Friday, 30 September 2016

एम एस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी: औसत दर्जे की ‘धोनी-फ्रेंडली’ फिल्म! [2.5/5]

“धोनी रांची का रहने वाला है. स्कूल के दिनों में तो उसे क्रिकेट से कुछ लेना-देना भी नहीं था. फुटबॉल खेलता था, गोलकीपर अच्छा था. वो तो स्कूल के कोच सर ने क्रिकेट में खींच लिया. बाद में, रेलवे में टिकट कलेक्टर लग गया था, पर क्रिकेट का जूनून उतरा नहीं सर से. फिर जो एक बार इंडिया टीम में सेलेक्ट हुआ, सबकी छुट्टी कर दी. क्या सीनियर खिलाड़ी, क्या रिकॉर्ड-होल्डर्स! आज भी रांची आता है तो बाइक पर दोस्तों के साथ ‘कल्लू ढाबा’ की ओर निकल जाता है. बाइक का बड़ा शौक है भाई को. हर तरह की, महंगी से महंगी, सब मिल जायेंगी उसके गैराज़ में खड़ी. ज्यादा तो कुछ पता नहीं, पर साक्षी से पहले उसकी एक और भी गर्लफ्रेंड थी.” मुझे यकीन है, भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े सितारों में से एक महेंद्र सिंह धोनी के बारे में इतना सब तो उनके चाहने वालों की जबान की नोक पर रखा होगा. पर यहाँ सवाल कुछ और है, क्या महेंद्र सिंह धोनी पर बनने वाली फिल्म में भी आप यही सब देखना पसंद करेंगे? कामयाबी के पीछे संघर्ष ढूँढने की ललक हम सबमें रहती है, पर अपने चहेतों को ‘हीरो’ मान बैठने की जल्दबाजी में कहीं हम उस वजनदार नाम के पीछे की छोटी-छोटी ही सही तमाम गलतियों, खामियों को नज़रअंदाज़ करने की भूल तो नहीं कर बैठते? एक सच्ची और ईमानदार जीवनी इन सभी संदेहों और शंकाओं से लगातार परे रहने की कोशिश करती है.   

भारत में क्रिकेट और सिनेमा को ‘धर्म से परे एक और धर्म’ की नज़र से देखा जाता है. और अगर ऐसा है, तो नीरज पाण्डेय एकलौते ऐसे फ़िल्मकार के तौर पर उभर के आते हैं, जो अपनी इस नई फिल्म में इन दोनों धर्मों को बराबर तवज्जो देते हैं. नीरज की ‘एम एस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी’ एक सधी हुई ‘सेफ’ फिल्म है, जिसे हम एक ऐसे फैन की तरफ से अपने ‘हीरो’ को श्रद्धांजलि मान सकते हैं, जो अपने ‘हीरो’ को कहीं भी डगमगाने, लडखडाने या हिचकिचाने तक की छूट नहीं देता. हालाँकि फिल्म के पहले भाग में उनका पूरा ध्यान धोनी [सुशांत सिंह राजपूत] के अति-मध्यमवर्गीय परिवेश से उठने और उस माहौल की संवेदनाओं से उपजने वाले डर, झिझक और संयम से जूझने पर ही टिका रहता है, पर निश्चित तौर पर यही वो हिस्सा है जो साधारण, सहज और सरल होते हुए भी आपको बांधे रखने में कामयाबी हासिल करता है. पिता [अनुपम खेर] रांची के स्थानीय स्टेडियम में पंप चलाकर पानी से पिच गीली कर रहे हैं. बेटे की चाहत भी जानते हैं और पढ़ाई की जरूरत भी. हमेशा साथ खड़े रहने वाले दोस्तों की जमात को तो बस ‘माही मार रहा है’ सुनने की ललक है.

नीरज पाण्डेय अपनी फिल्मों में चौंकाने के लिए जाने जाते हैं. कभी कहानी को कोई सनसनीखेज मोड़ देकर, तो कभी अभिनेताओं के साथ किसी नए तरह के प्रयोग के साथ. ‘एम एस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी’ इस तरह की किसी लाग-लपेट में उलझने की कोशिश नहीं करती, बल्कि एक ही ढर्रे पर हलके-फुल्के उतार-चढ़ाव के साथ चलती रहती है. कुछेक बहुत रोचक और रोमांचक पलों में, युवराज सिंह [हैरी टंगरी] के साथ धोनी का पहला मैच, जहां दोनों एक-दूसरे के आमने सामने होते हैं, फिल्म के पहले भाग में सबसे उत्साहित करने वाला दृश्य बन पड़ता है. फिल्म के दूसरे भाग में, नीरज, धोनी के व्यक्तिगत जीवन और एक से अधिक प्रेम-प्रसंगों में झाँकने के साथ ही कहानी के ‘हीरो’ को फिल्म का ‘हीरो’ बना देने की गलती कर बैठते हैं. एक के बाद एक गानों की लड़ी लग जाती है और फिर अंत तक आते आते आप जिस धोनी को जानने-समझने की उम्मीद ले कर थिएटर आये थे, उसी धोनी की कामयाबी की चकाचौंध में गुम होकर रह जाते हैं.  

शुरुआत के दो-चार खराब ‘ग्राफ़िकली ट्रीटेड’ दृश्यों को छोड़ दें तो सुशांत सिंह राजपूत पूरी तरह से धोनी के किरदार में रचे-बसे नज़र आते हैं, खासकर परदे पर धोनी के चिर-परिचित शॉट्स को जिंदा रखने में. उन पर कभी धोनी जैसा दिखने का दबाव नहीं रहा, शायद इसलिए भी उनका आत्मविश्वास फिल्म में पूरी तरह कायम दिखता है. अनुपम खेर तो जैसे नीरज पाण्डेय की फिल्मों में एक ख़ास तरह की अभिनय-शैली अपना लेने भर तक ही सीमित दिखने लगे हैं. भूमिका चावला कहीं से भी सहज नहीं दिखतीं. हैरी टंगरी युवराज सिंह को बखूबी परदे पर उतार लाते हैं. धोनी के कोच की भूमिका में राजेश शर्मा शानदार अभिनय करते हैं. तमाम एतेहासिक मैचों में विज़ुअल ग्राफ़िक्स की मदद से सुशांत को धोनी बनाने में कहीं भी चूक नहीं होती.

