Friday, 29 December 2017

ज़बां गुनगुनाती है...(2017's 15 Best Hindi Movie Songs)


# kidre javaan- Haraamkhor
Singer: Jasleen Royal
Lyrics: Aditya Sharma
Composed by: Jasleen Royal

# saahiba- Phillauri
Singers: Pawni Pandey, Romy
Lyrics: Anvita Dutt
Composed by: Shashwat Sachdev

# ye ishq hai- Rangoon
Singer: Arijit Singh
Lyrics: Gulzar
Composed by: Vishal Bhardwaj

# mann beqaid hua- Anaarkali of Aarah
Singer: Sonu Nigam
Lyrics: Prashant Ingole
Composed by: Rohit Sharma

# maana ke hum yaar nahin (female)- Meri Pyaari Bindu
Singer: Parineeti Chopra
Lyrics: Kausar Munir
Composed by: Sachin-Jigar

# o sona tere liye- Mom
Singers: AR Rahman, Shashaa Tirupati
Lyrics: Irshad Kamil
Composed by: AR Rahman

# phir wahi- Jagga Jasoos
Singer: Arijit Singh
Lyrics: Amitabh Bhattacharya
Composed by: Pritam

# tujhe namami ho- Raag Desh
Singers: Shreya, Sunidhi, KK, Rana Mazumder
Lyrics: Sandeep Nath
Composed by: Rana Majumder

# ghar- Jab Harry Met Sejal
Singers: Nikita Gandhi, Mohit Chauhan
Lyrics: Irshad Kamil
Composed by: Pritam

# barfani (female)- Babumoshai Bandookbaaz
Singer: Orunima Bhattacharya 
Lyrics: Ghalib Asad Bhopali
Composed by: Gaurav Dagaonkar

# chal tu apna kaam kar- Newton
Singer: Raghubir Yadav
Lyrics: Irshad Kamil
Composed by: Rachita Arora

# title track- Tu Hai Mera Sunday
Singer: Shalmali Kholgade
Lyrics: Milind Dhaimade
Composed by: Amartya Rahut (Bobo)

# rafu- Tumhari Sulu
Singer: Ronkini Gupta
Lyrics: Santanu Ghatak
Composed by: Santanu Ghatak

# dil diyaan gallan (unplugged)- Tiger Zinda Hai
Singer: Neha Bhasin
Lyrics: Irshad Kamil
Composed by: Vishal and Shekhar

# rozaana- Naam Shabana
Singer: Shreya Ghoshal
Lyrics: Manoj Muntazir
Composed by: Rochak Kohli

Wednesday, 27 December 2017

सिनेमा के 'दाग'...(2017's 10 Worst Hindi Films)


बादशाहो
जिस फिल्म का टाइटल ही बेमतलब, बकवास और सिर्फ बोलते वक़्त वजनी लगने की गैरत से रख दिया गया हो, फिल्म की कहानी से कुछ लेना-देना न हो, उस फिल्म से बनावटीपन और थकाऊ मनोरंजन के सिवा आप चाहते भी क्या थे? तकलीफ ये है कि लाखों (उस वक़्त के हिसाब से) के सोने की कीमत और अहमियत बार-बार बताने वाली 'बादशाहो', अपनी चीख-पुकार, चिल्लाहट से सोने के असली सुख से भी आपको वंचित रखती है. वरना सवा दो घंटे की नींद भी कम फायदे का सौदा नहीं होती!

गोलमाल अगेन
हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का स्तर कुछ इस तलहटी तक जा पहुंचा है, कि रोहित शेट्टी की नयी फिल्म 'गोलमाल अगेन' देख कर सिनेमाहॉल से निकलते हुए ज्यादातर सिनेमा-प्रेमी एक बात की दुहाई तो ज़रूर देंगे, "कम से कम फिल्म में फूहड़ता तो कम है, हंसाने के लिए द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल भी तकरीबन ना के बराबर ही है". हालाँकि जो मिलता है, उसी से समझौता कर लेने और संतुष्ट हो जाने की, हम दर्शकों की यही प्रवृत्ति ही 'गोलमाल' की गिरती साख (जो पहली फिल्म से शर्तिया तौर पर बनी थी) और हंसी के लगातार बिगड़ते ज़ायके के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. सिर्फ अश्लीलता न होने भर की वजह से 'गोलमाल अगेन' को 'पारिवारिक' और 'मनोरंजक' कह देना महज़ एक बचकानी टिप्पणी नहीं होगी, बल्कि हमारी कमअक्ली का एक बेहतरीन नमूना भी. 

राब्ता
'राब्ता' देखते हुए एक ख्याल बार-बार दिमाग में हथौड़े की तरह बजता है कि आखिर कोई भी समझदार इस तरह की बेवकूफ़ी भरी, घिसी-पिटी, वाहियात कहानी पर फिल्म बनाने और उसमें काम करने के लिए राजी क्यूँ, और क्यूँ होगा? फिर याद आये इस फिल्म से निर्देशन में कदम रख रहे दिनेश विजान साब, जो खुद 'बीइंग सायरस', 'लव आज कल', 'कॉकटेल', 'बदलापुर' और 'हिंदी मीडियम' के प्रोड्यूसर रह चुके हैं, और फिर अचानक ही मन की सारी शंकायें, दुविधाएं झट काफ़ूर हो गयीं. 'बॉस हमेशा सही होता है' की तर्ज़ पर एक कहावत फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत मशहूर है, 'मेरा पैसा, मेरा तमाशा'. पैसों की गड्डियों के नीचे दबी डेढ़ सौ पेज की स्क्रिप्ट में खामियां किसे दिखतीं भला. 

