Saturday, 29 September 2018

सुई धागा: उम्मीदों से छोटी, पर बेहद प्यारी! [3/5]


ज़िन्दगी की चादर में उम्मीदों के पैबंद लगाने हों, या दुनिया भर से लड़ते-झगड़ते, उधड़ने लगे छोटे-छोटे सपने को रफ़ू करना हो, तो सुई-धागे का मेलजोल जरूरी हो जाता है. छोटे शहरों की आँखों में पलने वाले मोटे-मोटे सपनों के साकार होने की कहानी हिंदी फ़िल्मी परदे पर न जाने कितनी बार देखी-दिखाई जा चुकी है. शायद इतनी दफ़े कि अब आपको ये जानने में कोई दिक्कत नहीं होती कि ऊंट किस करवट बैठेगा? खुद यशराज फिल्म्स भी ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी फिल्मों के साथ इस कामयाब चलन का हिस्सा रहा है. शरत कटारिया की ‘सुई धागा’ यशराज फिल्म्स की ही प्रस्तुति है, और एक बेहद प्यारी फिल्म होने के बावज़ूद, कहीं न कहीं दर्शकों के मन में ‘यही होगा’ और ‘यही होना था का दंभ पैदा होने से रोकने में असफल रह जाती है. सूरत-सीरत और स्वभाव में अपनी ही बेहतरीन फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ से अच्छा-खासा मेल खाने के बाद भी, कटारिया फिल्म को बड़ी बेदर्दी से जाने-पहचाने रास्तों पर डाल कर, घिसे-पिटे उतार-चढ़ावों पर लुढ़कने से बचा नहीं पाते.

मौजी (वरुण धवन) और ममता (अनुष्का शर्मा) की कहानी में सुई-धागा सपनों को पाने का उनका एक जरूरी जरिया तो है, पर दूसरी तरफ वो खुद भी अपनी कहानी के सुई-धागा ही है, जिनमें शादी के सालों बाद भी बेहतर तालमेल की गुंजाईश अभी भी बरकरार है. मौजी अपने मालिक के कहने पर कभी कुत्ता, तो कभी गली का सांड बन के उनका मनोरंजन करता है. दिक्कत ये है कि उसे ये सब करने में कुछ गलत भी नज़र नहीं आता, जब तक उसकी बीवी ममता इस बारे में उससे बात नहीं करती. ममता मौजी की तरह नहीं है. समझदार है. मौजी को सपने देखना सिखा रही है. वो सपना, जिसमें वो खुद उसके साथ-साथ चल सके. हाथ पकड़ के. सर उठा के.

शरत कटारिया लोअर मिडिल क्लास की दुनिया को परदे पर जिंदा करने में जैसी बारीकी और काबलियत दिखाते हैं, हालिया दौर में शायद ही कोई और कर रहा हो. वरना फिल्मों का नायक दुकान में बनियान-पजामा पहने बैठा ऑडियो कैसेट्स में गाने रिकॉर्ड करने वाला प्रेम प्रकाश तिवारी या पेड़ के नीचे सिलाई की दुकान लगाए बैठा, कबूतरों को नाम से बुलाने वाला मौजी हो, कितनी बार देखने को मिलता है? अम्मा (यामिनी दास) गुसलखाने में फिसल कर गिर गयी हैं, दर्द में हैं, पर बाल्टी में पानी भरने का अधूरा काम याद दिलाना नहीं भूल रहीं. डॉक्टर कह रहा है, हार्ट अटैक है पर अम्मा को इलाज़ पता है, ‘’रोज सुबह चौक तक पैदल टहलने लगूंगी, हो जायेगा ठीक. बहू को घर लौटने में देर हो रही है, बाऊजी (रघुवीर यादव) अम्मा के लिए खुद रोटियाँ सेंकना शुरू कर चुके हैं. पड़ोसी छोटी सी लड़ाई पर डर कर चिल्ला रहा है, ‘100 नंबर पे फ़ोन लगाओ कोई. बगल वाली नाराज़ चाची समोसे-चाय के बदले सुलह करने पर तैयार हो गयी हैं.

रोजमर्रा की बातचीत वाले मजेदार संवादों, असलियत के करीब-करीब दिखने वाले किरदारों और मिडिल क्लास की दबी-दबी चाहतों से भरा-पूरा माहौल बना कर, कटारिया अपने कलाकारों को अदाकारी का पूरा मौका देते हैं. अभिनय में वरुण की ईमानदारी कोई भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकता. उनकी कोशिशें हर बार कामयाब न भी हों, तब भी उनका असर आप पर कम नहीं होता. अनुष्का कुछ-कुछ दृश्यों में जरूरत से ज्यादा कर जाती हैं, खास तौर पर जहां जहां उनका किरदार फिल्म में ज़ज्बाती होने की तरफ बढ़ता है. आसान पलों में उनकी छवि बेहतर नज़र आती है. रघुवीर यादव बेहतरीन हैं. जाने क्यूँ वो जब भी परदे पर होते हैं, मैं फ्रेम में कहीं हारमोनियम तलाशने लगता हूँ और इस उम्मीद में आँखें चमक जाती हैं, कि अभी उन्हें गाते हुए सुनूंगा. यामिनी दास इस फिल्म की पंकज त्रिपाठी हैं. फरक नहीं पड़ता कि वो फ्रेम में क्या कर रही हैं, फ्रेम में उनका होना भर न सिर्फ गुदगुदाता है, ख़ूब तबियत से माँओं की याद भी दिलाता है.   

‘सुई धागा में शरत कटारिया अपने किरदारों के आँखों में सपने तो बहुत चमकीले, नायाब और वाजिब बुनते हैं, पर जब उन्हें उन सपनों तक पहुंचाने की बारी आती है तो नाटकीयता की रौ में कुछ इस कदर बह जाते हैं कि किरदारों के इमोशन्स से दर्शकों के भरोसे की डोर टूटने लगती है. अपना खुद का कुछ करने के चाह में, मौजी और ममता एक सरकारी सिलाई मशीन पाने के लिए जिस तरह का कड़ा संघर्ष करते हुए दिखाए जाते हैं, जबरदस्ती का और ठूंसा हुआ लगता है. फिल्म का अंत भी आपको बिलकुल चौंकाता नहीं. ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायंगे में फरीदा जलाल सालों से दोहरा रही हैं, ‘सपने देखो, सपने देखने में कोई हर्ज़ नहीं है, कुछ गलत नहीं, बस्स उनके पूरे होने की शर्त मत रखो.’’ काश, ‘सुई धागा अपने सपने पूरे कर लेने की शर्त से बचने पाती, और एक आजमाए हुए अंत की तलाश के बजाय एक बेहतर शुरुआत की तरफ बढ़ पाती!