आखिर में, नीरज पाण्डेय की ‘एम एस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी’ एक सामान्य फिल्म है जो मनोरंजक होने की शर्त पूरी करते-करते भूल जाती है कि किरदारों के गढ़ने में हथौड़ों की चोट भी उतनी ही जरूरी होती है, जितनी सहूलियत और नजाकत उसे सजाने-संवारने में. आखिर एक सफ़ेद कैनवास को आप कितने देर निहारते रहेंगे? कुछ स्याह भी हो, कुछ सीलन भी हो. 3 घंटे से भी थोड़ी लम्बी ये फ़िल्मी पारी, धोनी की क्रिकेट में सबसे यादगार पारियों के करीब भी नहीं पहुँचती, न रोमांच में, न ही इमोशन्स में! [2.5/5]                     

Friday, 23 September 2016

पार्च्ड (A): हम सब ‘बोल्ड’ हैं! [3.5/5]

हाव-भाव और ताव में लीना यादव की ‘पार्च्ड’ पिछले साल रिलीज़ हुई पैन नलिन की ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेज’ से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, और अपने रंग-रूप में केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ जैसी तमाम भारतीय सिनेमा के मील के पत्थरों से भी. जाहिर है, इस तरह का ‘पहले बहुत कुछ देख लेने’ की ऐंठ आप में भी उठेगी, पर जिस तरह की बेबाकी, दिलेरी और दबंगई ‘पार्च्ड’ दिखाने की हिमाकत करती है, वो कुछ अलग ही है. यहाँ ‘आय ऍम व्हाट आय ऍम’ का जुमला बेडरूम के झगड़ों और कॉफ़ी-टेबल पर होने वाली अनबन में सिर्फ जीत भर जाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. ‘पार्च्ड’ अपने किरदारों को उनके तय मुकाम तक छोड़ आने तक की पूरी लड़ाई का हिस्सा बन कर एक ऐसा सफ़रनामा पेश करती है, जो हमारी ‘घर-ऑफिस, ऑफिस-घर’ की रट्टामार जिन्दगी से अलग तो है, पर बहुत दूर और अनछुई नहीं.   

लम्बे वक्त से दबी-कुचली, गरियाई-लतियाई और सताई जा रही गंवई औरतों के सर पर पहाड़ जैसा भारी हो चला घूंघट अब मिट्टी के ढूहे सा भरभराकर सरकने लगा है. सारी की सारी घुटन, चुभन, सहन अब धरती के आँचल में दबे लावे की तरह फूटने की हद तक आ पहुंची है. धागे जैसे भी हों, मोह के, लाज के, समाज के, सब के सब टूटने लगे हैं. रानी [तनिष्ठा चैटर्जी] विधवा है, जो अपने ही जवान बेटे की खरी-खोटी सुनती है. शायद इसीलिए क्यूँकि 15-16 साल का ही सही, वो भी एक मर्द है और रानी जैसियों को मर्दों की सुननी पड़ती है. लज्जो [राधिका आप्टे] बाँझ हैं, जिसे कोई अंदाज़ा भी नहीं कि मर्द भी बाँझ हो सकते हैं. बिजली [सुरवीन चावला] मर्दों के मनोरंजन का सामान है. गाँव की डांस कंपनी में ‘खटिया पे भूकंप’ जैसे गानों पर मर्दों को जिस्म दिखाती भी है और परोसती भी है, पर अपनी मर्ज़ी से! जानकी [लहर खान] बालिका-वधू है, जिसे रानी अपने बेटे के लिए शादी के नाम पर खरीद लायी थी.

पार्च्ड’ इन सबके और दूसरे कई और छोटे-छोटे किरदारों के साथ औरतों के साथ होने वाले हर तरह के अमानवीय कृत्यों का कच्चा-चिट्ठा खोल के सामने रखती है. ‘पढ़-लिख कर कौन सा इंदिरा गाँधी बनना है?’ जैसे उलाहनों से लेकर मणिपुर से आई बहू को ‘विदेशी’ कहने और शादी में सामूहिक घरेलू यौन-उत्पीड़न जैसी घिनौनी कुरीतियों तक, फिल्म एक सिरे से बहुत कुछ और सब कुछ एक साथ कहने की कोशिश करती है. गनीमत है कि इस बार घटनाक्रम पुराने ढर्रे के सही, पर ‘एंग्री इंडियन गॉडेसेस’ की तरह जल्दबाजी भरे और बनावटी नहीं लगते. बिना किसी शर्म, झिझक और लिहाज़ की परवाह करते गंवई संवाद जिनमें गाली-गलौज के साथ-साथ यौन-संबंधों से जुड़े कई खांटी शब्दों की भरमार दिखती है, और कुछ बहुत संवेदनशील दृश्य जिनके खुलेपन में लीना का (एक औरत का) निर्देशक होना ज़रूर मददगार साबित हुआ होगा, फिल्म को एक आज़ाद ख्याल और अलग अंदाज़ दे जाते हैं.

कई मामलों में फिल्म एक खालिस ‘औरतों की फिल्म’ कही जा सकती है. कैमरा सामने होने की झिझक कई बार झलकियों में भी नहीं दिखती. फिल्म मजेदार पलों से पटी पड़ी है. बिजली का ‘मर्दों वाली गालियाँ’ ईजाद करना, ‘वाइब्रेशन मोड’ पर मोबाइल के साथ लज्जो का ‘वाइब्रेटर-एक्सपीरियंस’, रानी का फ़ोन पर अनजान ‘लवर’ से बातचीत, फिल्म बड़ी बेहयाई से आपका भरपूर मनोरंजन करती है. फिल्म का तडकता-भड़कता संगीत एक और पहलू है, जो संजीदा कहानी के बावजूद आपके मूड को हर वक़्त फिल्म में दिलचस्प बनाये रखता है. कैमरे के पीछे जब ‘टाइटैनिक’ के रसेल कारपेंटर और एडिटिंग टेबल पर ‘नेबरास्का’ के केविन टेंट जैसे दिग्गजों की फौज हो, तो फिल्म के टेक्निकल साज़-ओ-सज्जा पर कौन ऊँगली उठा सकता है?