फुकरे रिटर्न्स
2013 में मृगदीप सिंह लाम्बा की 'फुकरे' ने दिल्ली के ख़ालिस लापरवाह लौंडों, उनकी छोटी-छोटी तिकड़मों और उनके बेबाक 'दिल्ली-पने' से आपको खूब गुदगुदाया होगा, तब उंगलियाँ नर्म थीं उनकी, चेहरे मासूम और कोशिशें ईमानदार. 4 साल बाद, 'फुकरे रिटर्न्स' में गुदगुदाने की कोशिश करने वाली वही उंगलियाँ अब चुभने लगी हैं. कोशिशें औंधें मुंह गिर पड़ती हैं और फिल्म में मासूमियत की जगह अब भौंडेपन ने ले ली है. नंगे पिछवाड़ों पर सांप डंस रहे हैं, और किरदार चूस-चूस कर उनका ज़हर निकाल रहे हैं. ऐसे दृश्य 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' जैसों में तो बड़ी बेशर्मी से फिट हो ही जाते हैं, यहाँ क्या कर रहे हैं? समझ से परे है.

सरकार 3 
‘फैक्ट्री’ बंद हो चुकी है. ‘कम्पनी’ खुल गयी है. बाकी का सब कुछ वैसे का वैसा ही है. पुराने माल को उसी पुराने बदरंग पैकेजिंग में डाल कर वापस आपको बेचने की कोशिश की जा रही है. अपनी ही फिल्म के एक संवाद ‘मुझे जो सही लगता है, मैं करता हूँ’ को फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने अपनी जिद बना ली है. ‘सरकार 3’ जैसी सुस्त, थकाऊ और नाउम्मीदी से भरी तमाम फिल्में, एक के बाद एक लगातार अपने ज़माने के इस प्रतिभाशाली निर्देशक को उसके खात्मे तक पहुंचाने में मदद कर रही हैं. तकनीकी रूप से फिल्म-मेकिंग में जिन-जिन नये, नायाब तजुर्बों कोरामगोपाल वर्मा की खोज मान कर हम अब तक सराहते आये थे, वही आज इस कदर दकियानूसी, वाहियात और बेवजह दिखाई देने लगे हैं कि दिल, दिमाग और आँखें परदे से बार-बार भटकती हुई अंधेरों में सुकून तलाशने लगती है. और ऐसा होता है, क्यूंकि रामगोपाल वर्मा के सिनेमा की भाषा अब बासी हो चली है. पानी ठहरा हुआ हो, तो सड़न पैदा होती ही है. अपने दो सफल प्रयासों (सरकार और सरकार राज) के बावजूद, ‘सरकार 3’ से उसी सड़न की बू आती है.

मशीन
Machine retreads formula tropes that, by all reckoning, went out of vogue in the last millennium. They look completely out of place in a film that aspires to give Bollywood a male star of the future. Mustafa plays an anti-hero who is accused by the heroine of being a machine - heartless. This charge is levelled against him in the dying minutes of the film. But it doesn't take the audience that long to figure out that Machine is pure drivel - mindless and pointless. (Saibal Chatterjee, Noted Film Critic)

जुड़वाँ 2
बॉलीवुड का एक ख़ास हिस्सा बार-बार बड़ा होने से और समझदार होने से इनकार करता आ रहा है. डेविड धवन भी उनमें शामिल हो चले हैं. डेविड के लिए मनोरंजन के मायने और तौर-तरीके अभी भी वही हैं, जो 20-25 साल पहले थे. हंसी के लिए ऐसी फिल्में मज़ाक करने से ज्यादा, किसी का भी मज़ाक बनाने और उड़ाने में ख़ासा यकीन रखती हैं. तुतलाने वाला एक दोस्त, 'तोतला-तोतला' कहकर जिस पे कभी भी हंसा जा सके. 'पप्पू पासपोर्ट' जैसे नाम वाले किरदार जो अपने रंगभेदी, नस्लभेदी टिप्पणी को ही हंसी का हथियार बना लेते हैं. लड़कियों को जबरदस्ती चूमने, छेड़ने और इधर-उधर हाथ मारने को ही जहां नायक की खूबी समझ कर अपना लिया जाता हो, अधेड़ उम्र की महिलाओं को 'बुढ़िया' और 'खटारा गाड़ी' कह के बुलाया जाता हो. मनोरंजन का इतना बिगड़ा हुआ और भयावह चेहरा आज के दौर में भी अगर 'चलता है', तो मुझे हिंदी सिनेमा के इस हिस्से पर बेहद अफ़सोस है.

हसीना पारकर 
The most interesting part of the film comes right in the end when, accompanying the closing credits, we get a sepia-tinted series of photographs of the real people depicted in this story. Those pictures would have held far more meaning for us though if Haseena Parkar had breathed life into its characters. Sadly, we don't learn much more about them from watching the film in its entirety, than if we had spent about two hours scouring newspaper archives or just staring at those pics. (Anna MM Vetticad, Noted Film Critic)

ट्यूबलाइट 
'ट्यूबलाइट' के होने की वजह मेरे हिसाब से 'बजरंगी भाईजान' की कामयाबी में ही तलाशी गयी होगी. चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने कबीर खान के हाथ अब एक ऐसा अमोघ फार्मूला लग गया था, जिसमें बॉक्स-ऑफिस पर सिक्कों की खनक पैदा करने की हैसियत तो थी ही, आलोचकों और समीक्षकों का मुंह बंद कराने की ताकत और जुड़ गयी. एक सीधी-सादी दिल छू लेने वाली कहानी, थोड़ा सा 'बॉर्डर-प्रेम' का पॉलिटिकल तड़का, चुटकी भर 'बीइंग ह्यूमन' का वैश्विक सन्देश और साफ़ दिल रखने की तख्ती हाथों में लेकर घूमते एक बेपरवाह 'भाईजान'. 'ट्यूबलाइट' बड़े अच्छे तरीके और आसानी से इसी ढर्रे, इसी तैयार सांचे में फिट हो जाती है, पर जब आग में तप कर बाहर आती है तो नतीज़ा कुछ और ही होता है. मिट्टी ही सही नहीं हो, तो ईटें भी कमज़ोर ही निकलती हैं. 

