Friday, 24 March 2017

अनारकली ऑफ़ आरा (A): बेख़ौफ़, बेपरवाह, तेज़-तर्रार...फिल्म भी, स्वरा भी! [4/5]

‘नाच’ या इस तरह की और दूसरी लोकविधाएं, जिनमें लड़कियां मंच पर सैकड़ों की भीड़ के सामने द्विअर्थी गानों पे उत्तेजक लटके-झटके दिखाती हैं; राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी लोकप्रिय हैं. हमारी फिल्मों ने भी ‘आइटम सॉंग’ के तौर पर इस का पूरा पूरा दोहन किया है. ऐसे तमाम विडियो आपको इन्टरनेट पर देखने को मिल जायेंगे, जहां अक्सर ‘अश्लीलता’ का सारा नैतिक ठीकरा हम ऐसे ‘नचनियों’ पर फोड़ कर उनके ठीक सामने हवस में लिपटे, लार टपकाते मर्दों की जमात को भूल जाते हैं. चाहे मंच पर वो अपने आप को कितना भी ‘कलाकार’, ‘सिंगर’ या ‘डांसर’ मानने और मनवाने की कोशिश करते रहें, हममें से ज्यादातर के लिए हैं तो वो ‘रंडियां’ ही. और ‘रंडियों’ की मर्ज़ी कौन पूछता है? हम मर्द तो बस्स ‘कीमत’ लगाना जानते हैं, उनके जिस्म की कीमत, उनके वक़्त की कीमत, उनके वजूद की कीमत. एक घंटे का इतना, एक रात का इतना!

अनरकलिया (स्वरा भास्कर) आरा जिल्ला की सबसे मशहूर कलाकार है. शादी-बियाह के मौके पर उसका प्रोग्राम न हो, तो सब मज़ा किरकिरा. चाहने वालों में इलाके के थानेदार से लेकर स्थानीय यूनिवर्सिटी के दबंग वीसी (संजय मिश्रा) तक, सबके नाम शामिल हैं. ‘साटा’ पर नाचने-गाने वाली को सब अपनी ‘प्रॉपर्टी’ समझते हैं. वीसी साहब तो इतना ज्यादा कि मंच पर ही उसके साथ जबरदस्ती करने लगते हैं. अनरकलिया देती है एक रख के, वहीँ के वहीँ, उसी वक़्त! हालाँकि वो खुद कबूलती है कि वो कोई सती सावित्री नहीं है, पर मर्ज़ी पूछे जाने का हक़ सिर्फ सती सावित्रियों के ही हिस्से क्यूँ? अनारकली शायद हालिया हिंदी फिल्मों की सबसे सच्ची सशक्त महिला किरदार है. ‘नायिका’ बन कर उभरने के लिए, वो लेखक के पूर्व-नियोजित नाटकीय दृश्यों की मोहताज़ नहीं है, ना ही अविनाश उसे कभी इतना असहाय और कमज़ोर पड़ने ही देते हैं. गुंडों से भागते-भागते थककर, जब वो हाथ में टूटी चप्पल पकड़े रेलवे स्टेशन पर भटक रही होती है, तब भी उसे कहीं से भी कमज़ोर आंकने की गलती आप नहीं करते! उसके ताव बनावटी नहीं हैं, उसकी ताप ढुल-मुल नहीं है.

पिछले साल की ‘पिंक’ ने जिस ‘ना’ की आग को बड़ी बेबाकी से परदे पर हवा दी थी, अविनाश दास की ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ उसी आग को एक बार फिर धधका देती है, पर इस बार पहले से कहीं ज्यादा बेख़ौफ़, बेपरवाह और झन्नाटेदार तरीके से! अविनाश एक नयी धारदार आवाज़ की तरह अपने शब्दों, अपने चित्रों और अपने किरदारों के साथ आपको हर पल बेधते रहते हैं. फिल्म बनाते वक़्त अक्सर बड़े-बड़े नामचीन निर्देशक फ्रेम सजाने का मोह छोड़ नहीं पाते. ‘रियल’ गढ़ने के दबाव में, परदे पर कुछ बेतरतीब भी दिखाना हो, तो थोड़ा सलीके से. पर अविनाश इन बन्धनों से मुक्त दिखते हैं. उनका एक किरदार जब दूसरी महिला किरदार से बदतमीज़ी कर रहा होता है, जब कुछ इतना बेरोक-टोक होता है कि आप अन्दर से दहल जाते हैं. मुट्ठियाँ अपने आप भींच जाती हैं. मल्टीप्लेक्स के ज़माने में, ऐसा कभी-कभी ही होता है. इस एक फिल्म में कई बार होता है.

अनारकली ऑफ़ आरा’ में स्वरा भास्कर एक ज्वालामुखी की तरह परदे पर फटती हैं. अपने किरदार में जिस तरह की आग और जिस तरीके की बेपरवाही वो शामिल करती हैं, उसे देखकर आप उनके मुरीद हुए बिना रह नहीं सकते. ये उनका तेज़-तर्रार अभिनय ही है, जो इस फिल्म के ‘साल के सबसे पावरफुल क्लाइमेक्स’ में आपके रोंगटे खड़े कर देता है. अनारकली का ‘तांडव’, अभिनेत्री के तौर पर स्वरा भास्कर का ‘तांडव’ है. इसके बाद अब शायद ही आप उनके अभिनय-कौशल को शक की नज़र से देखने की भूल करें! स्वरा का अभिनय अगर ‘एक्टिंग’ के सिद्धांत को मज़बूत करता है, तो पंकज त्रिपाठी अपने तीखे और तेज़ प्रतिक्रियात्मक अभिनय से चौंकाते और गुद्गुदाते रहते हैं. नाच-नौटंकी में मसखरे सूत्रधार की भूमिका में उनका आत्म-विश्वास खुल के और खिल के सामने आता है. उन्हें परदे पर देखते हुए उनकी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि का ख्याल कर के, आप उनके प्रति आभार और सम्मान से भर उठते हैं. संजय मिश्रा का अभिनय इन सबमें सबसे नाटकीय लगता है, अपने ‘कैरीकेचर’ जैसे किरदार की वजह से!