अभिनय में सुरवीन चावला सबसे ज्यादा चौंकाती हैं. उनके किरदार में जिस तरह की बोल्डनेस दिखती है, और दूसरे हिस्सों में उनका इमोशनली टूटना, सुरवीन कहीं भी डांवाडोल नहीं होतीं. राधिका और तनिष्ठा दोनों के लिए इन किरदारों में कुछ बहुत नया न होते हुए भी, दोनों बहुत सधे तरीके से अपने किरदारों को जिंदा रखती हैं. अन्तरंग दृश्यों में राधिका का समर्पण काबिले-तारीफ है. तनिष्ठा तो शबाना आज़मी हैं ही आजकल के ‘अर्थपूर्ण सिनेमा’ के दौर की. अन्य भूमिकाओं में सुमित व्यास और बिजली के मतलबी आशिक़ की भूमिका में राज  शांडिल्य सटीक चुनाव हैं.

अंत में; ‘पार्च्ड’ औरतों को देह-सुख का सामान और बिस्तर पर बिछौना मात्र मानने वाली पुरुष-सत्ता के खिलाफ ‘पिंक’ की तरह कोई तेज-तर्रार आवाज़ भले ही न उठाती हो, औरतों की आज़ादी के हक़ में एक ऐसी हवा तो ज़रूर बनाती है, जहां मर्दों की तरफ से लाग-लपेट, लाज-लिहाज़ का कोई बंधन मंजूर नहीं. प्रिय महिलाएं, ‘सास-बहू और नागिन’ जैसे सीरियलों की गिरफ्त से अगर छूट पाएं, तो ज़रूर देखने जाएँ! [3.5/5]  

Sunday, 18 September 2016

CLASSICS REVISITED: The Bridges Of Madison County

We are what choices we make in life. So when a girl chooses to spend rest of her life with someone […mostly in marriages], in one way, she starts her life but in other, she stops too. Priorities change. Preferences change. Dreams get suppressed. Passion takes shelter in some dark remote corners of the house. And in such times when she probably has nothing left within to describe as her own individuality, a sudden breeze of love and care coming from outskirts evokes emotions that are hard to hold.

Extra-marital affairs are something we shun to discuss while enjoying our meals on dining table but still it exists and may be very much in the house, in the inner-self of our loving partner. Now, without being judgmental on the subject, I can say Clint Eastwood’s THE BRIDGES OF MADISON COUNTY is one of the most poignant love-story between two individuals stuck badly in their ‘far from each others’ respective lives.

A loving wife & mother of 2 teenage kids [Meryl Streep in a mesmeric superlative performance] accidentally gets to meet an National Geographic travelling photographer in his sober age [Eastwood himself] and soon, in a short-span of 4 days, they both discover strong emotions towards each other that may change the way their life should have been if they haven’t met at the first place! Years later, once she is dead, her kids are made known to this ‘embarrassing’ story that explains about the decision her mother made with her life and why.

As a matured love-saga of different kind, if the film really belongs to someone, it has to be the immensely expressive and natural Meryl Streep. With those parched eyes filled with emptiness, she never misses a shot to make you feel for her. Watch her while answering a simple question as if she really likes the life she’s in. Or in a scene where she lets Eastwood in her house but still not very sure and convinced about her submission to the thought. Clint just creates some magical flare of romance on screen as a competent actor, brilliant writer and equally amazing director. The climax scene where both the lovers are left on a crossroad to make a last choice to be united or take a u-turn to their diverse lives, is for me, the most touching rain sequence on screen ever.

Mahesh Manjarekar’s ASTITVA has impersonated same emotions in a quite Bollywood manner but DO NOT MISS Clint Eastwood’s THE BRIDGES OF MADISON COUNTY as it is pure in emotions, clean in thoughts and lyrical in passion. ABSOLUTELY RECOMMENDED!

Friday, 16 September 2016

राज़ रीबूट (A): अंत हुआ, भला हुआ! [1/5]

विक्रम भट्ट की ‘राज़ रीबूट’ रिलीज़ से पहले ही आपको खुश कर जाती है. महेश भट्ट पहले ही बयान दे चुके हैं, ‘राज़’ सीरीज की ये आख़िरी फिल्म होगी. इसका मतलब ये है कि अब विक्रम भट्ट की वो घिसी-पिटी, वाहियात संवादों से भरी स्क्रिप्ट जो पिछले 7 सालों से ‘राज़ (2002)’ की कामयाबी को भुनाने के चक्कर में बार-बार एक अलग और नई फिल्म के तौर पर दर्शकों तक पहुंचाई जा रही थी, अब ये खेल बंद हुआ समझिये. अपने आप में ये एक बहुत राहत पहुंचाने वाली बात है, हालाँकि सीरीज की आख़िरी किश्त ‘राज़ रीबूट’ जाते-जाते भी आप पर कोई रहम नहीं करती.