इन सबके बाद भी, मैं चाहूँगा कि इन किरदारों से आप उन्हीं की चहारदीवारी के भीतर एक बार जरूर मिलें, और देखें...बेटे को बाप से अखबार के दूसरे पन्नों के लिए लड़ते हुए, बाऊजी का बिस्तर पर पड़ी अम्मा को मोबाइल पर उनके पसंदीदा टीवी सीरियल के एपिसोड्स दिखाते हुए, मौजी-ममता के चुराये हुए अन्तरंग पलों में बस के मुसाफिरों को गाने की धुन पर ऐसे लहराते हुए, जैसे खुद बस घुमावदार रास्तों से गुजर रही हो. कई बार सफ़र का मुकम्मल होना इतना अहम् नहीं होता, जितना सफ़र के दौरान बिताये छोटे-छोटे यादगार पलों का जश्न मनाना! [3/5]

Friday, 28 September 2018

पटाखा: चटख किरदार, विस्फ़ोटक अभिनय! [4/5]


सारे रिश्ते हर वक़्त लगाव की चाशनी में डूबे रहें, नहीं होता. सारे रिश्ते हमेशा ही नफरतों की आग में भुनते रहें, ये भी नहीं होता, पर कुछ एकदम अलग से होते हैं. चंपा (राधिका मदान) और गेंदा (सान्या मल्होत्रा) के रिश्ते जैसे. नाम फूलों के, पर अंदाज़ काँटों से भी तीखे, जहर बुझे और नुकीले. जनम से सगी बहनें, लेकिन करम से एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन. भारत-पाकिस्तान जैसे. एक को भिन्डी बेहद पसंद हैं, तो दूसरी भिन्डी का नाम सुनकर ही इस कदर बौखला जाती है कि किसी का खून तक कर दे. एक का सपना ही है अपना खुद का डेरी फार्म खोलना, तो दूसरी को दूध देख के ही मितली आने लगती है. ‘मुक्का-लात ही जिनके लिए मुलाक़ात का बहाना है, और अजीब-ओ-ग़रीब गालियों का सुन्दर प्रयोग आपस की बातचीत का ज्यादातर हिस्सा. आम रिश्तों में जहां प्यार, दुलार और अपनापन जैसे नर्म, नाजुक इमोशन्स अपनी जगह बना रहे होते हैं, यहाँ गेंदा और चम्पा के बीच गुस्सा, जलन, नफरत हावी है. दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहातीं, और कभी-कभी तो लगता है कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जिद में ही अपने किरदारों की पसंद-नापसंद, सपने-उम्मीदें गढ़ती रहती हैं.

विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा अपनी गंवई पृष्ठभूमि, रोचक किरदारों और उनके बीच घटने वाली मजेदार घटनाओं के साथ हिंदी कहानी की चिर-परिचित शैली को परदे पर उकेरने की एक बेहद सफल कोशिश है. विशाल इससे पहले शेक्सपियर और रस्किन बॉन्ड के साहित्य को सिनेमाई रूप दे चुके हैं. इस बार भी, जब वो दर्शकों के लिये चरण सिंह पथिक की एक छोटी कहानी ‘दो बहनें’ को चुनते हैं, मनोरंजन की कसौटी पर कोई चूक नहीं करते. पथिक की कलम हमें राजस्थान के एक छोटे से गाँव का हिस्सा बना रख छोड़ती है, जहां रंग-रंगीले किरदार बड़ी बेपरवाही और घोर ईमानदारी से अपने खालिस ज़ज्बातों की पूरे शोर-शराबे के साथ बयानबाज़ी करते हैं. विशाल बेशक इसे नाटकीय और भरपूर मनोरंजक बनाने में बखूबी अपना योगदान देते हैं. बेटियों को बीड़ी न फूंकने की सलाह देते हुए बापू (विजय राज) कहता है, “बापखाणियों की! बच्चेदानी झुलस जावेगी, बाँझ बन के रह जाओगी. कौन करेगो ब्याह?’’ गेंदा के पास अलग सवाल है, “पड़ोस की ताई ने तो खो-खो की टीम जन दी, 5 साल की थी, तब से फूंके हैं बीड़ी. वो तो न हुई बाँझ”. लड़ाई सिर्फ जबान तक नहीं रहती, चम्पा और गेंदा जब एक-दूसरे का झोंटा पकड़-पकड़ के लड़ती हैं, पूरा गाँव देखता है और वो ये तक नहीं देखतीं कि बीच-बचाव कराने आया उनका बापू भी धक्के से गिरकर गोबर में लोट रहा है.

‘पटाखा अपने आप में एक अलग ही दुनिया है. यहाँ शादियों के फैसले पत्थर को टॉस की तरह उछाल कर किये जाते हैं. थूक से गीला हिस्सा आने पर बड़की का ब्याह, सूखा आया तो छोटकी का. गाँव के रंडवे पटेल की बहू नेपाली है, दाम देकर ब्याही गयी है. गालियों, गंदगियों और मार-पीट, लड़ाई-झगड़े से भरी एक ऐसी दुनिया, जो सुनने में काली भले ही लग रही हो. देखने में एकदम रंगीन है. ईस्टमैन कलर जितनी रंगीन. ऐसी दुनिया, जिसमें जाने से आपको कोई गुरेज न हो. इसका काफी सारा क्रेडिट किरदारों में हद साफगोई और उन किरदारों में जान फूंकते कुछ दिलचस्प, काबिल अदाकारों के अभिनय को जाता है. गेंदा के किरदार में जब सान्या पागलों की तरह परदे पर उछलती हैं, ‘दंगल’ वाले अक्खड़, पर बंधे-बंधे से किरदार की खाल भी टूट कर चकनाचूर हो जाती है. फिल्म के दूसरे हिस्से में शादीशुदा गेंदा तो और भी ज्यादा प्रभावित करती है, खासकर अपने डील-डौल और हाव-भाव में संजीदगी ले आकर. राधिका मदान चम्पा के किरदार में जिस बेपरवाही से घुसती हैं, परदे पर किसी विस्फ़ोट से कम अनुभव नहीं होता उन्हें देखना. दागदार दांतों से निचला ओंठ दबाते, उनकी शरारती आँखों की चमक देर तक याद रह जाती है. न थमने-न रुकने वाली शुरूआती लड़ाईयों से लेकर आखिर में ह्रदय-द्रवित कर देने वाले उलाहनों और तानों के मार्मिक दृश्य तक, दोनों का पागलपन एक-दूसरे को टक्कर भी देता है, और एक-दूसरे का पूरा साथ भी.

‘पटाखा में सुनील ग्रोवर भी खासे चौंकाते हैं. एक तरह फिल्म के सूत्रधार भी वही हैं. नारद मुनि की तरह बीच-बीच में आते हैं और फिल्म को एक नया रुख देकर निकल लेते हैं. दोनों बहनों के साथ उनका रिश्ता अनाम ही है, पर शायद सबसे ज्यादा करीबी. दोनों जब लड़ती हैं, तो टिन का डब्बा पीट-पीट कर नाचता है, जब शांत रहती हैं तो लड़ने के लिए उकसाता है. फिल्म के होने की वजह में इस ‘डिपर’ का होना भी उतना ही ख़ास है, जितना चंपा-गेंदा का. परेशान पिता की भूमिका में विजयराज सटीक हैं. यह भूमिका निश्चित तौर पर उनकी सबसे जटिल है. अपने हाव-भाव में विजयराज इस बार अपनी उस जानी-पहचानी, लोकप्रिय छवि से भी दूर रहने की कोशिश करते हैं, जहां उनके अभिनय में रस अक्सर उनके हाज़िर-जवाब, लच्छेदार संवादों का मोहताज़ रहती है.