हाफ गर्लफ्रेंड 
कुछ लोगों को साहित्य और सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोसने की लत लग चुकी है. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ बनाने के पीछेमोहित सूरी की वजह थी, इसी नाम से चेतन भगत की ‘बेस्टसेलिंग’ किताब; पर चेतन भगत के लिए ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’लिखने की क्या माकूल वजह थी, मुझे नहीं समझ आता. एक ऐसी किताब, जिसके किरदारों में न रीढ़ की हड्डी हो, न दिमाग़ की नसें, न कायदे के कुछ ठीक-ठाक ज़ज्बात, आखिर क्यूँ कर कोई पढ़ेगा और फिर परदे पर देखेगा भी? तमाम प्रेम-कहानियों में दो आधे-अधूरे मिल कर एक हो ही जाते हैं, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ इतनी वाहियात है कि आधा और आधा मिल के भी आधे-अधूरे ही रहते हैं.

Tuesday, 26 December 2017

अदाकार, जो किरदार बन गए...(2017's 10 Best Performances)


राजकुमार राव, ट्रैप्ड में
झल्लाहट हो, डर हो, खीझ हो, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की जिद हो या फिर नाउम्मीदी में टूट कर बिखरने और फिर खुद को समेट कर उठ खड़े होने का दम; राव अविश्वसनीय तरीके से पूरी फिल्म को अपने मज़बूत कंधे पर ढोते रहते हैं. फिल्म की दमदार कहानी, अपने सामान्य से दिखने वाले डील-डौल की वजह से राव पर हमेशा हावी दिखाई देती है, जिससे दर्शकों के मन में राव के किरदार के प्रति सहानुभूति का एक भाव लगातार बना रहता है, पर धीरे-धीरे जब राव अपने ताव बदलते हैं, फिल्म उनकी अभिनय-क्षमता के आगे दबती और झुकती चली जाती है.

रणबीर कपूर, जग्गा जासूस में 
'जग्गा जासूस' बिना शक रणबीर कपूर की सबसे मजेदार, मनोरंजक और बढ़िया अदाकारी वाली फिल्मों में शामिल होती है. गिनती में 'बर्फी' और 'रॉकस्टार' के ठीक बाद. हालाँकि उनके किरदार में एक वक़्त बाद एकरसता आने लगती है, पर परदे पर उनका करिश्मा तनिक भी कम नहीं पड़ता.

स्वरा भास्कर, अनारकली ऑफ़ आरा में
अनारकली ऑफ़ आरा’ में स्वरा भास्कर एक ज्वालामुखी की तरह परदे पर फटती हैं. अपने किरदार में जिस तरह की आग और जिस तरीके की बेपरवाही वो शामिल करती हैं, उसे देखकर आप उनके मुरीद हुए बिना रह नहीं सकते. ये उनका तेज़-तर्रार अभिनय ही है, जो इस फिल्म के ‘साल के सबसे पावरफुल क्लाइमेक्स’ में आपके रोंगटे खड़े कर देता है. अनारकली का ‘तांडव’, अभिनेत्री के तौर पर स्वरा भास्कर का ‘तांडव’ है. इसके बाद अब शायद ही आप उनके अभिनय-कौशल को शक की नज़र से देखने की भूल करें!

पंकज त्रिपाठी, न्यूटन में
आत्मा सिंह जब बन्दूक न्यूटन के हाथ में थमा कर कहता है, 'ये देश का भार है, और हमारे कंधे पर है'; या फिर जब विदेशी रिपोर्टर पूछती है, 'चुनाव सुचारू रूप से चलाने के लिए आपको क्या चाहिए?" और उसका जवाब होता है, "मोर वेपन (और हथियार)!"; वो आपको खलनायक नहीं लगता, बल्कि आपको उसकी हालत और उसके हालात पर दया ज्यादा आती है. वो भी उसी सिस्टम का मारा है, और महंगा जैतून का तेल खरीदते वक़्त उसके माथे पर भी शिकन आती है.

संजय मिश्रा, कड़वी हवा में 
सूखे, बंजर और रेतीले ज़मीनी समन्दर में लाठी टेकते-टेकते भटकते हुए बूढ़े बाबा के किरदार में संजय मिश्रा बहुत कम बोलते हैं, और सिर्फ जरूरत का ही बोलते हैं, पर उनके अन्दर की कराह, बदलते मौसम और कर्जे में डूबे परिवार की परवाह आपको हर वक़्त, हर फ्रेम में सुनाई देती है. बाप-बेटे में बातचीत नहीं होती, ऐसे में एक दिन बेटा बाबा को घर से बिना बताये बाहर जाने के लिए डांटता है, और बाप सिर्फ इतने से खुश कि इसी बहाने आज मुकुंद ने उनसे बात तो की. संजय मिश्रा इस भूमिका को कुछ इस हद तक परदे पर जीवंत रखते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, आखिरकार एक नेत्रहीन किरदार के रूप में इतना सजीव अभिनय आपने आखिरी बार किसका, कब और कहाँ देखा था? 

दीपक डोबरियाल, हिंदी मीडियम में
दीपक का अभिनय फिल्म में उस ठहराव की कमी पूरी करता है, जो आम तौर पर इरफ़ान से उनकी किसी भी फिल्म में किया जाता है. राज और मीता के मीठे मनोरंजक पलों के बीच सच्चाई का एक बेहद जरूरी व्यंग्यात्मक कसैलापन दीपक ही ले आ पाते हैं. दीपक उन दृश्यों में भी कहीं से कमजोर दिखाई नहीं पड़ते, जिनमें इरफ़ान भी मौजूद हों, और अभिनय में ये रुतबा बहुत कम अदाकारों को ही नसीब है.