डराने की हर कोशिश जब हंसाने लग जाए, समझिये विक्रम भट्ट फॉर्म में हैं. फिर भी मैं कहता हूँ, डायलाग-राइटिंग में हाथ आजमाने वाले हर नए-पुराने टैलेंट को इस फिल्म से सीखना चाहिए कि आखिर क्या नहीं लिखना है? हीरोइन को एक ऐसा कैमरा चाहिए, जो लाइट ऑफ होने के बाद भी कमरे में होने वाली सारी एक्टिविटी रिकॉर्ड कर सके. दुकानदार का जवाब सुनिए, “ओह, तो आपको नाईट विज़न कैमरा चाहिए?”. भूत-प्रेतों पर रिसर्च करने वाला एक दिव्यांग (नेत्रहीन) चाय का कप छू कर बता देता है, “इस कप पर दो लोगों के होंठ महसूस हो रहे हैं”. वाह, गुरुदेव! पति-पत्नी के शादीशुदा दोस्तों में से एक पूछती है, “मैंने नोटिस किया है, तुम्हारे बेडरूम के बिस्तर पर एक तरफ सिलवटें नहीं हैं. तुम लोग अलग-अलग सो रहे हो?” मैं पूछता हूँ, ये कौन है जो बेड पर बड़ी सफाई और सावधानी से एक ही तरफ सो लेने का टैलेंट रखता है?

शादी के बाद प्रेमी-जोड़ा [गौरव अरोरा, कृति खरबंदा] मुंबई से रोमानिया ताजा-ताजा शिफ्ट हुआ है. “बर्फ का शहर है, अगले 5 साल तक कहीं और नहीं जाना है, तो चलो ‘बच्चा’ कर लेते हैं”, बीवी ज़िद पे अड़ी है. पति को पैसे कमाने हैं. झगड़ा पहले ही दिन इस हद दर्जे का है, कि दोनों के बिस्तर अलग-अलग हो जाते हैं. साथ सोने भर से भी शायद ‘बच्चा’ हो जाता हो. खैर, कुछ ही वक़्त बाद बीवी को घर में ‘किसी और’ के होने का एहसास होने लगता है. सिंक में आँख दिखाई देने लगती है, लैपटॉप से खून की नदियाँ बह निकलती हैं, वगैरह, वगैरह! पति को जब इन बेकार की बातों में यकीन नहीं होता, बीवी को उसका पुराना आशिक़ [इमरान हाशमी] आकर सहारा देता है. फिर वही होता है, जिसका आपको भी पता था और इंतज़ार भी. दो-चार किसिंग सीन, उतने ही गाने और एक ‘राज़’ जिसके खुलने से पहले ये एक लफ्ज़ इतनी बार बोला-सुनाया जाता है कि आपको फर्क पड़ना ही बंद हो जाता है.

विक्रम भट्ट साब की एक ही परेशानी है कि वो अपनी फिल्म चाहे दुनिया के किसी भी कोने में या ब्रह्माण्ड के किसी भी ग्रह पर लेकर चले जाएँ, अपने साथ भारतीय हॉरर सिनेमा के कुछ अनमोल तत्व ले जाना नहीं भूलते, मसलन, मंगलसूत्र. मंगलसूत्र का खो जाना एक पतिव्रता नारी के लिए कितना कष्टप्रद हो सकता है, आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा. वहीँ, जब शादीशुदा होने के बावजूद गैर-मर्द से सम्बन्ध बनाने की बारी आती है, बड़ी सहूलियत से कपड़े उतारने से पहले मंगलसूत्र उतार देना सब कुछ जायज़ कर देता है. फिल्म में ‘द एक्सोर्सिस्ट’ की भी छाप हर बार की तरह इस बार भी भरपूर है. मजेदार बात ये है कि इस बार वाला भूत ‘एफ़-वर्ड’ इस्तेमाल करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाता, और दिल खोल के गालियाँ बरसाता है.

अभिनय की बात करें, तो गौरव अरोरा  का फिल्म में होना ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कामकाज के तरीकों पर सवालिया निशान खड़े कर देता है. विक्रम भट्ट की फिल्म में आफ़ताब और रजनीश दुग्गल जैसों का होना फिर भी चलता है, गौरव अरोरा के साथ तो ‘गुड लुक्स’ का भी चक्कर दूर-दूर तक नहीं दिखता. असल में इमरान हाश्मी ही हैं जो पूरी तरह से समर्पित दिखाई देते हैं. फिल्म से ज्यादा, भट्ट कैंप और अपनी ‘सीरियल किसर’ वाली इमेज के प्रति. कृति खरबंदा डराने वाले दृश्यों में कामयाब रहती हैं.

फिल्म के शुरूआती एक दृश्य में, एक कौवा रुकी हुई कार के सामने वाले शीशे से टकराकर आत्महत्या कर लेता है. जानवरों को आने वाले संकट और बुरे वक़्त का अंदेशा इंसानों से बहुत पहले ही हो जाता है. काश, उसके इस बलिदान को हम इंसान वक़्त रहते समझ पाते! कम से कम पूरी फिल्म झेलने से बच जाते! चलो, ‘राज़’ का अंत हुआ...और कभी-कभी अंत ही भला होता है. [1/5]      

पिंक: इसको ‘ना’ कहने का सवाल ही नहीं! [4/5]

पिंक’ कोई नई बात नहीं कह रही. ‘पिंक’ में हो रहा सब कुछ, खास कर लड़कियों के साथ कुछ बहुत नया नहीं है. हालांकि फिल्म की कहानी दिल्ली और दिल्ली के आस-पास ही डरी-सहमी घूमती रहती है, पर ये सिर्फ देश के उसी एक ख़ास हिस्से की कहानी भी नहीं है. इस फिल्म की खासियत ही शायद यही है कि इसकी हद और ज़द में सब बेरोक-टोक चले आते हैं. गाँव के पुलियों पर बैठे, साइकिल चलाकर स्कूल जाती लड़कियों पर आँख गड़ाये आवारों के जमघट से लेकर बड़े शहरों की बड़ी इमारतों में ख़ूनी लाल रंग की लिपस्टिक लगाने वाली, अपनी ही ऑफिस की लड़की को ‘अवेलेबल’ समझने की समझदारी दिखाते पढ़े-लिखों तक, ‘पिंक’ किसी को नहीं छोड़ती.