आखिर में, ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ तरह-तरह के (अच्छे, बुरे) मर्दों से भरी एक ऐसी गज़ब की फिल्म है, जिसमें एक औरत ‘नायिका’ बन के उभरने का इंतज़ार नहीं करती, और ना ही ‘नायिका’ बनने के तुरंत बाद वापस अपने ढर्रे, अपने सांचे, अपने घोंसले में लौट जाने का समझौता! अविनाश दास से शिकायत बस एक ही रहेगी कि काश, ये फिल्म, अपनी पृष्ठभूमि और बोल-चाल, लहजे की वजह से, भोजपुरी भाषा में बनी होती या बन पाती! कम से कम, उस डूबते जहाज़ के हिस्से एक तो मज़बूत हाथ आता, जो उसे अकेले किनारे तक खींच लाने का दमख़म रखता है! (4/5)

Friday, 17 March 2017

ट्रैप्ड: हिंदी सिनेमा का एक नया अध्याय! [4/5]

दो दुनिया है यहीं कहीं, इक अदृश्य रेखा से बंटी-कटी. जब आप इधर नहीं होते, तो उधर होते हैं; उधर नहीं तो पक्का इधर. एक दुनिया, जहां बहरे होते जा रहे हैं हम. जरूरतों के पीछे की अंधाधुंध दौड़ में, मानवीय संवेदनाओं को सुनने-समझने-देखने की ताकत खोते जा रहे हैं. भीड़ का शोर दूसरी दुनिया से आ रही उस एक अदद आवाज़ को हमारे कानों तक पहुँचने ही नहीं देता, जिस से जुड़ कर हम खुद को ही खोने से बचा सकते हैं. इस दुनिया में, कानों पे एक अलग ही किस्म का रेडियो चिपका रक्खा है हम सभी ने, फरमाईशी फ़िल्मी संगीत का छलावा जिसमें जोरों से थाप दे रहा है. यहाँ अपनी अपनी छतों पे चढ़ कर आसमान में आँखें बोने का चस्का तो सभी को है, पर मदद की गुहार में ज़मीनी सतह से उठते दूसरी दुनिया के हाथ चाह कर भी हमें दिखाई नहीं देते.

मजेदार है कि दूसरी तरफ भी हमीं हैं. इस भीड़ भरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाने का डर पाले, बंद कमरे के अन्दर से दरवाजे पीटने, खिड़कियों की सलाखें पकड़ के ‘बचाओ-बचाओ’ चीखने को मजबूर. जाल और जंजाल तो दोनों ही तरफ हैं, मगर इस दुनिया का संघर्ष तोड़ कर रख देता है. सामाजिक मान्यताओं के खंडन से लेकर व्यक्तिगत पराक्रम की पराकाष्ठा तक, सब कुछ अपने चरम पर. विक्रमादित्य मोटवाने की ‘ट्रैप्ड’ एक ऐसी ही सशक्त फिल्म है, जो एक बंद कमरे के सीमित दायरे में घुटती, लड़ती, जूझती और अंततः जीतती जिन्दगी के हौसले का सम्पूर्ण सम्मान और सत्कार करती है. हॉलीवुड में भले ही आपने ‘127 आवर्स’ या ‘बरी’ड’ जैसी फिल्में बहुत देखी हों, हिंदी सिनेमा में इस तरह का प्रयास अपनी तरह का एकलौता है, और बेहतरीन भी.

मुंबई जैसे महानगर में शौर्य (राजकुमार राव) जैसे नौकरी-शुदा प्रेमियों के लिए शादी की पहली शर्त, रहने का एक अच्छा ठिकाना ही होती है. नूरी (गीतांजलि थापा) अब उसके दोस्तों की जमात वाले एक कमरे के फ्लैट में तो रहने से रही. खैर, जुगाड़ काम आया और शौर्य को 35वें फ्लोर पर एक सही फ्लैट मिल गया है. भीड़-भाड़ वाला इलाका है, पर बिल्डिंग एकदम सुनसान. कानूनी मामलों में फँसी ऐसी बियाबान इमारतें मुंबई जैसे महानगरों में हैरत की बात नहीं, पर किसे अंदाज़ा था कि अगली ही सुबह जब शौर्य गलती से अपने ही फ्लैट में कैद हो जाएगा, तो उसके लिए वहाँ से निकलने में दो-चार घंटे, या एक-दो दिन नहीं, पूरे 21 दिन लग जायेंगे? मैं जानता हूँ, आप इस एक लाइन के ख़त्म होते-होते तक अपने उपायों, सवालों और सुझावों की लम्बी फेहरिस्त के साथ तैयार हो जायेंगे कि ऐसा होना किस हद तक नामुमकिन है, खास कर मुंबई जैसे शहर और आजकल के प्रबल तकनीकी दौर में? पर विक्रमादित्य मोटवाने जैसे ठान कर बैठे हों कि आपको मनवा के ही छोड़ेंगे. और उनकी इस कोशिश में उनका पूरा-पूरा साथ देते हैं राजकुमार राव. उनकी झल्लाहट हो, डर हो, खीझ हो, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की जिद हो या फिर नाउम्मीदी में टूट कर बिखरने और फिर खुद को समेट कर उठ खड़े होने का दम; राव अविश्वसनीय तरीके से पूरी फिल्म को अपने मज़बूत कंधे पर ढोते रहते हैं. फिल्म की दमदार कहानी, अपने सामान्य से दिखने वाले डील-डौल की वजह से राव पर हमेशा हावी दिखाई देती है, जिससे दर्शकों के मन में राव के किरदार के प्रति सहानुभूति का एक भाव लगातार बना रहता है, पर धीरे-धीरे जब राव अपने ताव बदलते हैं, फिल्म उनकी अभिनय-क्षमता के आगे दबती और झुकती चली जाती है.