विद्या बालन, तुम्हारी सुलू में
'तुम्हारी सुलू' जैसे विद्या बालन के लिए ही बनी हो, बनाई गयी हो. सुलू और विद्या एक पल को भी कभी एक-दूसरे से अलग दिखाई नहीं देते. फिल्म में ऐसे ढेरों दृश्य हैं, जहां आप सुलू की कसक, सुलू की चहक, सुलू की चमक और सुलू के किरदार में विद्या के सरल, सहज, सफल अभिनय के लिए बीच फिल्म में खड़े होकर तालियाँ पीटना चाहते हैं. 

मेहर विज, सीक्रेट सुपरस्टार में
फिल्म भले ही छोटी आँखों वाली इन्सिया के बड़े सपनों की हो, एक किरदार जो उसके साथ-साथ बड़ी मजबूती से उभर कर सामने आता है, वो है नज़मा का. नज़मा के किरदार में मेहर बड़ी आसानी से घुल-मिल जाती हैं. एक समझदार, ज़ज्बाती, सुकून भरी माँ, पति के गरम मिजाज़ सहती-दबती बीवी और इन दोनों के बीच अपनी छोटी-छोटी खुशियों के पल चुराती एक आम सी लगने वाली औरत के किरदार में मेहर का अभिनय कहीं से भी आम नहीं है.  

ललित बहल, मुक्ति-भवन में
ललित बहल के अभिनय में ठहराव फिल्म की रफ़्तार से पूरी तरह कदम मिला कर चलती है. मौत के इंतज़ार में लेटे-लेटे भजन-मंडली से 'सुर में गाने' की फरमाईश हो, या बार-बार अपने सपने को तसल्ली से बेटे-बहू को सुनाने-समझाने की ललक और सनक; ललित अपने अभिनय से हंसाते भी हैं तो एक सूनेपन के साथ. ऐसा सूनापन जो आपको दिनों तक कचोटता रहेगा.  

श्रीदेवी, मॉम में 
'मॉम' श्रीदेवी की 300वीं फिल्म है, और उन्हें परदे पर अदाकारी करते देख लगता है कि जैसे उनके लिए 'कट' की आवाज़ का कोई मतलब ही नहीं. एक बार जो किरदार में उतरीं, तो उसे किनारे तक छोड़ आने से पहले कोई 'कट' नहीं. फिल्म में ऐसे दसियों दृश्य हैं, जिनमें श्री जी को देखते-देखते आप किरदार याद रखते हैं, अदाकारी याद रखते हैं, फिल्म भूल जाते हैं. 

Sunday, 24 December 2017

हमें नाज़ है जिन पर...(2017's 10 Best Hindi Movies)


Trapped
ट्रैप्ड’ भारतीय सिनेमा में ‘सर्वाइवल ड्रामा’ का एक नया अध्याय बड़ी ईमानदारी और पूरी शिद्दत से लिखती है. किशोरावस्था की चुनौतियों से लड़ते ‘उड़ान’ और सिनेमाई परदे की क्लासिक प्रेम-कहानियों को श्रद्धांजलि देती ‘लुटेरा’ के बाद; विक्रमादित्य मोटवाने की ये छोटी सी फिल्म हिंदी सिनेमा के बड़े बदलाव का एक अहम् हिस्सा है. एक ऐसी फिल्म, जिस पर फ़िल्मी दर्शक के रूप में आपको भी नाज़ होगा. कुछ ऐसा जो आपने हिंदी सिनेमा में पहले कभी नहीं देखा.

Tu Hai Mera Sunday
'तू है मेरा सन्डे' हिंदी सिनेमा को एक नया विस्तार देने में बड़ी फिल्म साबित होने का पूरा माद्दा रखती है. 'पैरेलल सिनेमा मूवमेंट' और 'मेनस्ट्रीम मसाला' फिल्मों के बीच, याद कीजिये, कभी साफ़-सुथरी, सरल-सहज, सुगढ़ फिल्मों का एक और दौर दिलों में अपनी जगह बनाया करता था, टीवी पर आते हुए जो आज भी  सालों-साल आपके मनोरंजन की रंगत फीकी नहीं पड़ने देता; 'तू है मेरा सन्डे' उन्हीं तमाम अपनी सी लगने वाली फिल्मों में से एक है.

Poorna
देश में विकास का जो सारा ताना-बाना शहरों और गाँवों को जोड़ने की बात करता है, ‘पूर्णा’ काफी हद तक उसकी कड़वी सच्चाई आप तक पेश कर पाती है. ‘पूर्णा’ आपको कचोटती है, जब आप शादी के जंजाल में बाँध दी गयी प्रिया को पहली बार साड़ी में देखते हैं. ‘कुछ कर गुजरने’ की चाह लिए मोटी-मोटी आँखों वाली बच्ची को ‘सब कुछ करने-सहने वाली’ औरत बनाने पर हम कैसे और क्यूँ आमादा हो जाते हैं? ‘पूर्णा’ आपको अन्दर से तोड़ देती है, जब सिर्फ 13 साल की पूर्णा को आप हालातों से लड़ते-झगड़ते-बढ़ते देखते हैं. हालाँकि प्रवीण कुमार जैसे जज्बाती और जुझारू लोगों की ईमानदार कोशिशों पर रौशनी डालकर, ‘पूर्णा’ उम्मीदें भी बहुत जगाती है. सिनेमा के लिए भी, समाज के लिए भी.