अक्सर देर रात को घर लौटने वाली ‘प्रिया’ ज़रूर किसी ग़लत धंधे में होगी. सबसे हंस-हंस कर बातें करने वाली ‘अंजुम’ को बिस्तर तक लाना कोई मुश्किल काम नहीं. 30 से ऊपर की हो चली ‘रेशम’ के कमरे पर आने वाले लड़के सिर्फ दोस्त तो नहीं हो सकते. ‘कोमल’ तो शराब भी पीती है, और शॉर्ट स्कर्ट पहनती है. ये ‘नार्थ-ईस्ट’ वाले तो होते ही हैं ऐसे. हमारे यहाँ लड़कियों को ‘करैक्टर-सर्टिफिकेट’ देने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता. सब अपनी-अपनी सोच के साथ राय बना लेने में माहिर हैं, और वक़्त पड़ने पर अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करने से भी चूकते नहीं. मर्दों की यौन-कुंठा इस कदर प्रबल हो चली है कि उन्हें लड़कियों/औरतों के छोटे-छोटे हाव-भाव भी ‘सेक्सुअल हिंट’ की तरह नज़र आने लगते हैं. ब्रा-स्ट्रैप दिख जाना, बात करते-करते हाथ लगा देना, कमर का टैटू और पेट पे ‘पिएर्सिंग’; कुछ भी और सब कुछ बस एक ‘हिंट’ है. ‘ना’ का यहाँ कोई मतलब नहीं है. ‘पिंक’ बड़ी बेबाकी से और पूरी ईमानदारी से महिलाओं के प्रति मर्दों के इस घिनौने रवैये को कटघरे में खड़ी करती है.

दिल्ली में अकेले रहने वाली तीन लड़कियां [तापसी पुन्नू, कीर्ति कुल्हारी, एंड्रिया] एक रॉक-शो में तीन लड़कों से मिलती हैं. थोड़ी सी जान-पहचान के बाद लड़के जब उनके ‘फ्रेंडली’ होने का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, लड़कियों में से एक उनपे हमला कर देती है. राजवीर [अंगद बेदी] हमले में घायल हो जाता है. लड़कियां भाग निकलती हैं. चार दिन बाद भी, लड़कियां सदमे में हैं. राजवीर ऊँचे रसूख वाला है. पुलिस अब लड़कियों के ही पीछे पड़ी है. बचाने के लिए आगे भी कोई आया है, तो अपने बुढ़ापे और ‘बाइपोलर डिसऑर्डर’ से जूझता एक रिटायर्ड वकील [अमिताभ बच्चन].

अनिरुद्ध रॉय चौधरी की ‘पिंक’ शुरुआत से ही आपको झकझोरने लगती है. हालाँकि पहले भाग में फिल्म का पूरा फोकस लड़कियों के डरे-सहमे चेहरों और उनकी डांवाडोल होती हिम्मत और हौसलों पर ही टिका होता है, पर ये वो हिस्सा है जो आपको सोचने पर मजबूर करता है. अगले भाग में कोर्ट की जिरह में अमिताभ लड़कियों की सुरक्षा, उनकी पसंद-नापसंद, उनके अधिकारों जैसे हर मसले पर मर्दों की सोच पर मजबूती से प्रहार करते हैं. इस हिस्से में फिल्म कहीं-कहीं नाटकीय भी होने लगती है, पर अंत तक पहुँचते-पहुँचते ‘पिंक’ अपनी बात रखने-कहने में बिना हिचकिचाहट सफल होती है.

पहले ही दृश्य में, घबराई हुई मीनल [तापसी] कैब ड्राईवर को डांटते हुए पूछती है, “नींद आ रही है क्या? रुको, आगे बैठकर बातें करती हूँ”. मेरे लिए, तापसी के इस किरदार में धार उसी दम से महसूस होनी शुरू हो जाती है. उसके बाद, बच्चन साब को उसका पलट कर घूरना. निश्चित तौर पर, तापसी इस फिल्म की सबसे मज़बूत कड़ी हैं. अपने से बड़ी उम्र के आदमी के साथ कभी रिश्ते में रही, फलक के किरदार में कीर्ति और ‘नार्थ-ईस्ट’ से होने का दर्द चेहरे पे लिए एंड्रिया; फिल्म के अलग-अलग हिस्सों में अपनी मौजूदगी बार-बार और लगातार दर्ज कराती रहती हैं. अपने ही मुवक्किलों को कटघरे में सवाल दागते उम्रदराज़ वकील की भूमिका में अमिताभ बच्चन बेहतरीन हैं, ख़ास कर उन मौकों पर, जब वो बोलने की जेहमत भी नहीं उठा रहे होते.

अंत में; ‘पिंक’ उन सभी महिलाओं के लिए एक दमदार, जोरदार आवाज़ है, जो हर रोज चुपचाप घरों, दफ्तरों, बाजारों में मर्दों की दकियानूसी सोच, गन्दी नज़र और घिनौनी हवस का शिकार बनती रहती हैं. साथ ही, मर्दों के लिए भी ये उतनी ही जरूरी फिल्म है. देखिये और सोचिये. कहीं आप के अन्दर भी कुछ बहुत तेज़ी से सड़ तो नहीं रहा? [4/5] 

Friday, 9 September 2016

फ्रीकी अली: नवाज़ का ‘कॉमेडी सर्कस’! [2/5]

लेखक-निर्देशक सोहेल खान ने भारतीय टेलीविज़न पर कॉमेडी शोज में जज की भूमिका निभाते हुए अपना काफी वक़्त हँसते-खेलते बिताया है. उनकी नई फिल्म ‘फ्रीकी अली’ को अगर अच्छी तरह बयान करना हो तो उन्हीं कॉमेडी शोज का जिक्र लाजिमी हो जाता है. फिल्म न ही उन तमाम एपिसोड्स से कमतर है, न ही उनसे बेहतर. हां, नवाजुद्दीन सिद्दीकी को मुख्य किरदार के तौर पर फिल्म में ले लेना ज़रूर फिल्म को एक मज़बूत कन्धा दे देता है. कम से कम अब फिल्म के हर फ्रेम में एक ऐसा टैलेंट तो है, जिसे फिल्म भले ही उसकी शख्सियत-मुताबिक तवज्जो न दे पर जो खुद अपने आप को कभी निराश नहीं करता. संवादों में व्यंग परोसने की अपनी लगातार कोशिश के साथ, ‘फ्रीकी अली’ मनगढ़ंत सी लगने वाली, चलताऊ कहानी के बावजूद आप को अपने ठीक 2 घंटे की समय-अवधि में कम से कम उकताहट और उबासी तो महसूस नहीं ही होने देती.