ट्रैप्ड’ की सबसे बड़ी खासियत है, एक ही लोकेशन पर सिमटे रहने के बावजूद आपको घुटन महसूस नहीं होने देती. आप खुद भी उस एक कमरे से बाहर निकलने की राह जोहते रहते हैं, पर ऐसा सिर्फ उस किरदार से जुड़ाव की वजह से होता है. बहरी बाहरी दुनिया का ध्यान खींचने के लिए, जब जब शौर्य कोई नयी जुगत लगाता है, आप उसके लिए तालियाँ पीटते हैं, पर जब कुछ भी काम नहीं आता, आप ही उसके साथ झल्लाते भी हैं. मोटवाने अपने लेखकों के साथ मिलकर इतनी मुस्तैदी से सारा ताना-बाना बुनते हैं कि शिकायत करने को ज्यादा कुछ रह नहीं जाता. घर को आग के हवाले कर देने से लेकर, खून से तख्तियां लिख-लिख कर बाहर फेंकने, यहाँ तक कि टीवी को खिड़की से नीचे गिराने तक की सारी जद्दो-जेहद आपको इस ‘बिना इंटरवल की फिल्म’ में शुरू से लेकर अंत तक कुर्सी से बांधे रखती है.

आखिर में; ‘ट्रैप्ड’ भारतीय सिनेमा में ‘सर्वाइवल ड्रामा’ का एक नया अध्याय बड़ी ईमानदारी और पूरी शिद्दत से लिखती है. किशोरावस्था की चुनौतियों से लड़ते ‘उड़ान’ और सिनेमाई परदे की क्लासिक प्रेम-कहानियों को श्रद्धांजलि देती ‘लुटेरा’ के बाद; विक्रमादित्य मोटवाने की ये छोटी सी फिल्म हिंदी सिनेमा के बड़े बदलाव का एक अहम् हिस्सा है. एक ऐसी फिल्म, जिस पर फ़िल्मी दर्शक के रूप में आपको भी नाज़ होगा. कुछ ऐसा जो आपने हिंदी सिनेमा में पहले कभी नहीं देखा; तो जाईये, देख आईये! [4/5]

Sunday, 12 March 2017

बद्रीनाथ की दुल्हनिया: बेटे पढाओ, बेटी बचाओ! [2/5]

दुल्हन शादी के मंडप में दूल्हे को सजा-सजाया छोड़ के भाग गयी है. पढ़ी-लिखी है, उसे ‘क्लौस्ट्रोफ़ोबिया’ का मतलब अच्छी तरह पता है. एक साल बाद खबर आई है कि लड़की मुंबई में कहीं है. लड़का अब भी हाथ भर का मुंह लटकाए, थूथन फुलाए सड़क पर बाइक का एक्सीलेटर चांप रहा है. पिताजी हैं बड़का विलेन टाइप. फरमान सुना दिये हैं कि लड़की को उठा लाओ, हवेली के चौखटे पे लटका देंगे ताकि पता तो चले, बेइज्ज़ती का ज़ायका होता कैसा है? लड़का भी अपने झाँसी का ही है, ‘जो आज्ञा, पिताजी’ बोल के निकल पड़ा है. खैर, दुल्हनिया बद्रीनाथ की हो या केदारनाथ की, पिक्चर तो करन जौहर की ही है ना! तो भईया, आखिर में होना वही है, क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते लड़के में बदलाव के लक्षण इतने तेज़ी से चमकाई देते हैं जैसे फिल्म नहीं, गोरा बनाने वाली फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन चल रहा हो. और लड़की? लड़कियों के लिए तो भाई आजकल सब माफ़ है. हम और आप होते कौन हैं, उनके इंटेंट और ‘चेंज ऑफ़ इंटरेस्ट’ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने वाले?

हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’ के तर्ज़ पर ही, लेखक-निर्देशक शशांक खेतान एक बार फिर आपका परिचय छोटे शहरों के मिडिल-क्लास घरों-परिवारों के बड़े अपने से लगने वाले किरदारों से कराते हैं. तेज़-तर्रार बाप (रितुराज सिंह) के आगे कोई अपनी मर्ज़ी से चूं तक नहीं कर सकता. भाभी (श्वेता बासु प्रसाद) पढ़ी-लिखी होने के बावज़ूद, जॉब करने जैसी फालतू बात सोच भी नहीं सकती. और लड़के तो एक नम्बर के मजनूं. दूसरे की शादी में अपने लिए लड़की पसंद कर आते हैं, वो भी दुल्हन की सबसे क़रीबी. नहीं, नहीं, वो पीछे वाली सांवली-सलोनी नहीं, आगे वाली गोरी-चिट्टी, जो बाकायदा स्टेप मिला-मिला के डांस कर लेती हो. फिर ‘वो तेरी, ये मेरी, इसको तू रख ले, उसको मुझे दे दे’, और उसके बाद लड़की (आलिया भट्ट) के आगे-पीछे चक्कर लगाने का खेल.  वैसे ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ बड़े ठीक मौके पर सिनेमाघरों में आई है. भाजपा जल्द ही उत्तर प्रदेश में ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड’ का गठन करने वाली है. अपनी थेथरई, बेहयाई और अकड़ की वजह से, उनके लिए बद्रीनाथ (वरुण धवन) जैसे आशिक़ एकदम सटीक बैठते हैं, जिनको लड़कियों की ‘ना’ सुनाई ही नहीं देती, जिनके ताव के आगे क्या झाँसी, क्या सिंगापुर, सब बराबर हैं, और जिनको लड़की पर धौंस जमानी हो, तो ‘मेरा बाप कौन है, पता है?” जैसे जुमले उछालने खूब आते हों.   