आखिर में, ‘पटाखा किसी हज़ार-दस हज़ार की लड़ी जितनी ही मजेदार है. एक बार फटनी शुरू होती है, तो ख़तम होने का नाम ही नहीं लेती. हालाँकि कभी कभी दिक्कत का सबब भी वही बन जाती है. विशाल अक्सर बीच-बीच में ट्रम्प-मोदी, भारत-पाकिस्तान, इजराईल-फ़िलिस्तीन जैसे रूपकों के साथ, राजनीतिक व्यंग्य और राष्ट्रीय सरोकार के प्रति अपना प्रेम दर्शाते रहते हैं, लेकिन मैं इसे सीधे-सादे तौर पर ‘एक अजीब से रिश्ते की एक गज़ब ज़ज्बाती कहानी’ ही मान कर देखना पसंद करूंगा, जहां कहानी का चरमोत्कर्ष आपका दिल भर दे, और आँखें नम कर दे. [4/5]                  

Friday, 21 September 2018

मंटो: तीखे सवाल, जरूरी फिल्म! [3.5/5]


सआदत हसन मंटो उर्दू अदब के सबसे सनसनीखेज अफसाना-निगार (लेखक) तो पहले से ही माने जाते रहे हैं, इधर कुछेक दशकों से उनकी शोहरत नयी पीढ़ी के पढ़ने-लिखने वालों में ख़ासी बढ़ी है. मंटों की जिंदगी पर बनी नंदिता दास की ताज़ातरीन फिल्म ‘मंटो देखते वक़्त, सिनेमाहॉल में मेरे ठीक पीछे एक महीन आवाज़ उभरती है, “ओह, आई लव मंटो.” मुझे नहीं पता, सासाब (उनकी बीवी सफिया उन्हें फिल्म में अक्सर इसी नाम से पुकारती हैं) के लिये इन मोहतरमा के इस ‘क्रेज की ज़मीन क्या है? असल जिंदगी में उनके बाग़ी तेवर, दुनिया को लेकर उनका अक्खड़ रवैया या फिर उनकी कहानियों में गाढ़े सच्चाई की डरावनी शक्ल? या कुछ और? खैर! वजह जो कुछ भी हो, मंटो की अहमियत जेहनी तौर पर आज भी उतनी ही पुख्ता है, जितनी तब, जबके वो खुद जिस्मानी तौर पर दुनिया में, दुनिया भर से लड़ने-भिड़ने को मौजूद रहे थे.

कम पैसे देकर कॉलम छापने वाला प्रिंटिंग-प्रेस का मालिक मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) को मशवरा दे रहा है, “घर जाईये, लिख कर कल ले आईयेगा.” मंटो बोतल से शराब गले में गटकते हुए फरमाते हैं, “20 रूपये के लिए मैं तुम्हारे दफ्तर के दो चक्कर लगाऊँगा?” जबान की हद साफगोई और तेवर में तलवार की धार लिए मंटो दोस्तों के बीच बैठे-बैठे साफ़ कर देते हैं, “अगर मेरे अफसाने आपको बर्दाश्त नहीं, तो फिर ये दुनिया ही नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है”. मंटो से रूबरू कराने के लिए नंदिता उनकी जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा ही परदे पर जिंदा करती हैं. आज़ादी से कुछेक साल पहले की बम्बई, और आजादी के ठीक बाद का लाहौर. पहला हिस्सा वो दौर है, जब कहानी लिखने वाले अपने किरदारों की तलाश में जिंदगी के अंधेरों से टकराने में मशरूफ़ रहते थे. कृशन चंदर और इस्मत चुगताई (राजश्री देशपांडे) के साथ बम्बई में कॉफ़ी पीते हुए मंटो इस्मत आपा के ‘लिहाफ़’ के आखिरी हिस्से को ‘मामूली होने के लिए कोस रहे हैं. फ़िल्मी पार्टियों में ख़ास दोस्त श्याम (ताहिर राज भसीन) के साथ व्हिस्की के पैग टकराते हुए मज़ाक में के. आसिफ से उनकी नयी फिल्म स्क्रिप्ट पर राय देने की फीस मांग रहे हैं. वहीँ जद्दन बाई (इला अरुण) बेटी नर्गिस के साथ महफ़िल की शान में, अशोक कुमार (भानू उदय) के कहने पर नज़्म सुना रही हैं.  

...मगर जल्द ही मंटो साब का उनके अपने शहर मुंबई से नाता टूटने वाला है. चारों तरफ बस ‘हिन्दू-मुसलमान’ और ‘हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का शोर है. सासाब दो-दो टोपियाँ आजकल अपने साथ रखने लगे हैं, हिन्दू की अलग, मुसलमान की अलग. ‘जब मज़हब दिलों से निकल कर सिर पर चढ़ जाए, तो कोई कुछ और करे भी तो क्या?’. लाहौर की गलियाँ तो और संकरी हैं. उनकी कहानियों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. उन्हें ‘अश्लील होने के इल्जामों से नवाज़ा जा रहा है. मंटो साब से लिखा नहीं जा रहा. लिखें तो भी क्या, खून-खराबा, क़त्ल-ओ-गैरत और इनके बीच घुटता इंसानियत का दम? शराब कम से कम शरीर तो गरम रखती है. एक कहानीकार के तौर अपनी जिम्मेदारियों और आस-पास की सड़ांध मारती दुनिया के दोगलेपन के बीच पिसते मंटो साब के तेवर मंद पड़ने लगे हैं, मगर कौन कह सकता था कि 70 साल बाद मंटो के सवाल आज भी उतने ही तीखे लगेंगे?  

नंदिता न सिर्फ 40 के दशक का बम्बई और लाहौर बड़ी ख़ूबसूरती से परदे पर रौशन करती हैं, बल्कि उतनी ही समझदारी से मंटो की असल जिंदगी और उनकी कुछ मशहूर कहानियों की दुनिया के बीच का फर्क मिटा देती हैं. ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो, ‘तोबा टेक सिंह’ और ‘दस रूपये जैसी कहानियों के बीच मंटो अपनी असल जिंदगी से चलते-चलते कुछ इस तरह दाखिल होते हैं, मानो उनकी भी जिंदगी उतना ही अफसाना हो, या फिर वो तमाम अफ़साने उन्हीं की जिंदगी के कुछ और सफहे. पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में मंटो की ज़िन्दगी और उनकी कहानियों पर आधा दर्ज़न फिल्में बन चुकी हैं, पर नंदिता अपने ‘मंटो को जिस दिलचस्प और रोमांचक तरीके से परदे पर पेश करती हैं, हर दृश्य आपको बांधे रखने में कामयाब रहता है. इसमें कुछ हद तक नंदिता का वो प्रयोग भी शामिल है, जिसमें वो छोटे से छोटे किरदार के लिए भी जाने-पहचाने चेहरों का चुनाव करती हैं. यही वजह है कि फिल्म में आप जावेद अख्तर, दिव्या दत्ता, चन्दन रॉय सान्याल, तिलोत्तमा शोम, पूरब कोहली, रनवीर शौरी, नीरज कबी, परेश रावल, गुरदास मान, ऋषि कपूर, इला अरुण, विनोद नागपाल, शशांक अरोरा जैसे दर्जन भर कलाकारों को देख कर चौंक जाते हैं.