अली ‘फ्रीकी’ क्यूँ है? इसका जवाब तो मुश्किल है पर अपनी गली की क्रिकेट टीम का ‘पिंचहिटर’ अली [नवाज़ुद्दीन] पैसे कमाने के लिए हर तरह की नौकरी-कारोबार आजमा चुका है. हफ्तावसूली उसका एकदम नया वाला पैंतरा है. एक दिन इसी सिलसिले में गलती से उसे ‘गोल्फ’ खेलने का मौका मिलता है. क्रिकेट के अनुभवों से लैस अली जल्द ही गोल्फ की दुनिया में मशहूर हो जाता है. अब उसके और उसके सपनों के बीच बस एक ही अड़चन है, अपनी अमीरी का रौब झाड़ने वाला ‘गोल्फ चैंपियन’ विक्रम सिंह राठौर [जस अरोरा, गुड़ नाल इश्क मिठा वाले]. विक्रम उसे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता और अली उन मौकों को उतनी ही आसानी से उसके खिलाफ इस्तेमाल कर लेता है.

एडम सैंडलर की ‘हैप्पी गिलमोर’ से प्रभावित होकर लिखी गयी, ‘फ्रीकी अली’ की कहानी को मजेदार बनाने के लिए सोहेल खान अपने पुराने ‘हेलो ब्रदर’ ढर्रे का ही सहारा लेते हैं, जहां कहानी के मुख्य किरदार एक अलग ट्रैक पर भटक रहे हैं और दूसरे ट्रैक पर मजाकिया किरदार फिल्म के बीच बीच में आ कर, छोटे छोटे ‘गैग्स एंड गिग्स’ के साथ आपको हंसाने की कोशिश करते हैं. कॉमेडी का ये वो ‘खान’-दान है, जहां हँसी के लिए बूढों, बच्चों और औरतों को गरियाया जाता है, लतियाया जाता है और ऐसा करते वक़्त तनिक शिकन और शर्म भी चेहरे पर आने नहीं दिया जाता. ताज्जुब होता है कि करोड़ों की ये फिल्म उसी छत के नीचे सोची और लिखी गयी है, जहां हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के महानतम लेखकों में से एक अभी भी पूरी तरह सक्षम और सक्रिय है. सोहेल खान बार-बार अपने ‘जोक्स’ को दुहराते रहते हैं, किरदारों को कार्टून बना कर पेश करते हैं और ड्रामा के नाम पर कुछ भी ख़ास परोस पाने में असफल रहते हैं. संवाद और नवाज़ दो ही हैं जो हर बार एक-दूसरे के साथ घुल-मिल कर सोहेल के ‘मजाकिया’ दिवालियेपन को परदे पर नंगा होने से बचा लेते हैं.

कहने को तो यहाँ बहुत कुछ है. एक हट्टा-कट्टा गुंडा जिसकी समझ बच्चे से भी कम है [निकेतन धीर], एक चालाक बूढ़ा आदमी जिसे दुनिया की हर चीज़ याद है पर अपने पैसे और प्रॉपर्टी नहीं, एक माँ जो अपने बेटे के लिए ‘उसके पास माँ है’ की दुहाई देते हुए एक गैंगस्टर से भी भिड़ जाती है [सीमा विश्वास], पर जब अभिनय बात आती है सिर्फ नवाज़ आपको लुभाने में कामयाब रहते हैं. उनके साथी की भूमिका में अरबाज़ बेचारे से लगते हैं, जिन्हें सिर्फ इस लिए फिल्म में लिया गया है क्यूंकि वो ‘खान’दान से हैं. जस अरोरा गुर्राते ज्यादा सुनाई देते हैं. एमी जैक्सन कितनी ईमानदार कोशिश करती होंगी अपने परफॉरमेंस में, इसका अंदाजा आपको इसी बात से हो जाता है कि अक्सर अपनी लाइनें बोलते वक़्त उनके होंठ ही आपस में मिलने से इनकार कर देते हैं. एक दृश्य में जैकी श्रॉफ बस अपने बदनाम ‘मऊशी’ वीडियो क्लिप की ही याद दिलाने परदे पर आ जाते हैं.

अंत में; ‘फ्रीकी अली’ एक बहुत ही सामान्य सी, हलकी-फुलकी फिल्म है, जो दो घंटे के कम वक़्त में भी अपने आप को कई बार दोहराती रहती है. ऐसा लगता है जैसे आप टीवी पर ‘कॉमेडी सर्कस’ का कोई महा-एपिसोड देख रहे हैं, जहां कोई कपिल-कृष्णा-सुदेश नहीं हैं. हैं तो बस नवाज़! सन्डे को टीवी पर आये तो ज़रूर देखियेगा! [2/5]          

बार बार देखो: बच के रहना रे, बाबा! [1.5/5]

जात-पात, उंच-नीच, अमीरी-गरीबी के जंजाल भरे देश में नायक-नायिका का मिल जाना, सबकी राजी-ख़ुशी के साथ शादी कर लेना और ‘जस्ट मैरिड’ की तख्ती वाली कार में बैठ कर हनीमून के लिए निकल जाना; फिल्म की कहानी को अंत करने का इससे अच्छा, सस्ता और टिकाऊ मौका हिंदी सिनेमा को आज तक नहीं मिला है, पर वो ज़माना और था. अब बात शादी पर ख़तम नहीं होती, शादी से शुरू होती है. शादी के बाद क्या? इस एक आशंका भरे सवाल से जूझते युवामन को जानने और टटोलने के लिए नित्या मेहरा की ‘बार बार देखो’ ‘टाइम-ट्रेवल’ जैसे विज्ञान गल्प का सहारा लेती है.