लड़का-लड़की के बीच का भेदभाव हो, समाज की कुंठित-कुत्सित पितृसत्तात्मक व्यवस्था हो या फिर दहेज़ की समस्या; फिल्म पहले तो बड़ी समझदारी से उन पर व्यंग्य कसती है, हंसती है-हंसाती है, पर कहीं-कहीं उनका मखौल उड़ाने की जल्दबाजी में अपनी कमजोरियां, अपनी उदासीनता भी जग-जाहिर कर बैठती है. झाँसी के लड़के ‘मोलेस्टेशन’ का मतलब भी नहीं जानते, पर जब उन्हीं के साथ (जी हाँ, मर्दों के साथ भी होता है) ऐसी स्थिति बनती है, तो समझदार, सेंसिटिव वैदेही भी मुंह दबा कर हंसती नज़र आती है. वहीँ बदला हुआ बद्री जब अपने परिवार के बारे में टीका-टिप्पणी करता है, “वैदेही तो यहाँ घुट-घुट के मर जाती!’, उस मूढ़ को सामने खड़ी अपनी भाभी नज़र भी नहीं आतीं, जिनकी हालत और हालात वैदेही से कहीं कमतर नहीं. ‘चैरिटी बिगिन्स एट होम’ उसने शायद सुना भी नहीं होगा!

फिल्म अपने पहले हिस्से में बड़े भोलेपन और सादगी के साथ, भारतीय मर्दों के जंग लगे अहं और भारतीय स्त्रियों के बदलते ‘मेरी आजादी, मेरा ब्रांड’ सुर के बीच के टकराव को सामने लाती है, पर मध्यांतर के तुरंत बाद सब उलट-पुलट और गड्डमगड्ड हो जाता है. किरदार अपने रंग छोड़ने लगते हैं. कहानी ढर्रे पर उतरती चली जाती है, और अंत तक पहुँचते-पहुँचते तो सब कुछ ‘बॉलीवुडाना’ हो जाता है. सही को सही कहने के लिए, गलत को गलत ठहराने के लिए ‘बोतल’ की भूमिका अहम हो जाती है, और अंत तो तभी सुखद होगा ना, जब लड़का-लड़की मिलेंगे और ‘शादी’ होगी. ताज्जुब होता है कि ऐसी फिल्म करन जौहर के बैनर से निकलती है, जो खुद ‘शादी’ को इतनी अहमियत नहीं देते और अभी-अभी अविवाहित रहते हुए सरोगेसी के जरिये जुड़वाँ बच्चों के पिता बने हैं.

आखिर में, सिर्फ इतना ही कि फिल्म में ‘क्यूटनेस’ कूट-कूट कर भरी है तो मुद्दों को गंभीर हुए बिना नज़रंदाज़ किया भी जा सकता है. हिंदी सिनेमा अब तक बॉक्सऑफिस पर आखिर यही फार्मूला तो भुनाता आया है, सवाल है कि कब तक? हालाँकि इस फिल्म के बद्री को बदलने में महज़ कुछ घंटे ही लगते हैं, जब वो अपने होने वाले बच्चों के नाम ‘विष्णु, सार्थक, रुक्मणि और प्रेरणा’ से बदल कर ‘वैष्णवी, सार्थकी, रुक्मणि और प्रेरणा’ कर लेता है (मैं इसे अति-फेमिनिज्म कहता हूँ), पर हमारे सिनेमा, समाज और सोच को बदलने में जाने कितने और साल लग जाएँ, कौन कह सकता है? [2/5]          

Friday, 24 February 2017

रंगून: ‘इस’ इश्क़ और जंग में सब कुछ जायज़ नहीं! [3/5]

विशाल भारद्वाज की नई-नवेली फिल्म ‘रंगून’ को अमेरिकी क्लासिक ‘कासाब्लांका’ से जोड़ के देखना एक दर्शक के तौर पर शायद आपकी सबसे बड़ी भूल होगी. हालाँकि इसकी पटकथा में कहने को बहुत सारे ऐसे पहलू हैं, जो ‘रंगून’ को ‘कासाब्लांका’ जैसा दिखाने-बताने की होड़ में बेसुध लगे रहते हैं. विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि में प्रेम-त्रिकोण की पेचीदगी उनमें से सबसे ज्यादा करीब भी है, सबसे ज्यादा कामयाब भी. फिर भी कमोबेश, यह विशाल भारद्वाज की औसत फिल्मों (सात खून माफ़, मटरू की बिजली का मंडोला) की लिस्ट में ही एक बड़ा इजाफा करने तक सीमित रह पाती है.

रंगून’ आज़ादी से पहले के भारत का इतिहास टटोलने और उसे दुबारा परदे पर परोसने तक तो बहुत जोश-ख़रोश दिखाती है, पर जब बात दर्शकों के सामने अपने किरदारों के दिल चीर कर रख देने की आती है, तो भारद्वाज बड़ी बेचारगी और मासूमियत से कहानी के साथ घालमेल करने में जुट जाते हैं. गनीमत है कि फिल्म में रंगीली, नशीली, कंटीली कंगना, और पंकज कुमार की दिलकश सिनेमेटोग्राफी एक फ्रेम के लिए भी अपनी जगह, अपनी जिम्मेदारी, अपनी जवाबदेही नहीं छोड़ते!

अपने स्टंट खुद करने में माहिर जूलिया (कंगना रानौत) ’40 के दशक की सबसे मशहूर फ़िल्मी सितारा है, साथ ही कभी मूक फिल्मों के ‘एक्शन-स्टार’ रहे रूसी बिलिमोरिया (सैफ अली खान) के दिल का चैन-सुकून भी. रूसी ने ही जूलिया को फुटपाथ से उठा कर आसमान की बुलंदियों तक पहुँचाया है. दोनों के रिश्ते में जमादार नवाब मलिक (शाहिद कपूर) का आना तब होता है, जब जूलिया को बर्मा में अँगरेज़ फौज के सामने प्रोग्राम करने के लिए तलब किया जाता है. मलिक और जूलिया में बढ़ती नजदीकियों के अलावा, देश में आज़ाद हिन्द फौज की सरगर्मियां भी बढ़ने लगी हैं. देशभक्ति जब हवाओं में घुल कर साँसों में आग फूंक रही हो, प्यार कैसे अछूता रह पायेगा? चेहरों पे चढ़े मुखौटे टूटने लगे हैं. इश्क अपनी ज़द, अपनी हद से पार जाने को मचल रहा है.

