भी स्क्रीन पर शर्ट उतारते नज़र आये हैं, पर इस बार जब वो ऐसा करते हैं, अन्दर से उनके गठीले बदन के खांचे नज़र नहीं आते बल्कि एक थुलथुली सी तोंद सामने छलक पड़ती है. जाने-अनजाने ही सही, ‘भाई’ ने किरदार में ढलने की ओर एक सफल कोशिश तो कर ही दी है. रही-सही कोर-कसर पूरी कर देते हैं ‘मस्तराम’ और ‘मिस टनकपुर हाज़िर हों’ के अभिनेता राहुल बग्गा, जो इस फिल्म में ‘भाई’ के हरियाणवी लहजे पे नज़र रखने वाले मास्टरजी बनकर परदे के पीछे ही डटे रहते हैं. इतने सब के बावजूद भी, ‘भाई’ अपने एक उसूल से पीछे नहीं हटते. ‘भाई’ एहसान लेते नहीं, एहसान करते हैं. चाहे वो अकेले हल चलाकर खेत जोतना ही क्यूँ न हो. वैसे अगर हल को पीछे से जमीन में जोतना वाला कोई न हो तो ये काम काम रह ही नहीं जाता. फिर तो आप दौड़ते रहिये हल सर पे उठाये.

सुल्तान’ में पहलवानी और मुक्केबाजी भरपूर है, पर इसे एक ‘स्पोर्ट्स फिल्म’ कहना उतना ही बचकाना होगा जितना साजिद खान की फिल्मों को कॉमेडी कहना. असलियत में ‘सुल्तान’ दो कुश्तिबाज़ों की प्रेम-कहानी है. आरफ़ा [अनुष्का शर्मा] और सुल्तान [सलमान खान]. आरफ़ा ओलंपिक्स में भारत के लिए गोल्ड मेडल हासिल करने का सपना देख रही है. गाँव का निठल्ला-नालायक सुल्तान जब उसे पहली बार मिलता है, आरफ़ा के मन में कोई दो राय नहीं है. उसके लिए उसका सपना ही सब कुछ है. आपको लगता है ये है हरियाणे की लड़की. बाद में, 30 साल का सुल्तान उसके प्यार में पहलवान तक बन जाता है. अचानक आरफ़ा को निकाह पढ़वाना है. अचानक आरफ़ा को माँ बनने से भी कोई दिक्कत नहीं. अचानक आरफ़ा को अपना सपना सुल्तान के सपने में दिखने लगता है. और ये सब सिर्फ इसलिए क्यूंकि ‘सुल्तान’ ‘भाई’ की फिल्म है. और चूँकि ‘सुल्तान’ ‘भाई’ की फिल्म है तो ‘भाईगिरी’ तो रहेगी ही; ‘बीइंग ह्यूमन’ का तड़का भी होगा, कभी न कम पड़ने वाला ‘स्वाग’ भी होगा, थोड़ी उल-जलूल हरकतें भी होंगीं, इमोशंस का बहाव भी होगा और होगा ढेर सारा एक्शन. सब है. अगर कुछ नहीं है, तो ये सब होने की कोई ख़ास, कोई मुक्कमल वजह!

तकरीबन 3 घंटे के अपने पूरे वक़्त में, ‘सुल्तान’ बेहतरीन कैमरावर्क, शानदार प्रोडक्शन-डिज़ाइन, जोशीले साउंडट्रैक और कुछ बहुत अच्छे फाइटिंग सीक्वेंस के साथ आपको बांधे रखने की पूरी कोशिश करती है. अभिनय में कुमुद मिश्रा, अमित साढ और सुल्तान की दोस्त की भूमिका करने वाला कलाकार पूरी तरह प्रभावित करते हैं. रणदीप हुडा मेहमान कलाकार की हैसियत से थोड़े ही वक़्त स्क्रीन पर नज़र आते हैं. अनुष्का के किरदार के साथ फिल्म की कहानी भले ही पूरी तरह न्याय करती न दिखती हो, पर अनुष्का कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़तीं. ‘भाई’ की फिल्म न होती तो शायद हम और फिल्म के लेखक इस किरदार की पेचीदगी को और समझने की कोशिश ज़रूर करते.

अंत में; ‘सुल्तान’ में सलमान बहुत हद तक फिल्म के किरदार को अपनाने की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं. फिल्म में कई बार अपने हाव-भाव, अपने लहजे-लिहाज़ और अपने पहनावे से सलमान आपको चौंका देते हैं, और ये हिंदी सिनेमा के लिए काफी अच्छे संकेत हैं हालाँकि उनके अभिनय के बारे में अब भी बहस की जा सकती है, पर सबसे ज्यादा निराश करती है फिल्म की औसत कहानी और उसके घिसे-पिटे डायलाग. ज़िन्दगी के थपेड़ों से लड़ते-जूझते बॉक्सर जिनको अंततः मोक्ष, मंजिल, मुक्ति मिलती है बॉक्सिंग रिंग के अन्दर ही; ऐसी कितनी ही कहानियाँ हम पहले भी परदे पर देखते आये हैं, और इससे कहीं बेहतर ढंग से कही गयी, पर ‘सुल्तान’ की बात अलग है. ये ‘भाई’ की फिल्म है, तो ईद के मौके पर आप सबको...‘भाई मुबारक’! [3/5]