भविष्य के दिन आज ही जीने को मिल जाएँ, तो गलतियां पहचानने और सुधारने की गुंजाईश बनी रहेगी. वक़्त रहते, टूटते रिश्ते बचाए जा सकते हैं. जिन्दगी जीने के तरीके बदले और बेहतर किये जा सकते हैं. फिल्म के अन्दर इस बात को बखूबी समझने-समझाने में भले ही खूब माथापच्ची करनी पड़ी हो, फिल्म देखने के बाद आप इस प्रयोग की महत्ता समझने में तनिक भूल नहीं करते. कितना अच्छा होता, अगर हम भी ‘बार बार देखो’ जैसी भुलावे और बहकावे भरी टाइटल वाली फिल्म देखने की अपनी गलती को सुधार पाते!

दिया [कटरीना कैफ़] और जय [सिद्धार्थ मल्होत्रा] की किस्मत एक साथ ही लिखी हुई है. दोनों 8 साल की उम्र से साथ हैं. दिया की माँ ब्रिटिश हैं और पापा [राम कपूर] पंजाबी. पैदाईश के 4-5 साल बाद तक दिया लन्दन में ही रही थी. पिछले 20 सालों से वो भारत में हैं, पर हिंदी बोलने में आज भी उसको जिस तरह की मशक्कत करनी पड़ती है, फिल्म देखते वक़्त आप दुआ करने लगते हैं कि वो जितना कम बोले, सबकी भलाई के लिए अच्छा ही है. वैसे, भगवान् सबकी कहाँ सुनते हैं!! जय वैदिक गणित का प्रोफेसर है और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाने के सपने देखता आ रहा है. दिया से अपनी शादी के ठीक एक दिन पहले जय शादी तोड़कर कैंब्रिज जाने का फैसला सुना देता है. इससे पहले कि कोई हो-हल्ला हो, जय शैम्पेन की बोतल गटक कर सो जाता है. अगली सुबह होती है थाईलैंड में, जहां उसका हनीमून चल रहा है. शादी हुए 10 दिन बीत चुके हैं. अगली सुबह उसे 2 साल और आगे ले जाती है, और उससे बाद वाली सुबह 12 साल आगे. जैसे कोई उसे उसकी ज़िन्दगी की हाइलाइट्स दिखा रहा हो. जय की शादी टूट रही है. जोड़-घटाने के हिसाब-किताब में उसने अपनी ज़िन्दगी, अपने परिवार की बहुत अनदेखी की, जिसे अब उसे ठीक करना है. पर कैसे?

बार बार देखो’ जिस ठंडे और उबाऊ तरीके से शादी और कैरियर के बीच झूलती ज़िन्दगी को दिखाने और दिखा कर डराने की कोशिश करती है, आप सिनेमाहाल में बोरियत भरे माहौल में गहरे धंसते चले जाते हैं. गर्लफ्रेंड शादी को ही सब कुछ मानती है, और लड़का कैरियर को. दोनों की अपनी-अपनी धुरी पर जम के खड़े रहने की मानो सज़ा मिली हो. कोई अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं. फिल्म भले ही भविष्य के चक्कर लगा आती हो, पर मेच्योरिटी के नाम पर कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती. यहाँ शादी का टूटना आसमान टूट पड़ने से कम नहीं आँका जाता. हालाँकि रोमांटिक फिल्मों को ‘स्मार्ट’ होने का दावा पेश करना हर वक़्त जरूरी नहीं होता, पर जब कहानी में ‘टाइम ट्रेवल’ का तड़का लगा हो तो क्लाइमेक्स का अंदाजा इंटरवल के आस-पास से ही लगने लग जाना अपने आप ही स्क्रिप्ट की कमजोरी बयान कर देता है.  

फिल्म अपने कुछ बेहद खूबसूरत चेहरों और कैमरावर्क [रवि के चंद्रन] की मदद से बहुत हद तक कोशिश करती है कि आपको अपने ‘बनावटी’ जादू में उलझाए रखे, पर फिल्म के सतही इमोशंस आपके आस-पास तक भी पहुँचने का दमखम नहीं जता पाते. सिद्धार्थ पूरी फिल्म में एक ही भाव अपने चेहरे पर ढोते नज़र आते हैं. ‘आज’ को ‘आंज’ और ‘कल’ को ‘कंल’ बोलने के अलावा कटरीना के लिए अगर इस फिल्म में कुछ रोमांचक रहा है करने को, तो वो है उनका सफ़ेद बालों की लटों वाला अधेड़ लुक. वरना तो हैरत होती है, अभी तक कटरीना के लिए परदे पर ‘सबटाइटल्स’ देने का चलन क्यूँ नहीं इस्तेमाल में लाया गया? सह-कलाकारों में सयानी गुप्ता और सारिका अपनी सटीक भूमिकाओं में और देखे जाने की ललक छोड़ जाती हैं.

आखिर में; ‘बार बार देखो’ के साथ तीन-तीन बड़े फिल्म प्रोडक्शन हाउसेस [इरोस, धर्मा और एक्सेल] का जुड़ा होना कहीं न कहीं आपको घोर निराशा की ओर धकेलने लगता है. एक ऐसी फिल्म जिसमें देखने के नाम पर सिर्फ कुछ गिनती के पल हों [ज्यादातर गाने] और बोरियत इतनी कि आप के लिए एक बार ही पूरा बैठ पाना किसी जंग से कम न हो, उसका नाम ‘बार बार देखो’ रख देना ही क्या काफी है? [1.5/5]  

Friday, 2 September 2016

अकीरा: मानसिक अत्याचार! [1/5]

आर मुरुगदास की नई फिल्म ‘अकीरा’ की शुरुआत एक सूफी कहावत से होती है. “कुदरत भी आपके उसी गुण का बार बार इम्तिहान लेती है, जो आपके अन्दर सबसे ज्यादा है”. ये बात मुझ जैसे फिल्म समीक्षकों पर एकदम सटीक बैठती है. शुक्रवार-दर-शुक्रवार खराब फिल्मों को झेलने का जिस तरह का और जितना जोखिम हम उठा रहे होते हैं, उतनी ही बेदर्दी से ख़राब फिल्मों का ज़खीरा अगले हफ्ते फिर हमारी तरफ रुख कर लेता है. इन्तेहा तब हो जाती है, जब ऐसी फिल्मों का तूफ़ान गुज़र जाने के बाद भी, उनके बारे में लिखते वक़्त हमें उस मंज़र को दोबारा याद करना पड़ता है. खैर, ये तो अपनी ही चुनी राह है, तो शिकायत क्यूँ?