Mukti Bhawan
मुक्ति-भवन’ जीवन-मृत्यु के घोर-चिंतन और रिश्तों की पेचीदगी को बड़ी परिपक्वता और पूरी संजीदगी से कुछ इस तरह परदे पर जिंदा करती है, कि आप जिंदगी से कहीं ज्यादा मौत के फ़लसफ़े का आनंद लेने में मग्न रहते हैं. फिल्म में मिश्राजी बिना बात राजीव को मशवरा देते हैं, “आप पान खाया कीजिये!”, ‘मुक्ति-भवन’ के लिए मैं भी कुछ ऐसा ही कहूँगा, “देख आईये! कुछ बातों के लिये वजहें खोजने की जरूरत नहीं. कुछ बातों को वजहों की दरकार नहीं.” सिनेमाई परदे पर जीवन-मृत्यु को लेकर दर्शन-चिंतन और मनोरंजन का इतना सटीक मेल-मिलाप पिछली बार रजत कपूर की ‘आँखों-देखी’ में ही दिखा था.

kadvi Hawa
'कड़वी हवा' जिस ठहराव के साथ आपको खेतिहर किसानों की जिंदगी में उठते-बनते झंझावातों की तरफ धकेलती है, आप चाह कर भी उन ज़ज्बातों से अछूते नहीं रह पायेंगे. दृश्यों को सच्चाई के एकदम आसपास तक लाकर छोड़ जाने में नील माधव पंडा बखूबी सफल रहते हैं. गर्मी से बदहाल सरकारी बैंक के कर्मचारी बनियान में ही अपना काम निपटा रहे हैं. पैसों की वसूली के लिए यमराज बने घूमते गन्नू पर भी दूधवाले का दो महीने से पैसा उधार है. इसी संजीदगी के साथ 'कड़वी हवा' पहले तो आपको किरदारों से जोड़ती है, फिर उनकी कहानी का हिस्सा बनने का पूरा-पूरा मौका देती है, ताकि अंत तक आते-आते जब एक नाटकीय मोड़ के सहारे आपको फिल्म और कहानी के मुख्य खलनायक (क्लाइमेट चेंज) से रूबरू होना पड़े, तो न सिर्फ आप सिहर उठें, बल्कि थिएटर छोड़ते-छोड़ते इस बेहद जरूरी मुद्दे को कम आंकने की भूल से भी बचें.

Anaarkali of Aarah
‘अनारकली ऑफ़ आरा’ तरह-तरह के (अच्छे, बुरे) मर्दों से भरी एक ऐसी गज़ब की फिल्म है, जिसमें एक औरत ‘नायिका’ बन के उभरने का इंतज़ार नहीं करती, और ना ही ‘नायिका’ बनने के तुरंत बाद वापस अपने ढर्रे, अपने सांचे, अपने घोंसले में लौट जाने का समझौता! अविनाश दास से शिकायत बस एक ही रहेगी कि काश, ये फिल्म, अपनी पृष्ठभूमि और बोल-चाल, लहजे की वजह से, भोजपुरी भाषा में बनी होती या बन पाती! कम से कम, उस डूबते जहाज़ के हिस्से एक तो मज़बूत हाथ आता, जो उसे अकेले किनारे तक खींच लाने का दमख़म रखता है!

Newton
न्यूटन की ईमानदारी, उसकी साफगोई, बदलाव के लिए उसकी ललक कहीं न कहीं आपको उसकी तरफ खींच कर ले जाती है. ऐसे न्यूटन अक्सर सरकारी दफ्तरों में किसी अनजाने टेबल के पीछे दफ़न भले ही हो जाते हों, उनकी कोशिशों का दायरा भले ही बहुत छोटा रह जाता है, पर समाज में बदलाव की जो थोड़ी बहुत रौशनी बाकी है, उन्हीं से है. ठीक 9 बजे ऑफिस आ जाने वालों पर हँसते तो हम सभी हैं, पर शायद ऐसे न्यूटन भी उन्हीं में से एक होते हैं. फिल्म में ट्रेनर की भूमिका में संजय मिश्रा फरमाते हैं, "ईमानदार होके आप कोई एहसान नहीं कर रहे, ऐसा आपसे एक्सपेक्टेड है'. कम से कम फिल्म इस कसौटी पर सौ फीसदी सही साबित होती है.

Gurgaon
'गुड़गांव' नए हिंदी सिनेमा आन्दोलन का एक अहम हिस्सा है. अपराध की फिल्मों का एक ऐसा अलग चेहरा, जो घटनाओं को ताबड़तोड़ खून से रंग देने की बजाय आपको उस अँधेरे माहौल में पहले धकेल देती है, जहां खेल रचने वाला है. हो सकता है, कई बार आप उकता जायें, या घुटन सी होने लगे; पर एक बार जो नशा चढ़ा, दिनों तक उतरेगा नहीं.

A Death in The Gunj
‘अ डेथ इन द गंज’ उन चंद रोमांचक बॉलीवुड फिल्मों में से है, जो आपके अन्दर सिहरन पैदा करने के लिए कोई झूठा खेल नहीं रचतीं, बल्कि आपको उस माहौल में हाथ पकड़ कर खींच ले जाती हैं, जहां आप हर वक़्त अपने दिल-ओ-दिमाग़ के साथ ‘जो हुआ, वो कैसे हुआ’, ‘जो हुआ, वो किसके साथ हुआ’ और ‘जो हुआ, वो कब होगा’ की लड़ाई लड़ते रहते हैं. ‘अ डेथ इन द गंज’ इस साल की ‘मसान’ है, उतनी ही ईमानदार, उतनी ही संजीदा, उतनी ही रोचक!

Lipstick under my Burkha
'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' एक कोशिश है कि आप औरतों की शख्सियत का वो पहलू भी देख पायें, जहां उनकी पहचान माँ, बेटी, बहन, बीवी से अलग हटकर सिर्फ और सिर्फ एक औरत होने की है. मर्दों के बदलने का इंतज़ार छोड़िये, अगर फिल्म देख कर औरतें भी अपने आप और अपनी ख्वाहिशों के लिए कदम बढ़ाने की हिम्मत जुटा पायें; समझिये लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' की कामयाबी वहीँ कहीं मिलेगी. फिल्म के आखिर में चारों अहम् किरदार (बुआजी, लीला, शीरीन, रिहाना) तमाम गहमा-गहमी के बीच एक कमरे में बैठ कर रोज़ी की कहानी का अंत पढ़ने में मशगूल हो जाते हैं; कोई क्रांति नहीं आती, कोई भूचाल नहीं आता. वो आपको करना है, और अगर आप पहलाज निहलानी नहीं हैं, तो ये ज्यादा मुश्किल भी नहीं है.