‘मंटो में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में हैं, जहां उनकी मौजूदगी किरदार पर हर पल हावी होती दिखाई देती है. उनके मंटो को याद करते वक़्त शायद आप के ज़ेहन में जो चेहरा उभरे, वो सिद्दीकी की पिछली फिल्मों के किरदारों के इर्द-गिर्द ही हो, पर इसका ये मतलब नहीं निकला जाना चाहिए कि उनसे ‘मंटो’ करते वक़्त किसी तरह की कोई गुंजाइश बाकी रह जाती है. फिल्म के आखिरी हिस्सों में वो थोड़ा उंचाई तक जाते ज़रूर हैं, पर मंजिल दूर ही रह जाती है. स्वेत/श्याम फिल्मों के मशहूर अदाकार सुन्दर श्याम के किरदार में ताहिर परदे पर अपना करिश्मा ख़ूब बिखेरते हैं. रसिका दुग्गल मंटो की पत्नी सफिया के किरदार में जान फूँक देती हैं. इस्मत चुगताई बनी राजश्री और अशोक कुमार बने भानू उदय पूरी तरह रोमांचित करते हैं.

आखिर में; ‘मंटो हालिया दौर में एक बेहद जरूरी फिल्म है, जो कुछ ऐसे चुभते सवालों के साथ आपका ध्यान खींचती है, जिनका सीधा सीधा लगाव देश, देश में रहने वाले लोगों, उनकी आवाज़, उनकी आज़ादी और साथ ही, देश और धर्म से जुड़े ढेर सारे कुचक्रों से है. सच्चाई क्यूँ न कही जाए, जैसी की तैसी? मंटो हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दू-मुसलमान और श्लील-अश्लील जैसे दायरों में कैद हो सकने वालों में से नहीं थे. इस फिल्म को भी ऐसे किसी भी दायरों से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है. [3.5/5]                      

Friday, 14 September 2018

मनमर्ज़ियाँ: प्यार का लेटेस्ट वाला वर्जन! [3.5/5]


ये दौर है फेसबुक, व्हाट्स एप्प, टिंडर, ट्वीटर का, और इन जैसे तमाम एप्प्स को धड़ल्ले से इस्तेमाल करने वाली नई पीढ़ी का, जो अपने आप को लगातार बदलते रहने, अपडेट रखने में कतई कोताही नहीं बरतती. फिर प्यार क्यूँ अपने पुराने ढर्रे पर ही घिसटता रहे? फिर बॉलीवुड की प्रेम-कहानियों को भी क्यूँ कर ठोक-पीट उनके पुराने दड़बे में ही कैद रखा जाये? तो, अब प्यार का नया संस्करण बाज़ार में आ गया है. प्यार 2.0 यानी ‘फ़्यार’- सिमरनें अब राज से ‘शादी से पहले वो नहीं’ का वादा नहीं लेतीं, राज ‘हिन्दुस्तानी लड़की की इज्ज़त क्या होती है जानने का दम नहीं भरता. जबरदस्ती शादी के लिए माँ-बाप, परिवार की दुहाई देने पर लड़की भावुक होकर चुपचाप मेहंदी की डिज़ाइन पसंद करने नहीं बैठ जाती. मंडप तक जाने का फैसला अब सिर्फ उसका है, चाहे ऐसा करते उसकी अपने साथ ही, अपने अन्दर ही कितनी ज़ज्बाती लड़ाई क्यूँ न चल रही हो? समाज का रवैया भले नहीं बदल रहा हो, किरदार चुपके चुपके ही सही, बदल रहे हैं. उनकी कहानियाँ बदल रही हैं. और ‘मनमर्ज़ियाँ’ के साथ अनुराग कश्यप भी. ‘काले’ सैयां के इश्क़ का रंग अब ‘ग्रे’ हो गया है. बदलाव के नाम पर इतना बहुत है, अब पूरा सफ़ेद होने की उम्मीद मत लगा बैठियेगा. ज्यादा हो जायेगा.

‘मनमर्ज़ियाँ अपने आप में बहुत ढीठ लफ्ज़ है. गलत-सही सोचने और समझ आने से बहुत पहले मन जो कहे, कर जाना. रूमी (तापसी पन्नू) का किरदार इस लफ्ज़ के बिलकुल पास बैठता है. एकदम घेर के. ठीक सट के. ‘एक बार बोल दिया तो पीछे नहीं हटती के ग़रूर में अपने सच्चे प्यार विक्की (विक्की कौशल) को अल्टीमेटम दे आई है. ‘कल अगर घर पे हाथ मांगने नहीं आया, तो अगले दिन घर वाले जहां कहेंगे, शादी कर लूंगी. तैश में सोचती भी नहीं, पर ऐसा नहीं कि समझती भी नहीं. विक्की जिम्मेदारियों के नाम पर टें बोल जाता है. बनना तो ‘यो यो हनी सिंह है, पर अभी तक दूसरों के गानों का ही रीमिक्स बजाता रहता है. रूमी के कहने पर साथ भाग तो आया है, पर कोई ठोस प्लान नहीं. पहले भी कर चुका है, रूमी एबॉर्शन के बाद रिक्शे पर बैठ कर अकेले घर गयी थी. रॉबी (अभिषेक बच्चन) को कोई जल्दी नहीं. हनीमून के वक़्त भी, शादी के बाद भी. ‘रामजी टाइप का आदमी है. न कुछ पूछता है, न ही रूमी पर मर्दाना हक़ जताने की कोई तलब है उसको. तेज़ आवाज में बोलने को भी, उसको चार पैग लगते हैं. बैंकर है, तो जानता है कि इस इन्वेस्टमेंट में रीटर्न की कोई गारंटी नहीं.