अकीरा’ देखने-सुनने से आपको महिलाओं के सशक्तिकरण के हक में आवाज़ उठाने वाली एक अलग फिल्म ज़रूर लग रही होगी, और लगती भी है खासकर फिल्म के पहले 10 मिनट में, जब महिलाओं पर होने वाले ‘एसिड अटैक’ जैसे घिनौने अपराधों का सहारा लेकर फिल्म लड़कियों को आत्म-रक्षा के लिए तैयार रहने की सीख देती है. पर, जल्द ही ये सारा माहौल बदलने लगता है और पूरे का पूरा ध्यान गिनती के चार भ्रष्ट पुलिस वालों के खिलाफ एक तेज़-तर्रार लड़की के संघर्ष पर केन्द्रित हो जाता है. गोविन्द राणे [अनुराग कश्यप] की अगुवाई में चार पुलिसवाले एक एक्सीडेंट के दौरान क्षतिग्रस्त कार की डिग्गी से करोड़ो रूपये उड़ा लेते हैं. गोविन्द के जुल्मों से आजिज़ एक सेक्स-वर्कर गोविन्द के इस इकबालिया बयान की विडियो बना लेती है, पर उसका फायदा उठाने से पहले ही विडियो कैमरा एक कैफ़े से चोरी हो जाता है. शक कुछ स्टूडेंट्स पर जाता है, जो पास के ही हॉस्टल में रहते हैं. उसी हॉस्टल की एक स्टूडेंट है अकीरा [सोनाक्षी सिन्हा], निडर, लड़ाकू और दबंग.

अकीरा’ एक दोयम दर्जे की राइटिंग की शिकार फिल्म है, जहां थ्रिलर के नाम पर कुछ भी उल-जलूल पेश किया जाता है, और जिसकी भनक आपको बहुत पहले ही लग जाती है. एक तरफ तो जहां फिल्म अकीरा के बेख़ौफ़ किरदार के साथ कुछ नया पेश करने का ज़ज्बा दिखाती है, वहीँ पुराने ढर्रे की कहानी और कहानी कहने के तरीके में नयापन न ढूंढ पाने की वजह से बहुत ही आलसी और थकी हुई नज़र आती है. ये वो फिल्म है जो सत्तर या अस्सी के दशक से अब तक कोमा में थी, और जहां अब भी दुश्मनों से निपटने के लिए उन्हें ‘पागलखाने’ भेज दिया जाता है. यहाँ मानसिक रोगियों को ‘पागल’ दिखाने और बोलने में किसी को कोई गुरेज़ या झिझक नहीं होती. यहाँ अब भी हर मनोरोगी का इलाज़ बिजली के झटके और इंजेक्शन ही होते हैं. फिल्म एक हिस्से में बालाजी टेलीफिल्म के धारावाहिकों से भी प्रेरित लगती है, जब नए ज़माने की बहू अपनी सास को पहली बार देखती है और दौड़ कर उसके पैरों के पास से बच्चे के खिलौने उठाने लगती है. सास को लगता है, वो पैर छूने आई थी. बेटे के चेहरे पर कोई भाव नहीं हैं.

अकीरा’ दर्शक के तौर पर आपकी मानसिक क्षमता को कमतर आंकने का दुस्साहस बार-बार करती है. हर छोटी से छोटी बात को तसल्ली से बयान करने में इतना उलझी रहती है कि अपने ढाई घंटे के पूरे वक़्त में ज्यादातर बेमतलब और वाहियात ही लगती है. फिल्म के चंद गिने-चुने मजेदार पल अनुराग कश्यप को देखते हुए बीतते हैं, जहां उनका मजे ले-लेकर अभिनय करना, उनके किरदार के कमीनेपन पर भारी पड़ता रहता है. आखिर के दृश्य में, ये बावलापन और भी बढ़ कर गुदगुदाता है. ईमानदार और चौकस गर्भवती पुलिस अफसर की भूमिका में कोंकना सेन शर्मा पूरी फिल्म में अलग-थलग सी पड़ी रहती हैं. उनका फिल्म में आना-जाना बड़ी बेतरतीबी से होता है. सोनाक्षी अपनी पिछली फिल्मों से अलग यहाँ पूरी शिद्दत से अपने किरदार में ढली रहने की कोशिश करती हैं. एक्शन दृश्यों में उनका आत्मविश्वास और खुल के सामने आता है.

अंत में, ‘अकीरा’ नारी-शक्ति की जिन उम्मीदों की दुहाई देती है, उन्हें तोड़ने और मिट्टी में मिलाने का सुख भी अपने हिस्से ही रखती है. अकीरा की सारी लड़ाई अपने अस्तित्व तक ही सीमित रख कर, वो भी एक ऐसे घटनाक्रम के ज़रिये जहां उसकी मौजूदगी में न कोई वाजिब वजह हो, न कोई संवेदनशील उद्देश्य, फिल्म अपने औसतपन से ऊपर उठने की कोशिश भी नहीं करती. और नीचे गिराने में रही सही कसर पूरी कर देता है, फिल्म का बहुत ही ठंडा, हल्का और लचीला स्क्रीनप्ले. इसे देखना खुद पर एक मानसिक अत्याचार से कम नहीं! [1/5]