Friday, 22 December 2017

टाइगर ज़िंदा है: ...पर कहानी का क्या? [2.5/5]

क्या आपको पता है, सी पी प्लस ('ऊपर वाला सब देख  रहा है' की टैगलाइन वाले)ब्रांड के सीसीटीवी कैमरा इराक में भी बिकते हैं? क्या आपको पता है, रॉ अपने सीक्रेट मिशन के कोडवर्ड के तौर पर हिंदी गानों का इस्तेमाल करती है? तूतू तू, तूतू तारा, आ गया दोस्त हमारा? क्या आपको पता है, आखिरी मिनटों में टाइम बम रोकने के लिए 'लाल' तार ही काटना होता है? और अगर लाल तार हो ही नहीं, तो पूरा बम निकाल फेंक देने में ही समझदारी है? क्या आपको पता है, रॉ की ही तरह पाकिस्तान की आईएसआई एजेंसी भी 'शांति' चाहती है? क्या आपको पता है, भारत और पाकिस्तान लोग जब भी मिलते हैं 'ग़दर', सानिया-शोएब और क्रिकेट की ही बातें करते हैं? 

अली अब्बास ज़फर की 'टाइगर ज़िंदा है' आपके ऐसे ढेर सारे वाहियात सवालों का गिन गिन के पूरा जवाब देती है. बस भूल जाती है तो एक अहम सवाल, "कहानी का क्या हो रहा है, भाई?". ये सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है क्यूंकि फिल्म में एक अदद अच्छी कहानी की झलक कभी-कभी ही सही, साफ़ तौर पर दिखती है. तकलीफ ये है कि फिल्म ज्यादातर वक़्त (सलमान) भाई के स्लो-मोशन शॉट्स और गोला-बारूद के बीच फिल्माए गए एक्शन दृश्यों में ही खुले हाथों खर्च होती रहती है.  

ईराक के एक अस्पताल में आतंकवादियों ने 25 भारतीय और 15 पाकिस्तानी नर्सों को बंधक बना रखा है. भारत की ओर से एजेंट टाइगर (सलमान खान) ही है, जो इस मिशन को अंजाम दे सकता है. पाकिस्तान की ओर से एजेंट ज़ोया (कटरीना कैफ़) को ये इज्ज़त बख्शी जाती है, जो इत्तेफ़ाक से टाइगर की बीवी भी हैं. इस बीच आतंकवादी संगठन के प्रमुख अबू उस्मान (सज्जाद देलाफरूज़) पर अमेरिका की भी नज़र बनी हुई है, हवाई हमला कभी भी हो सकता है. टाइगर और ज़ोया के पास सिर्फ 7 दिन हैं इस मिशन को पूरा करने के लिए. 

इसी साल की मलयालम फिल्म 'टेक ऑफ' इसी विषय पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है. इससे उबरें, तो कभी उधर भी तशरीफ़ ले जाईये. फ़िलहाल, बात 'टाइगर ज़िंदा है' की. सलमान की फिल्मों से अक्सर शिकायत रहती है, कहानी के नदारद होने की. इस फिल्म के बाद ये शिकायत बंद कर देनी चाहिए. आख़िरकार, किसी भी अच्छी-भली कहानी को सलमान की क्या जरूरत? फिल्म देखते वक़्त आप बड़ी आसानी से तय कर पायेंगे कि फिल्म दो सतहों पर चलती नज़र आती है. एक, जहाँ बंधक नर्सों की कहानी आपको हर बार बांधे रखना चाहती है, मगर उसे तयशुदा वक़्त नहीं मिलता. और दूसरा, जहां सलमान अपनी हरकतों पर वक़्त जाया करने से बाज़ नहीं आते. भला हो, फिल्म के बड़े कैनवास का, कुछ बेहद कसे हुए रोमांचक एक्शन दृश्यों का, जो बेवजह ही सही, मजेदार लगते हैं.

बंद घड़ी भी दिन में दो बार सही वक़्त बताती है. फिल्म भी लगभग इतनी ही बार ईमानदार दिखती है. मिशन पर एक नौजवान एजेंट अपने साथ तिरंगा लेकर आया है, और मिशन ख़त्म होने पर उसे लहराने-फहराने का मौका छोड़ना नहीं चाहता. एक अंडर-कवर एजेंट के लिए तिरंगा साथ रखना मिशन के लिए खतरनाक हो सकता है, इसलिए टाइगर उसे समझाता है, 'ज़ज्बा रखना ठीक है, ज़ज्बाती होना नहीं'. ठीक ऐसे ही, फिल्म भारत-पाकिस्तान के बीच सुलह, शांति और अमन की बात कई मौकों पर बड़ी दिलेरी से सामने रखती है. हालाँकि ज्यादातर वक़्त ये सब आपको प्रवचन से ज्यादा और कुछ नहीं लगता. 

जहाँ तक मुझे लगता है, कुदरती रूप से रॉ एजेंट जासूस ही होते हैं, पर 'टाइगर ज़िंदा है' एक औसत जासूसी-थ्रिलर होने के करीब भी नहीं पहुँचती और एक ठीक-ठाक एक्शन-एंटरटेनर होके ही रह जाती है. हालाँकि फिल्म में सलमान ताबड़तोड़ आतंकवादियों पर गोलियां बरसाते हैं, गोले दागते हैं, और अंत तक सबको बचाने में कामयाब भी साबित होते हैं, पर वहीँ किसी एक कोने में दम तोड़ती एक रोमांचक कहानी को देर तक जिंदा नहीं रख पाते. क्या फर्क पड़ता है, और फ़िक्र भी क्यूँ? जब तक एक अदद नाम का ही जलवा काफी है, कारगर है, बरक़रार है. [2.5/5]  

Friday, 8 December 2017

फ़ुकरे रिटर्न्स: व्हाट द फ़* रे! [1.5/5]