‘रंगून’ एक बड़े कैनवास की फिल्म होने का सारा दम-ख़म रखती है. प्रोडक्शन-डिजाईन में छोटी से छोटी बारीकियों की बात हो (फिल्म स्टॉक के ज़माने में रील पर पेन से मार्क करना, मुंबई के पुराने इरोस थिएटर का सेट), या बेहतरीन कैमरावर्क के जरिये फिल्म को ‘क्लासिक’ लुक देने का माद्दा; ‘रंगून’ कहीं से भी कमज़ोर या लचर नहीं दिखती. फिल्म में विशाल भारद्वाज का चिर-परिचित राजनीतिक व्यंग/कटाक्ष भी कम ही सही, पर असरदार तरीके से दिख तो जाता ही है. किरदारों को दिलचस्प बनाने की रटी-रटाई कवायद यहाँ भी साफ़ झलकती है. जूलिया अगर ‘फियरलेस नाडिया’ से अपने ताव, तौर-तरीके अपनाती है, तो वहीँ एक अँगरेज़ जनरल उर्दू शेर-ओ-शायरी का मुरीद निकल जाता है.

अभिनय में कंगना सबसे काबिल बनकर उभरती हैं. आपको याद भी नहीं होगा, पिछली बार कब कोई महिला किरदार परदे पर इतनी सशक्त, जांबाज़, दिलेर और उतनी ही मखमली और मजबूर भी लगी हो! शाहिद की अदाकारी आपको ‘हैदर’ की तरह हैरान तो नहीं करती, पर पूरी तरह मंजी हुई लगती है और कहीं भी परेशान नहीं करती. अपने शाहाना अंदाज़ से, सैफ परदे पर मशहूर हॉलीवुड अभिनेता क्लार्क गेबल की याद दिला जाते हैं. शायरी-पसंद ब्रिटिश आर्मी जनरल की भूमिका में रिचर्ड मैकेब गुदगुदाते रहते हैं.   

इतने सब के बावजूद, ‘रंगून’ एक ही फिल्म में कई फिल्में ठूंसी हुई लगती है. जूलिया अपने आप में एक मुकम्मल कहानी का इल्म कराती है. काश, हम उसे और जान पाते! रूसी-जूलिया-मलिक का इश्किया सफ़र भी ज्यादा वक़्त मांगता है. और अंत में; एक बेहद काबिल वॉर-फिल्म, जिसकी सिर्फ झलक ही आपको पूरी फिल्म में देखने मिलती है, और आप मन मसोस के रह जाते हैं कि बॉलीवुड को उसका ‘सेविंग प्राइवेट रायन’ मिलना अभी दूर लगता है. इश्क़ और जंग की ‘इस’ कहानी में सब कुछ जायज़ तो नहीं है, पर 2 घंटे 50 मिनट की इस महत्वाकांक्षी फिल्म में बहुत कुछ देखने और सराहने लायक है. [3/5]   

Wednesday, 25 January 2017

काबिल: ना‘काबिल’-ऐ-बरदाश्त! [2/5]

संजय गुप्ता की ‘काबिल’ देखते वक़्त अक्सर मिथुन चक्रवर्ती और उनकी कुछ बहुत बेहतरीन फिल्मों की याद बरबस आ जाती है. लगता है, जैसे अभी भी मिथुन दा का ज़माना पूरी तरह गया नहीं. ‘आदमी’, ‘जनता की अदालत’, ‘फूल और अंगार’ जैसी फिल्मों को परदे पर धूम मचाते देखते हुए अभी गिन-चुन के सिर्फ 24-25 साल ही तो गुजरे हैं. भ्रष्ट राजनेताओं और उनके तलवे चाटते पुलिस महकमे से तमाम जुल्म-ओ-सितम का बदला लेने के लिए जब मिथुन दा कमर कस के खड़े होते थे, अचानक जैसे बलात्कार की शिकार उनकी बहन अपनी बहन लगने लगती थी, और अर्जुन, गुलशन ग्रोवर, हरीश पटेल जैसे गुंडे अपने ही जानी दुश्मन. सिनेमा की ताक़त ही यही होती है. पर सवाल सिर्फ इतना है कि अगर उन तमाम फिल्मों को घोर लोकप्रियता के बावजूद आज हम ‘बी-ग्रेड सिनेमा’ की श्रेणी में रखते हैं, तो ‘काबिल’ को भी इस काबिल क्यूँ नहीं समझा जाना चाहिए? या फिर शायद हमें इसके लिये 24-25 साल और इंतज़ार करना होगा.

संजय गुप्ता कोरियाई फिल्मों के मुरीद रहे हैं. गाहे-बगाहे कभी चुरा कर, तो कभी 56 इंची सीने के साथ रीमेक अधिकार खरीद कर उन्हीं फिल्मों को हिंदी में ज्यों का त्यों परोसते रहे हैं. ऐसे में विजय कुमार मिश्रा की तथाकथित ‘ओरिजिनल’ स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने का उनका फैसला ऐतिहासिक माना जाना चाहिए. रोहन भटनागर (हृतिक रोशन) देख नहीं सकता, पर वो सुन सकता है, सूंघ सकता है, स्टूडियो में बिना देखे कार्टून शोज़ की परफेक्ट डबिंग कर सकता है. सुप्रिया (यामी गौतम) भी देख नहीं सकती, पर लिपस्टिक और ऑयलाइनर इस्तेमाल करने में कभी कोई गलती नहीं करती. दोनों एक-दूसरे से बात करते हुए बगल में रखे गमले को एकटक, बिना पलक झपकाए, चौड़ी खुली आँखें से देखते रहते हैं, ताकि आपको उनका ‘न देख पाना’ हमेशा याद रहे. दोनों की हंसती-खेलती जिंदगी में भूचाल तब आता है, जब एक लोकल गुंडा (रोहित रॉय) अपने बाहुबली नेता भाई (रोनित रॉय) की शह पर सुप्रिया का बलात्कार कर देता है. भ्रष्ट सिस्टम के सामने बेबस, लाचार रोहन के पास अपनी बीवी पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए अब सिर्फ एक ही रास्ता है, कानून अपने हाथ में ले लेना.