‘मनमर्ज़ियाँ’ फिल्म की लेखिका कनिका ढिल्लों के अपने अनुभवों का साझा है, इसलिए गिनती के दो-चार दृश्यों को छोड़ कर, फिल्म की घटनाओं से जुड़ाव में किसी तरह की कोई फांस आड़े नहीं आती. रूमी का अक्खड़पन, विक्की का लापरवाह रवैया और रॉबी के किरदार में सुन्न कर देने वाला ठहराव; मनमर्ज़ियाँ’ अपने बनावट में ‘वो सात दिन, ‘धड़कन’, ‘हम दिल दे चुके सनम’ और ‘तनु वेड्स मनु जैसी तकरीबन आधी दर्जन हिंदी फिल्मों की याद जरूर दिला सकता है, पर फिल्म देखने के बाद आप जो नहीं भूलते, उनमें इन किरदारों को लिखने में कनिका की गहरी समझ शामिल है.  दृश्यों में नाटकीयता कलम से कहीं ज्यादा, किरदारों के अपने मिजाज़ से निकलती और बनती है. अमित त्रिवेदी का संगीत और शैलीजी के गीत फिल्म पर हमेशा और हर वक़्त छाये रहते हैं. कश्यप की दाद देनी होगी, जिस बाकमाल तरीके से म्यूजिक को वो अपने दृश्यों में, और दृश्यों को अपने म्यूजिक में पिरोते हैं.

‘मनमर्ज़ियाँ’ शर्तिया तौर पर अपने तीन ख़ास कलाकारों में पूरी की पूरी बंट जाती है. तापसी का रूमी होना ‘मनमर्ज़ियाँ’ के लिए किसी तोहफे से कम नहीं. परदे पर उसका छिटकना, बिगड़ना, गुस्से में तपना, भड़कना और टूटना; रूमी के अन्दर से तापसी एक पल को बाहर नहीं आती. विक्की को उसकी गैर-जिम्मेदाराना रवैये के लिए कोसते और डांटते हुए परदे पर जिस तरह वो फटती हैं, आवाक् कर देती हैं. फिल्म के आखिरी पलों में कैमरे की तरफ दौड़ते हुए उनके चेहरे की मुस्कुराती चमक में जैसे एक पल को पूरी फिल्म उनकी हो के रह जाती है. विक्की फिल्म दर फिल्म चौंका रहे हैं. ‘संजू के शराबी दृश्य के बाद, इस फिल्म में भी उनके हिस्से एक ऐसा ही दृश्य आया है. इस बार सिर्फ उनका चेहरा नहीं बोल रहा, पूरे का पूरा बॉडी लैंग्वेज प्रभावित करता है. गानों के डांस-स्टेप्स और लिप-सिंक में उनकी वो क़ाबलियत खुल कर सामने आती है, जो उन्हें अच्छे एक्टर से ‘स्टार मैटेरियल’ बनने की तरफ बढ़ने में मदद करेगी. विक्की में कॉमिक की संभावनायें भी और प्रबल हो रही हैं.

अभिषेक बच्चन दो साल बाद परदे पर हैं. एक ऐसे किरदार में, जिसे आप कतई मजेदार नहीं कह पायेंगे. जिसके साथ होते हुए शायद आप खिलखिलाएं नहीं, झूमें-गायें नहीं, पर ऐसा नहीं करते हुए भी परदे पर उसकी मौजूदगी बहुत ठोस है. उसकी शख्सीयत में इतनी परतें हैं, कि खोलते-खोलते फिल्म कम पड़ जाती है. उसकी नेकनीयती, उसकी संजीदगी कहीं भी उसे लाचार नहीं बनाती, बल्कि हर वक़्त पहाड़ की तरह अडिग और बर्फ की तरह ठंडा रखती है, और शायद यहीं, इसी पल में अभिषेक अपने सबसे मुश्किल किरदार में सबसे आसानी से ढल रहे होते हैं, पिघल रहे होते हैं.

आखिर में; ‘मनमर्ज़ियाँ’ लव और अरेंज्ड मैरिज के बीच हिचकोले खाती इस नई ‘ज़िम्मेदार, समझदार और तैयार’ पीढ़ी की उनकी अपनी एक ‘मेच्योर’ लव-स्टोरी है, जहाँ किरदार सपनों में जीने से कहीं ज्यादा, अपने आप को जानते-पहचानते हैं. अपनी खामियों का जश्न मनाते हैं. अपनी चाहतों के लिए लड़ते-भिड़ते हैं, और ‘डिस्कशन’ को अच्छा मानते हैं. प्यार का लेटेस्ट वाला वर्जन है, आप भी अपडेट कीजिये. [3.5/5]  

Friday, 7 September 2018

लैला मजनू: परदे पर जूनूनी इश्क़ के दौर की वापसी! [3.5/5]


इश्क़ में हद से गुजर जाने वाले आशिक़ अब कहाँ ही मिलते हैं? विछोह में पगला जाने वाले, इबादत में माशूक को ख़ुदा के बराबर बिठा देने वाले अहमकों की जमात लगातार कम होती जा रही है. ऐसे में, सदियों से सुनते-देखते आये मोहब्बतों के क़िस्से आज भी कुछ कम सुकून नहीं देते, शर्त बस ये है कि उन्हें पेश करने में थोड़ी सी समझदारी और सुनने में आपकी हिस्सेदारी ज़रा दिल से होनी चाहिए. साजिद अली की लैला मजनू फिल्मों में प्रेम-कहानियों के उस दौर को जिंदा करती है, जहां जूनूनी किरदारों के बग़ावती तेवर बेरहम दुनिया के जुल्म-ओ-सितम के आगे दम भले ही तोड़ दे, घुटने कभी नहीं टेकते. हालाँकि वक़्त-बेवक्त हीर-राँझा, रोमियो-जूलिएट और मिर्ज़ा-साहिबां जैसी अमर प्रेम-कथाओं पर तमाम हिंदी फिल्मों ने पूरे हक से अपनी दावेदारी दिखाते हुए दर्शकों को लुभाने की कोशिश की है, पर हालिया दौर में लैला मजनू शर्तिया तौर पर सबसे ईमानदार और यकीन करने लायक कोशिश कही जा सकती है. सदियों पुरानी कहानी को आज के सूरते-हाल में ढाल कर पेश करने में लैला-मजनू अगर पूरी तरह नहीं, तो ज्यादातर वक़्त तो कामयाब रहती ही है.        

कश्मीर के एक हिस्से में लैला (तृप्ति डिमरी) की ख़ूबसूरती के चर्चे आम हैं. लड़के ताक में रहते हैं कि कब लैला टिश्यू पेपर पर अपने होठों की लगी लिपस्टिक का निशान चस्पा करके, कार की खिड़की से बाहर फेंके और वो उसे लेने को जान की बाज़ी लगा दें. लैला के बारे में मशहूर है कि वो लड़कों को घुमाती है. एक नंबर की फ़्लर्ट है, पर असलियत तो ये है कि क्लास के बाद सहेली से पहले किस का हाल बड़ी बेसब्री से लिया जा रहा है. मजनू बनने से पहले हमारे मजनू को लोग कैस बट (अविनाश तिवारी) के नाम से जानते हैं. कैस भी कम नहीं है. एक नंबर का बिगडैल. अफवाह है कि उसके चक्कर में एक लड़की ने तो प्रेग्नेंट हो जाने पर दुबई जा कर जान दे दी थी. दोनों में कुछ तो है. पिछले जनम का न सही, बचपन का ही, मगर है कुछ तो. और उनके परिवारों में भी. दोनों के बापों में एक छटांक भी बनती नहीं. अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि दोनों की किस्मतों में इश्क़ का मुकम्मल होना शामिल नहीं है. लेकिन फिर, दुनिया की सबसे मशहूर प्रेम-कहानियाँ का अंजाम आखिर ख़ुशगवार कब रहा है!