4 साल बहुत होते हैं बनने-बिगड़ने के लिए. 2013 में मृगदीप सिंह लाम्बा की 'फुकरे' ने दिल्ली के ख़ालिस लापरवाह लौंडों, उनकी छोटी-छोटी तिकड़मों और उनके बेबाक 'दिल्ली-पने' से आपको खूब गुदगुदाया होगा, तब उंगलियाँ नर्म थीं उनकी, चेहरे मासूम और कोशिशें ईमानदार. 4 साल बाद, 'फुकरे रिटर्न्स' में गुदगुदाने की कोशिश करने वाली वही उंगलियाँ अब चुभने लगी हैं. कोशिशें औंधें मुंह गिर पड़ती हैं और फिल्म में मासूमियत की जगह अब भौंडेपन ने ले ली है. नंगे पिछवाड़ों पर सांप डंस रहे हैं, और किरदार चूस-चूस कर उनका ज़हर निकाल रहे हैं. ऐसे दृश्य 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' जैसों में तो बड़ी बेशर्मी से फिट हो ही जाते हैं, यहाँ क्या कर रहे हैं? समझ से परे है. गनीमत की बात सिर्फ इतनी है कि चूचा (वरुण शर्मा) तनिक भी बड़ा नहीं हुआ, और तब पंडित जी का छोटा सा किरदार करने वाले, पंकज त्रिपाठी की पहचान कलाकार के तौर पर अब अच्छी खासी बड़ी हो गयी है. इन दोनों के ही भरोसे फिल्म जितनी भी देर झेली जा सकती है, झेली जाती है.

बेईमान मंत्री बाबूलाल (राजीव गुप्ता) की मदद से भोली पंजाबन (रिचा चड्ढा) जेल से बाहर आ गयी है, और अब फुकरों की टोली से अपनी आज़ादी के लिए खर्च किये पैसों की भरपाई उनसे चाहती है. प्लान वही है, चूचा सपने देखेगा और हन्नी (पुलकित सम्राट) उसके सपने से लॉटरी का नंबर निकालेगा. ज़फर (अली फज़ल) और लाली (मनजोत सिंह) भी रहेंगे, पर क्यों? न कहानी में इसकी कोई बहुत ख़ास वजह मिलती है, ना ही फिल्म में. बहरहाल, प्लान फेल हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के बहुत सारे दोहराव वाले जोक्स. खैर, मदद को इस बार चूचे का एक नया टैलेंट सामने आता है. उसे भविष्य दिखाई देने लगा है. एक गुफ़ा, एक टाइगर, उसका बच्चा, दो राक्षस और एक गुप्त खज़ाना.

जहाँ अपनी पहली फिल्म में, मृगदीप कहानी में हास्य पिरोने का सफल प्रयोग करते हुए दिखाई दिये थे, 'फुकरे रिटर्न्स' में हास्य के अन्दर कहानी डालने की नाकाम कोशिशें करते हैं, और लगातार करते रहते हैं. बीफ़ बैन, इंडिया गेट पर योग करते राजनेता, जानवरों और अंगों की तस्करी जैसे मुद्दों का भी इस्तेमाल करते हैं, पर आखिर में एक काबिल और भरोसेमंद कहानी का अभाव इन सारी कोशिशों को मटियामेट कर देता है. इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि फिल्म के सबसे मनोरंजक दृश्यों में ज्यादातर फिल्म के सह-कलाकारों के हिस्से आये दृश्य ही शामिल हैं. यमुना नदी के काले गंदे पानी में डुबकी मार कर सिक्के बटोरने वाला आदमी हो, या भोली पंजाबन के बेरोजगार, लाचार, हिंदी बोलने वाले अफ़्रीकी गुर्गे. इनकी संगत और रंगत में आपको ज्यादा मज़ा आता है. 

अली फज़ल को फिल्म में यूँ खर्च होते देखना खलता है. पूरी फिल्म में वो जैसे 'फुकरे' करने का खामियाज़ा भुगत रहे हों. फिल्म की पटकथा मनजोत के साथ भी ऐसी ही कुछ नाइंसाफी बरतती है. पुलकित सम्राट अपनी पिछली कुछ फिल्मों से बेहतर नज़र आते हैं. मुंहफट, लड़ाकू, खूंखार भोली पंजाबन की भूमिका में रिचा चड्ढा इस बार थोड़ी कमज़ोर दिखती हैं. ऐसा इसलिए भी मुमकिन है क्योंकि फिल्म उनके किरदार से कॉमेडी की उम्मीदें लगा बैठती है. आखिर में, बच-बचा के वरुण शर्मा और पंकज त्रिपाठी ही रह जाते हैं. पंकज अपनी चिर-परिचित भाव-भंगिमाओं से ही दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं, ऊपर से हर संवाद के बाद उनका एक 'फाइनल कमेंट'. इस एक अदाकार को आप घंटों एकटक देख सकते हैं, और बोर नहीं होंगे. वरुण के अभिनय की मासूमियत भी कुछ ऐसी ही है, लेकिन उनका अपने आप को बार-बार दोहराना थोड़ा निराश करता है. वरना तो 'फुकरे रिटर्न्स' के असली फुकरे वही हैं. 