बलात्कार जैसा घिनौना और ज्वलंत मुद्दा हो या ‘नेत्रहीनों’ के प्रति सही रवैया रखने-दिखाने की कवायद, ‘काबिल’ निहायत ही उदासीनता का परिचय देती है. फिल्म अपनी ओर से तनिक भी कोशिश नहीं करती कि आप इन दोनों मुद्दों से जुड़ने का साहस दिखाएं. सब कुछ बस आपकी अपनी संवेदनशीलता पर टिका रहता है. कहाँ तो आपको इन दोनों किरदारों के लिए ज़ज्बाती होने की सुविधा मिलनी चाहिए थी, पर होता उल्टा है. ऐसा लगता है जैसे संजय गुप्ता की सारी कवायद सिर्फ इस एक बात में लगी रहती है कि ‘नेत्रहीन’ भी फ़िल्मी नायक-नायिकाओं की तरह हर वक़्त सजे-धजे हो सकते हैं. फिल्म अपने पहले हिस्से में अगर आपको किरदारों से जोड़ने में चूक जाती है, तो भी आपको इंटरवल के बाद ये उम्मीद रहती है कि फिल्म अब रोमांचक होने के साथ-साथ थोड़ी समझदार होने की भी हिम्मत दिखायेगी, पर धीरे-धीरे आपको हृतिक में मिथुन की छवि दिखने लगती है, तो ये रही-सही उम्मीद भी टूटती जाती है.

हृतिक रोशन किरदारों में ढल जाने के लिए जाने जाते हैं, और हालाँकि फिल्म में बस वही हैं जो अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में अव्वल रहते हैं (रोनित रॉय ऐसे दूसरे एकलौते कलाकार हैं), पर फिर भी एक साधारण एक्शन हीरो से ज्यादा कुछ कर गुजरने से बचते फिरते हैं. एक अच्छी कहानी होने के बावजूद, अत्यंत सामान्य स्क्रीनप्ले के साथ उनसे इससे ज्यादा की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए. मराठी कार्पोरेटर की भूमिका में रोनित न सिर्फ भयावह लगे हैं, बल्कि एकदम सधे हुए भी. बोल-चाल हो या हाव-भाव, वो अपने किरदार से तनिक भी अलग-थलग नहीं पड़ते. यामी गौतम खूबसूरत लगने के अलावा कुछ और नहीं करतीं. रोहित रॉय ठीक-ठाक हैं, तो नरेन्द्र झा और गिरीश कुलकर्णी प्रभावी.

अंत में, ‘काबिल’ हृतिक के काबिल कन्धों पर टिके होने बावजूद एक इतनी आम फिल्म है, जो न ही आपको इमोशनली जोड़े रखने में कामयाब होती है, न ही इतनी स्मार्ट कि आप अपनी सीट से अंत तक चिपके रहें. मिथुन दा साइकिल की आड़ में छुपकर दुश्मनों की गोलीबारी से बचते रहें? चलता है, पर दुश्मन की थाह पाने के लिए हृतिक पूरे फ्लोर पर चिप्स और पॉपकोर्न बिखेर कर अँधेरे में दुश्मन का इंतज़ार करें? नहीं चलता, बॉस! आप तो कोरियाई ‘रीमेक’ ही बनाओ...ओरिजिनल के नाम पर हमें बस और मत बनाओ! [2/5]          

रईस: सत्तर का सिनेमा+नब्बे का शाहरुख़= मसालेदार मनोरंजन [3/5]

1975 में; सलीम-जावेद की ‘दीवार’ जनवरी महीने के ठीक इसी हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी. 42 साल बाद, राहुल ढोलकिया की ‘रईस’ अगर इतिहास दोहरा नहीं रही, तो कम से कम ‘दीवार’ के साथ हिंदी फिल्मों में नायक के बदलते हाव-भाव और ताव को एक बार फिर उसी जोश-ओ-जूनून से परदे पर जिंदा करने की कोशिश तो पूरी शिद्दत से करती ही है. फिल्म का टाइटल-डिजाईन हो, कहानी के जाने-पहचाने उतार-चढ़ाव हों, नायक के तौर-तरीके, सिस्टम के साथ उसकी उठा-पटक या फिर फिल्म के निर्माण में फरहान अख्तर (जावेद साब के बेटे) की बेहद ख़ास भूमिका; ‘रईस’ में कुछ भी इत्तेफ़ाक नहीं लगता. ‘रईस’ हिंदी फ़िल्म इतिहास के सबसे बाग़ी और जोशीले ’70 के दशक का जश्न कुछ इस ज़ोर-शोर से मनाती है, लगता है जैसे सिनेमा का मौजूदा पर्दा भी 70mm की तरह ही फैलने-खुलने लगा है.