लैला मजनू पर इम्तियाज़ अली की छाप साफ़ देखी जा सकती है. ऐसा होना लाजमी भी है, जब फिल्म इम्तियाज़ की कलम से ही निकली हो, और फिल्म के निर्देशक इम्तियाज़ के ही भाई हों. इम्तियाज़ जिस तरह फिल्म के मुख्य किरदारों को, अपने दिलचस्प संवादों से उनके ख़ास ताव और तेवर बख्शते हैं, किरदार एक अलग ही रौशनी में उभर कर आते हैं. लैला का पहली बार कैस से आमना-सामना हो, लैला का तेज़तर्रार बाग़ी रवैया या फिर फिल्म के आखिरी हिस्से में कैस का सूफ़ियाना लहजा; इम्तियाज़ हर दृश्य में अपनी बात जाना-पहचाना तरीका होने के बावजूद, एक नये-नवेले तौर से सामने रखते हैं. कैस के किरदार में अविनाश तिवारी को परंपरागत तौर पर नायक की छवि में देखना दर्शकों के लिए आसान नहीं होगा, इम्तियाज़ जान लेते हैं और शायद इसीलिए पहले ही दृश्य में उनके किरदार से साफ़ कहलवा देते हैं. “मेरी सूरत अच्छी नहीं है ना, इसीलिए मुझे स्मार्ट लगने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. देखो, स्टेबल (हलकी दाढ़ी) भी रखा है. उनका ये डिफेंसिव मैकेनिज्म अविनाश के लिए सटीक बैठता है, फिल्म के आखिर तक आते-आते आप उनके, उनकी अदाकारी, उनकी दमदार आवाज़ के मुरीद हुए बिना रह नहीं पाते. मेरी ही तरह अब आपको भी याद आने लगा होगा कि अविनाश को पहले भी आप तू है मेरा संडे में सराह चुके हैं.   

लैला के किरदार में तृप्ति डिमरी के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है. शुरू शुरू में आपको तृप्ति की लैला इम्तियाज़ की ही फिल्मों की दूसरी नायिकाओं, खास कर रॉकस्टार की नर्गिस फाखरी की याद दिलाती है. शायद इसलिए भी क्यूंकि दोनों के तेवर और लहजे में एक खास तरह की साझा बनावट है. नर्गिस की संवाद-अदायगी में अगर उनका हिंदीभाषी न होना हावी था, तो यहाँ तृप्ति को कश्मीरी लहज़े में बात करने की शर्त से गुजरना था. बहरहाल, तृप्ति रॉकस्टार में होतीं तो नर्गिस की हीर में कुछ इज़ाफा ही करतीं! सुमित कौल का किरदार शायद फिल्म का सबसे मेलोड्रमेटिक पहलू रहा, बावजूद इसके उनके अभिनय की तारीफ़ करनी होगी. बेंजामिन गिलानी और परमीत सेठी अच्छे हैं.  

लैला मजनू कश्मीर में अपनी कहानी गढ़ती है, और कश्मीर भी इस कहानी में ख़ूब रच-बस जाता है; सिर्फ बर्फीले मौसम, हरे घास की चादरों या चिनार के पत्तों तक नहीं, बल्कि फिल्म की पृष्ठभूमि से लेकर गीत-संगीत और कहानी की खुशबू तक में. हालाँकि इस कश्मीर से आतंकवाद, सेना के जवान और डर का माहौल बड़ी सफाई से नदारद हैं, पर बात जब मोहब्बत की हो रही हो, ऐसी चीजों को नज़रंदाज़ भी करना बेहतर ही है. हर तस्वीर में ग़ुरबत के रंग हों, जरूरी तो नहीं.

खैर, बॉलीवुड ने एक अरसे तक लैलाओं को बार-गर्ल और आइटम-गर्ल बना रख छोड़ा था, समाज और सरकारों ने मजनुओं को वैसे ही बदनाम कर रखा है; ऐसे में साजिद अली की लैला मजनू मुकम्मल तौर पर प्रेम-कहानियों की गिरती साख को ऊपर उठाती है. नाकाम इश्क़, ग़मगीन अंजाम और जूनूनी आशिक़; ये कहानी पुरानी ही सही, आज भी उतनी ही असर रखती है, बशर्ते आप दिली तौर पर तैयार हों. [3.5/5]               

Friday, 31 August 2018

स्त्री: हॉरर, कॉमेडी और फेमिनिज्म! [3.5/5]


बॉलीवुड में मसाला फिल्मों के स्वघोषित जानकार भलीभांति जानते हैं कि हॉरर का मतलब है डराना, और कॉमेडी का मतलब हँसाना. न इससे कम कुछ, न इससे छटांक भर ज्यादा कुछ. अब बड़ी दिक्कत ये है कि ऐसा करने के लिए उनके पास जो फ़ॉर्मूला है, उसके हिसाब से डराने के लिये दो-चार जाने-पहचाने पैंतरे, एक भूतिया हवेली, एक प्यासी चुड़ैल (खून, हवस या कभी कभी दोनों की) और हंसाने के लिए दो अदद हंसोड़ किरदार या किलो भर चुटकुले ही बहुत हैं. इनमें अगर सेक्स का तड़का लग जाए, तो फिर कहने ही क्या! अमर कौशिक की स्त्री में भी यही सब है, और एकदम नपा-तुला बराबर मात्रा में. मगर यहाँ कुछ और भी है, जो स्त्री को आम हॉरर या कॉमेडी फिल्मों से अलग करता है और मनोरंजन की हर शर्त पूरी करते हुए भी, अपनी समझदारी को कभी ताक पर नहीं रखता. स्त्री एक ऐसी फिल्म है, जो आपको डराती भी है, हंसाती भी है, और ये सब करते हुए आपसे बात भी बहुत करती है. कुछ बेहद ख़ास बातें, फेमिनिज्म की बातें, जिन्हें सुनना और सुन कर समझना आपकी अपनी समझ के दायरे को परिभाषित करती हैं.  