दीवार’ अगर मुंबई अंडरवर्ल्ड के सबसे नामी तस्कर हाजी मस्तान की जिंदगी से अपनी कहानी चुनती है, तो ‘रईस’ गुजरात के अवैध शराब माफिया अब्दुल लतीफ़ के किस्सों के आस-पास ही अपनी जमीन तलाशती है. हालाँकि दोनों ही फिल्में विवादों से बचने के लिए ‘काल्पनिक’ होने की सुविधा का भरपूर लाभ उठाती हैं. गुजरात में शराब पर पाबन्दी है, और ‘पाबन्दी ही बग़ावत की शुरुआत होती है’. कोई धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं. इसी फलसफे पर चलते-चलते, रईस हुसैन (शाहरुख़ खान) शराब की तस्करी के धंधे में आज सबसे बड़ा नाम है. कानून अब तक तो उसकी जेब में ही था, पर जब से ये कड़क और ईमानदार अफसर मजमूदार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) आया है, माहौल में गर्मी थोड़ी बढ़ गयी है. मजमूदार रईस की गर्दन तक पहुँचने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहता, पर रईस हर बार अपने ‘बनिए के दिमाग और मियाँ भाई की डेरिंग’ के इस्तेमाल से बचता-बचाता आ रहा है. चूहे-बिल्ली की इस दौड़ में यूँ तो किसी की भी चाल, कोई भी दांव इतना रोमांचक नहीं होता कि आप जोश-ओ-ख़रोश में सीट से ही उछल पड़ें, पर दोनों किरदारों की कभी ढीली न पड़ने वाली अकड़, लाजवाब एक्शन और वजनदार संवादों के जरिये हर बार आपको लुभाती रहती है.

रईस’ का रेट्रो लुक फिल्म की साधारण कहानी पर किसी भी पल भारी पड़ता है. जमीन से उठकर अंडरवर्ल्ड सरगना बनने का सफ़र, और फिर गरीबों का मसीहा बनकर राजनीति में उतरने का दांव; फिल्म की कहानी में ऐसे उतार-चढ़ाव कम ही हैं, जो आपने देखे-सुने न हों. इतना ही नहीं, ठहरी हुई शुरुआत और सुलझे हुए अंत के दरमियान, फिल्म कुछ इस रफ़्तार से भागने लगती है कि आपके लिए ‘क्या छोड़ें-क्या पकड़ें’ वाली दुविधा पैदा हो जाती है. फिल्म ’70 के दशक में जाने के उतावलेपन में गुजरे ज़माने की खामियों को भी उसी बेसब्री से अपना लेती है, जितनी शिद्दत से उस दौर की काबिल-ऐ-तारीफ़ अच्छाइयां. नायिका (माहिरा खान) को बड़ी समझदारी और सहूलियत से कहानी में किसी खूबसूरत ‘प्रॉप’ की तरह लाया और ले जाया जाता है. गाने के दौरान ही शादियाँ हो जाती हैं, गाने के दौरान ही बच्चे भी और गानों की आड़ में ही दुश्मनों का सफाया!

‘स्टारडम’ के पीछे दुम हिलाती फिल्मों से हम कितने पक और थक गए हैं, इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है ‘रईस’. भले ही औसत दर्जे की कहानी के साथ ही सही, पर परदे पर शाहरुख़ की शानदार शख्सियत को एक जानदार किरदार के तौर पर पेश करने की पहल भर से ही ‘रईस’ अपने नंबर बखूबी बटोर लेती है. पहले ‘फैन’, फिर ‘डियर जिंदगी’ और अब ‘रईस’; शाहरुख़ किसी नौसिखिये की तरह परदे पर अपनी एक बनी-बनाई ‘इमेज’ को तोड़ कर नये सांचे में ढलने की खूब कोशिश कर रहे हैं. ये आज के लिए भी अच्छा है और आने वाले कल के लिए भी. नवाज़ुद्दीन बेख़ौफ़ हवा की तरह हैं, बहते हैं तो देखते भी नहीं कि आगे कौन है, क्या है? परदे पर वो हीरो की तरह स्लो-मोशन में भले ही एंट्री न लेते हों, मार-धाड़ भी न के बराबर ही करते हैं, फिर भी तालियाँ उनके हिस्से में जैसे पहले से ही लिख-लिखा के आई हों. मोहम्मद जीशान अय्यूब पूरी मुस्तैदी से फिल्म के सबसे ठन्डे फ्रेम को भी अपनी अदाकारी से गर्म रखते हैं, चाहे फिर उनके पास देने को ‘रिएक्शन’ के चंद ‘एक्सप्रेशंस’ ही क्यूँ न हों.

आखिर में, राहुल ढोलकिया भले ही तमाम राजनीतिक सन्दर्भों (मुंबई ब्लास्ट, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, गोधरा-कांड) को इशारों-इशारों में पिरो कर फिल्म को एक माकूल जमीन देने की कोशिश करते हों, ‘रईस’ रहती तो एक मसाला फिल्म ही है, जिसके लिये मनोरंजन का बहुत कुछ दारोमदार सत्तर के दशक के सिनेमा और नब्बे के दशक के शाहरुख़ पर टिका दिखाई देता है. अब इससे खतरनाक मेल और क्या होगा? [3/5] 

Tuesday, 17 January 2017

हरामखोर: खुरदरी, बिखरी-बिखरी, पर अच्छी! [3/5]

पटना के प्रोफेसर बटुकनाथ चौधरी, उम्र 55 साल की प्रेम-कहानी अपनी ही एक शिष्या जूली, उम्र 26 साल के साथ, टीवी के समाचार चैनलों पर काफी लोकप्रिय रही थी. देखने वालों से लेकर दिखाने वालों तक, सब अपने-अपने नजरिये से इस औगढ़ प्रेम-कहानी को परंपरागत सामाजिक ढ़ांचे से अलग-थलग करके देखने की जुगत भिड़ा रहे थे. तकरीबन 10 साल बाद, श्लोक शर्मा की ‘हरामखोर’ कुछ इसी तरह की पृष्ठभूमि पर अपनी एक अलग कहानी गढ़ने का साहस दिखाती है. फर्क सिर्फ इतना है कि श्लोक फिल्म या फिल्म के किरदारों के बारे में राय बनाने का हक दर्शकों के जिम्मे छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाते. जहां एक तरफ फिल्म का निहायत ही स्पष्ट टाइटल सीधे-सीधे आपको एक तयशुदा मंजिल की ओर लगातार धकेलता रहता है, वहीँ दूसरी ओर फिल्म की शुरुआत में ही उनका सधा हुआ ‘डिस्क्लेमर’ कहानी कहने-समझने से कोसों पहले ही बचाव की मुद्रा में आ जाता है. मुझे नहीं पता, अगर ऐसा किन्ही सामाजिक संगठनों (सेंसर बोर्ड या बाल कल्याण समिति जैसा कोई भी) के दबाव में आकर किया गया हो.