हालाँकि फिल्म का कथानक मध्य प्रदेश का चंदेरी शहर है, पर जिस तरह का सामाजिक ताना-बाना परदे पर दिखता है, इसे आप भारत का कोई भी गाँव, कोई भी शहर या मानने को पूरे का पूरा देश भी मान सकते हैं. ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. चंदेरी में हर साल, चार दिन पुरुषों पर बड़े भारी पड़ते हैं. इन चार दिनों में हर रात एक स्त्री बाहर निकलती है, और मर्दों को अपना निशाना बनाकर ले जाती. छोड़ जाती है तो बस उनके कपड़े. बचने का एक ही रास्ता है, घरों पर लिख कर रखिये, “ओ स्त्री! कल आना’’. पुस्तक भण्डार के मालिक रूद्र भईया (पंकज त्रिपाठी) ने पूरी रिसर्च की है इस स्त्री पर. “ये स्त्री नए भारत की स्त्री है. पढ़ी-लिखी है. मर्दों की तरह जबरदस्ती नहीं करती. तीन बार आवाज़ देगी, पलट कर देखोगे तो समझ लेगी कि यस है, और यस मीन्स यस.” दोस्तों (अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बैनर्जी) को लगता है, उनका बांका जवान दोस्त (राजकुमार राव) भी आजकल ऐसी किसी भूतिया स्त्री (श्रद्धा कपूर) के चंगुल में फंस रहा है, पर उसपे तो प्यार का भूत चढ़ा है. समझाए कौन?

राज और डीके (शोर इन द सिटी, गो गोवा गॉन) अपनी कहानी में बड़े संतुलित तरीके से हॉरर और कॉमेडी का तालमेल बैठाते हैं. फिल्म का पहला हिस्सा हालाँकि चंदेरी जैसे छोटे शहरों की आबो-हवा में घुलने और वहाँ के किरदारों से जुड़ने में ज्यादा खर्च होता है, पर अपने दूसरे हिस्से में सुमीत अरोरा के दिलचस्प और व्यंग्यात्मक संवादों के जरिये फिल्म अपने उस मुकाम तक पहुँचने में कामयाब होती है, जहां उसके होने की वजह सिर्फ मनोरंजन नहीं रह जाती. पहले हिस्से में फ़िज़ूल  के ताबड़तोड़ गानों से बचा जा सकता था. इस हिस्से में फिल्म टुकड़ों में ही आपको याद रह पाती है, और वो भी ज्यादातर उन दृश्यों में अभिनेताओं की क़ाबलियत की वजह से. एक दृश्य में बाप (अतुल श्रीवास्तव) बेटे को जवानी में गलत संगत में न पड़ने की और स्वयंसेवी बनने की सलाह दे रहा है. छोटे शहरों में पारिवारिक सेक्स-एजुकेशन कितना हास्यास्पद हो सकता है, उसकी एक झलक तो इस दृश्य में मिल ही जाती है.

फिल्म का दूसरा हिस्सा पूरी तरह पुरुषवादी विचारधारा का मजाकिये लहजे में मखौल उड़ाता है. स्त्री का प्रकोप इस हद तक है कि अब शहर की औरतें खुलेआम रातों को घर से बाहर जा रही हैं, और पति दरवाजा बंद करते हुए कहता है, “जल्दी आ जाना, रात को अकेले डर लगता है”. स्त्री से बचने का नुस्खा कामसूत्र की किताब के बीचोबीच छिपा कर रखा हुआ है. वासना से आगे बढ़ोगे, तब कहीं जाके मिलेगा मुक्ति का मार्ग. मर्दों को बिना कपड़ों के ले जाना, उनको उनकी छोटी सोच से भी नंगा कर देना समझ लेना चाहिए, जो एक वेश्या को उसकी पसंद से बड़ी बेरहमी से अलग कर देती हो. प्यास यहाँ सिर्फ बदले की या खून की नहीं है, तलब और जिद है प्यार और इज्ज़त मिलने की. रूद्र भईया सुनते ही बिफर पड़ते हैं, “बड़े जाहिल लोग हैं आप!”. आखिरकार ये वो समाज है, जहाँ नौजवानों में लड़कियों से फ्रेंडशिप का मतलब सीधा सीधा सेक्स होता है, और कुछ नहीं.

स्त्री अगर शोर-शराबे वाले बैकग्राउंड म्यूजिक और संवादों में धागे भर की शालीनता बरत पाती तो बेहद अच्छी हो सकती थी. गनीमत है कि राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी का होना सब कुछ जैसे लीपपोत कर चिकना कर देता है. अभिषेक और अपारशक्ति के साथ राव की तिकड़ी वाले दृश्य गुदगुदाते हैं, भले लगते हैं जैसे अपन ही चाय की टपरी पे शाम बिता रहे हों. अपारशक्ति और अभिषेक दोनों के हिस्से कुछ बेहद मनोरंजक पल आये हैं. पंकज त्रिपाठी दृश्यों में अपनी जगह आप खोज लेते हैं, बना लेते हैं. उनकी बॉडी लैंग्वेज ही उनके किरदार की जान बन जाती है, और कॉमेडी के इस दौर में ये खूबी उनसे बेहतर संजय मिश्रा को ही आती है. श्रद्धा सटीक हैं, और शायद अपनी अदाकारी में पहली बार इतनी कारगर भी.

आखिर में; स्त्री हॉरर कॉमेडी के तौर पर एक अच्छी कोशिश है. हॉरर के नाम पर कॉमेडी और हॉरर के साथ सेक्स का घालमेल करके उलजलूल परोसने में बॉलीवुड ने कोई कमी नहीं छोड़ी है. “स्त्री इक नये, बेहतर रास्ते की तरफ बढ़ती है. चिल्लाते हुए भूत को डांट कर शांत कराने जैसे बचकाने और बेवकूफ़ी भरे हंसी-मज़ाक के साथ साथ, अगर समझदारी से कहानी में फेमिनिज्म जैसे जरूरी सामाजिक चेतना के विमर्श पर भी हंसने के मौके मिलने लग जाएं, तो कोई नीरस, बेशर्म और बेहया सेक्स का भौंडापन क्यूँ ले भला? ये न ले...[3.5/5]  

Wednesday, 15 August 2018

गोल्ड: नक्कालों से सावधान! [2/5]

स्पोर्ट्स फिल्म बनाने में मेहनत लगती है. मैच असली लगने चाहियें. खिलाड़ियों का जोश, मैदान में उनकी रफ़्तार, उनका तालमेल स्क्रीन पर सब कुछ असल की शक्ल में दिखाई देना चाहिए. उम्दा, लायक और भरोसेमंद सिनेमाई तकनीक यहाँ पर बहुत अहम् रोल अदा करती है. जबकि बायोपिक बनाने में वक़्त और मेहनत दोनों लगती है. रिसर्च यहाँ तकनीक पर हावी हो जाती है. घटनाओं और किरदारों की सच्चाई जब दांव पर हो, तो फिल्मकार के तौर पर आपकी समझ भी कठघरे में पूरे वक़्त एक पाँव पर खड़ी रहती है. हालाँकि इस कठिन हाल से साफ़-साफ़ बच कर निकलने का एक बेहद आजमाया हुआ नुस्खा भी मौजूद है बॉलीवुड में. नायक को देशभक्ति की घुट्टी पिलाकर और दर्शकों को सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान सुनाकर बड़ी आसानी से पतली गली पकड़ी जा सकती है. आपसे किसी तरह का और कोई सवाल किया ही नहीं जाएगा. रीमा कागती की गोल्ड यही करती है. एकदम यही. साधारण स्क्रिप्ट, जबरदस्ती का नायक, बनावटी ड्रामे, कहानी में उधार के उतार-चढ़ाव और घटिया दर्जे के कंप्यूटर ग्राफ़िक्स; और इन सब पर देशभक्ति का चमकीला पर्दा डालने के लिए इतिहास की एक (असल की रोमांचक) घटना और उनके इर्द-गिर्द ढेर सारे बनावटी चोचले.

दौर आज़ादी से ठीक पहले का है. बच्चे क्रिकेट नहीं खेलते, हॉकी के दीवाने हैं. देश की टीम ओलंपिक्स में 3 गोल्ड जीत चुकी है, पर सारे के सारे ब्रिटिश इंडिया के खाते में दर्ज हैं. भारत के पास मौका है ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. कुछ सालों में आजादी भी मिलने वाली है, और ओलंपिक्स भी 12 साल बाद फिर से होने वाले हैं. तपन दास (अक्षय कुमार) घोर बंगाली है. बर्लिन ओलंपिक्स में सपना देखा था, अगले ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. अब दो बार से ओलंपिक्स कैंसिल हो रहे हैं, तो शराब की लत पाल ली है. आने वाले ओलंपिक्स के लिए खिलाड़ियों को चुनने की जिम्मेदारी मिल भी गयी है, तो उसे कहाँ पता था कि भारत-पकिस्तान के बंटवारे में टीम का भी बंटवारा हो जाएगा. लिहाज़ा, शराब में फिर डूब जाने का मौका भी है, दस्तूर भी. जैसे तैसे नए सदस्यों के साथ टीम फिर से खड़ी होती भी है, तो जश्न के माहौल में पीने की सूरत फिर से बन जाती है. टीम अब अपने इस देवदास के बिना ही लन्दन ओलंपिक्स जा रही है. एक ऐसी टीम जिसमें कोई कोच नहीं है, 70 मिनट, सिर्फ 70 मिनट हैं तुम्हारे पास का ओजस्वी भाषण देने के लिए. तपन दास की शकल में सिर्फ एक मैनेजर ही था, जो अंग्रेजों से 200 साल का बदला लेने के लिए तत्पर है.

स्पोर्ट्स, देशभक्ति और बायोपिक की इस मिलीजुली सिनेमाई साजिश में 3 ख़ास खामियां हैं, जो गिनती की कुछ अच्छाइयों के मुकाबले बेहद भारी-भरकम हैं. गोल्ड स्क्रिप्ट के स्तर पर एक बेहद साधारण फिल्म है, जो अपना ज्यादातर हिस्सा शिमित अमीन की (अब तक की) बेहतरीन फिल्म चक दे! इंडिया से काफी हद तक उधार लेती है. कबीर खान (शाहरुख़ खान) की ही तरह यहाँ भी तपन दास एकलौता पूरी की पूरी टीम चुनता है, खड़ा करता है. यहाँ तक कि टीम में एक-दूसरे से जलने और होड़ रखने वाले खिलाड़ियों का ट्रैक भी कुछ इतना मिलता जुलता है, मानो दोनों एक-दूसरे का ज़ेरॉक्स हों. सेंटर फॉरवर्ड की पोजीशन पर खेलने की जिद पाले बैठे दो खिलाड़ी और उन्हीं के कन्धों और फैसलों पर टिका वो आखिरी मैच का निर्णायक गोल. गोल्ड बड़ी बेशर्मी से दंगल के उस कम दमदार, पर असरदार ड्रामे की भी नक़ल कर लेती है, जहाँ मैच में उस एक नायक का होना बेहद जरूरी है, पर एक साज़िश के तहत उसे स्टेडियम तक पहुँचने से रोक लिया जाता है.

दूसरी कमज़ोर कड़ी है, फिल्म का तकनीकी पहलू. खराब कंप्यूटर ग्राफ़िक्स के अलावा, गोल्ड में न तो मैच को रोमांचक बनाने वाले दांव-पेंच ही मौजूद हैं, ना ही उस तरीके का तेज़ रफ़्तार कैमरावर्क जो आपको मैदान पर होने का एहसास करा जाए. जहां चक दे! इंडिया में दिखाए गये मैच लंबे-लम्बे शॉट्स के साथ बड़ी समझ से डिजाईन किये हुए लगते थे, गोल्ड के मैच टुकड़ों और क्लोज-अप्स में ही सीमित रह जाते हैं. खिलाड़ियों को न तो हीरो बनने का ही वक़्त मिलता है, ना ही आपको उनकी क़ाबलियत से जुड़ने का. और अब आखिरी में, फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी, अक्षय कुमार. अक्षय एक सोची समझी रणनीति के तहत देश और देशभक्ति का राग अलापती फिल्मों का हिस्सा बनते आ रहे हैं. हालाँकि एक अभिनेता के तौर पर गोल्ड में किरदार से जुड़ने की उनकी कोशिश उनकी पिछली फिल्मों से सबसे ज्यादा नज़र आती है, पर उनके होने भर से ही कहानी में वजन आने की रही-सही उम्मीद भी जाती रहती है. किरदारों को कैरीकचर बना कर छोड़ देने में उनका कोई सानी नहीं.

अक्षय का एकरस अभिनय एक तरह से एक अच्छा मौका भी है, सनी कौशल, कुनाल कपूर और अमित साध जैसे सह-अभिनेताओं के लिए. सनी कौशल फिल्म का सबसे भरोसेमंद अभिनेता बनकर उभरते हैं. देश के लिए खेलने की आग पाले बैठे किरदार में सनी जैसे परदे पर अपने मौके का इंतज़ार ही कर रहे होते हैं. यहाँ तक कि प्रेम-प्रसंग वाले हलके-फुल्के पलों में भी सनी ही भारी पड़ते हैं, अक्षय पर भी. मौनी रॉय बंगाली फिल्म के लिए ऑडिशन देने आई किसी बहुत उत्साहित नयी लड़की से ज्यादा बेहतर या लायक नहीं लगतीं. अमित साध राजघराने से आये एक अकडू युवराज के किरदार में भी बेहद मनोरंजक लगते हैं. विनीत कुमार सिंह भी कतई निराश नहीं करते. बंटवारे से पहले आज़ाद भारत के कप्तान और बंटवारे के बाद पाकिस्तान की हॉकी टीम के कप्तान के रूप में उनके हाव-भाव में जो एक हल्का सा फर्क और पैनापन विनीत शामिल कर पाते हैं, अगर आप भांप लें तो अदाकार के तौर पर विनीत के कद को ज्यादा समझ पाएंगे.

आखिर में; गोल्ड चमकदार तो है, पर हर चमकती चीज को सोना समझने की भूल कौन करता है भला? मुझे काफी वक़्त तक लगता था, स्वर्ण पदक विजेताओं के गोल्ड मैडल को दांतों से काटने की परम्परा भी शायद इसी को जांचने की एक प्रक्रिया होती होगी. गोल्ड देशभक्ति के नाम पर आपको कुछ ऐसा ऐरा-गैरा परोसने की कोशिश है. बेहतर होगा, नक्कालों से सावधान रहे! [2/5]