श्याम (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) अव्वल दर्जे का हरामखोर मास्टर है. अपनी ही एक स्टूडेंट को पटा कर पहले ही बीवी बना चुका है, और अब मंसूबे दूसरी स्टूडेंट संध्या (श्वेता त्रिपाठी) को भी भोगने की है. फ्रस्टियाता है तो स्कूल में बच्चियों को बेरहमी से कूट भी देता है. गिरगिट ऐसा कि जब बीवी सुनीता (त्रिमला अधिकारी) उसे गुस्से में छोड़ कर जा रही होती है, मनाने के लिए जमीन तक पर लोट जाता है. पर अगले ही पल जब उसे थप्पड़ पड़ता है, तो झुंझलाहट में उसी बीवी को गालियाँ बकने लगता है. श्लोक बड़ी आसानी से और बड़ी जल्दबाजी में उसे ‘हरामखोर’ पेश करने में लग जाते हैं, जबकि फिल्म में बड़े ‘हरामखोर’ कद में छोटे और इरादों में कमीने कुछ ऐसे बच्चे हैं, जो बड़ी सफाई से न सिर्फ बड़ों (श्याम-संध्या और सुनीता) के रिश्तों में उथल-पुथल मचाते रहते हैं, बल्कि बड़ी बेशर्मी से उनके किरदारों को कसौटी पर कसने की, उनकी नैतिकता पर फैसले सुनाने की हिमाकत भी खूब करते हैं.

कमल (मास्टर इरफ़ान खान) को भी संध्या से पहली नज़र का प्यार है. कमल को संध्या से मिलाने में मिंटू (मास्टर मोहम्मद समद) हर वक़्त एक पैर पर खड़ा रहता है. उसी ने बताया है कि अगर लड़का-लड़की एक दूसरे को बिना कपड़ों के देख लें, तो उनकी शादी हो जाती है. कमल ने संध्या को देख लिया है, अब सारी मेहनत सफल हो जाये अगर संध्या भी कमल को बिना कपड़ों में देख ले. संध्या बिन माँ की बच्ची है. पिता अक्सर शराब में धुत्त घर लौटते हैं. संध्या जानती है, हर हफ्ते पिता काम-काज का बहाना करके शहर क्यूँ जाते हैं? नीलू जी सिर्फ उसके पिताजी के साथ काम नहीं करतीं, दोनों ने अपना एक अलग आशियाना बना रखा है. पिता की बेरूखी और उनसे कटाव भले ही संध्या के लिये मास्टरजी के चंगुल में फंसने का वाजिब बहाना दिखे, पर संध्या बखूबी और पूरी मजबूती से इस प्यार में खुद को कड़ा और खड़ा रहती है.

'हरामखोर’ उस खांचे की फिल्म है, जहाँ फिल्म का बैकग्राउंड इतना जमीनी है कि आप उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते. टीले पर अगर तेज़ हवा सांय-सांय बह रही है, तो धूल जैसे आपके चेहरे पर पर भी आ रही है, इतना जमीनी. पर श्लोक जहाँ चूकते नज़र आते हैं, वो है उनके किरदारों का ताबड़-तोड़ आपके सामने खुल के बिखर जाना. कुछ इतनी तेज़ी से कि उनसे आपका लगाव हमेशा बनते-छूटते रहता है. फिल्म में बहुत सारे पल ऐसे हैं जो बोल्ड होते हुए भी मजेदार हैं और मजेदार होते हुए भी उतने ही बोल्ड, पर एक बार फिर, एक-दूसरे से इतने कटे-कटे कि लगता है जैसे जिग्सा पजल के कुछ टुकड़े अभी भी बीच-बीच में रखने बाकी हैं.

मुकेश छाबड़ा कास्टिंग में कमाल कर जाते हैं, खास कर बाल कलाकारों और नीलू जी की भूमिका निभाने वाली कलाकार के चयन में. पैंट-बुशर्ट पहनने वाली, लड़कों जैसे कटे बालों में संध्या के पिता की प्रेमिका फिल्म की शायद एकलौती ऐसी कलाकार हैं, जिनके साथ आप धीरे-धीरे जुड़ना शुरू करते हैं, और अंत तक आते-आते उन्ही का एक दृश्य फिल्म का सबसे निर्णायक और सबसे संजीदा बनकर उभरता है. नवाज़ुद्दीन अगर अपने हाव-भाव, तौर-तरीके से गंवई मास्टरजी का एकदम सटीक चित्रण पेश करने में कामयाब रहते हैं, तो श्वेता भी आपको हैरान करने में पीछे नहीं रहतीं. 15 साल की उमर, झिझक, तुनक, छिटक, खनक, सनक; श्वेता संध्या की किरदार से पल भर भी दूर नहीं होतीं. मास्टर इरफ़ान और मास्टर समद फिल्म के सबसे मजेदार दृश्यों को अपने नाज़ुक कन्धों पर बिना किसी शिकन के ढोते रहते हैं. त्रिमला बेहतरीन हैं.

आखिर में; श्लोक शर्मा की ‘हरामखोर’ उस खुरदरे, उबड़-खाबड़ रस्ते जैसी है, जिस से होकर कभी आपने बचपन का सफ़र तय किया होगा. एक बार फिर उन रस्तों पर चलने, न चलने की सुविधा लाख आपके पास हो, बीते वक़्त का जायका चखने का मोह कौन छोड़ना चाहेगा भला? बेहतर होता, अगर कहानी पूरी तरह जीने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचने की सुविधा भी हमारे ही हाथ होती! किरदारों के साथ तसल्ली से जुड़ कर उन्हें ‘हरामखोर’ ठहरा पाने का सुख भी हमारे (दर्शकों के) ही नसीब होता!...और थोड़ी कम अस्त-व्यस्त, कम बिखरी-बिखरी! [3/5]