अंत में; लाम्बा ने यमुना पार की तंग गलियों से लेकर गुडगाँव की रेव पार्टियों तक का जिक्र और इत्र जिस चालाकी से 'फुकरे' में पेश किया था, 'फुकरे रिटर्न्स' सतही तौर ही दिल्ली को फिल्म में ढाल पाती है. गौर करने वाली एक नयी बात सिर्फ इतनी सी है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री 'स्कैम'-विरोधी है, पैंट-शर्ट पहनता है और सिर्फ एक फ़ोन पर किसी से भी मिल सकता है. काश, फिल्म थोड़ी और दिल्ली की हो पाती, और अपने आपको कम दोहराती! [1.5/5]

Friday, 1 December 2017

फिरंगी: बोर, ढीली और लम्बी! [2/5]

फ़िल्म और कहानी के तौर पर 'फिरंगी' से ज्यादा उम्मीदें न रखने का एक फायदा तो होता है; अपने खर्चीले प्रॉडक्शन डिजाईन, बेहतर कैमरावर्क और कसे हुए स्क्रीनप्ले से फिल्म के पहले 15-20 मिनट आपको इतना उत्साहित कर देते हैं कि आप 'कपिल शर्मा की फिल्म' को एक अलग ही नजरिये से देखने लगते हैं. यकीन मानिए, शुरूआती रुझानों से इन पहले 15-20 मिनटों की फिल्म को 'लगान' जैसी क्लासिक फिल्म से तौल कर देखने की भूल कोई भी बड़ी आसानी से कर लेगा, पर असली इम्तिहान की घड़ी तो उसके कहीं बाद शुरू होती है. 'फिरंगी' अभी भी ढाई घंटे बची रहती है, और कुल मिला कर अपने 2 घंटे 40 मिनट के लम्बे सिनेमाई वक़्त में आपको पूरे तबियत से झेलाती है. 

अपनी पहली फिल्म 'किस किसको प्यार करूं?' में अपने ख़ास कॉमेडी अंदाज़ को भुनाने के असफल प्रयास के बाद, कपिल शर्मा इस बार 'फिरंगी' में थोड़े संजीदा दिखने और लगने की कोशिश करते हैं. फिल्म देश की आजादी से 26 साल पहले के साल में घूमती है, जहां एक तरफ लोग गांधीजी की आवाज़ पर अंग्रेजों से असहयोग की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीँ एक सीधा सादा नौजवान ऐसा भी है, जो अंग्रेजों को इतना बुरा भी नहीं मानता. आख़िरकार इस निठल्ले मंगा (कपिल शर्मा) को अँगरेज़ अफसर के यहाँ नौकरी जो मिली है, वर्दी वाली. मंगा का भरम तब टूटता है, जब अय्याश राजा साब (कुमुद मिश्रा) के साथ मिलकर उसके अपने डेनिएल्स साब (एडवर्ड सोननब्लिक) गाँव की जमीन हथियाने के लिए धोखे से मंगा का ही इस्तेमाल कर लेते हैं. मंगा के हिस्से सिर्फ गाँव वालों का विश्वास तोड़ने का इलज़ाम ही नहीं है, सरगी (इशिता दत्ता) के साथ उसकी शादी भी अब होने से रही.

'फिरंगी' अपने किरदारों के बातचीत, लहजों और 1920 के ज़माने के गंवई रहन-सहन को यकीनी तौर पर सामने रखने में काफी हद तक कामयाब रहती है. हालाँकि 'लगान' के साथ उसका मेल-जोल सिर्फ दृश्यों की बनावट, रंगत और सूरत तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि धीरे-धीरे आपको पूरी फिल्म ही 'लगान' की नक़ल लगने लगती है. कहानी कहने के लिए बच्चन साब की आवाज़ का इस्तेमाल हो या अँगरेज़ अफसर के हाथों कठपुतली बनते राजा साब के फर्ज़ी तेवर; 'फिरंगी' हर दृश्य गढ़ने के लिए जैसे 'लगान' की ओर ही ताकती नज़र आती है. अफ़सोस की बात ये है कि न ही 'फिरंगी' के मंगा में 'लगान' के भुवन जितनी भूख, आग और तड़प है, ना ही 'फिरंगी' की कहानी में उतनी ईमानदारी, सच्चाई और चतुराई. ऊपर से देशप्रेम का तड़का भी नाममात्र का. 

मंगा के किरदार में कपिल उस हिसाब से तो फिट दिखते हैं, जहाँ दोनों की शख्सियतों में साझा हंसी, ख़ुशी और पंजाबियत परदे पर दिखानी होती है, पर कपिल से फिल्म के नाज़ुक और संजीदा हिस्सों में अदाकारी के जौहर की उम्मीद करना फ़िज़ूल ही है. इशिता दत्ता खूबसूरत लगती हैं, और शायद उनके किरदार से फिल्म की उम्मीदें भी इतनी ही रही होंगी. एडवर्ड सोननब्लिक अच्छे लगते हैं. लन्दन में पढ़ी-लिखी राजकुमारी के किरदार में मोनिका गिल जैसे सिर्फ और सिर्फ 'लगान' की एलिजाबेथ मैडम की कमी पूरी करने के लिए हैं. कुमुद मिश्रा बेहतरीन हैं. फिल्म के दूसरे सह-कलाकारों में राजेश शर्मा, ज़मील खान, इनामुलहक और अंजन श्रीवास्तव जैसे बड़े और काबिल नाम निराश नहीं करते.

आखिर में; 'फिरंगी' एक फिल्म के लिहाज़ से उतना निराश नहीं करती, जितना कपिल शर्मा एक अदाकार के तौर पर करते हैं. कहानी फिल्म की लम्बाई के लिए छोटी पड़ जाती है, बेहतरीन प्रॉडक्शन डिजाईन लाख कोशिशों के बाद भी आपको मनोरंजन के सूखे से उबार नहीं पाता, और ख़तम होते-होते तक फिल्म को 'लगान' समझने की आपकी भूल, अब जैसे कोई जुर्म कर बैठने का एहसास कराने लगती है. [2/5]               

Friday, 24 November 2017

कड़वी हवा: एक जरूरी फिल्म, कड़वी दवा की तरह! [3.5/5]

किसानों की आत्महत्याएं अब अखबारों और समाचारों की सुर्खियाँ नहीं बटोर पातीं. खबर देने की गरज़ से किसी कोने-किनारे में जगह मिल भी जाती है, तो हम उसे पढ़ कर संवेदनाएं व्यक्त करने के नाम पर जीभ को उपरी तलुवे से तीन बार गिन कर चिपकाते हैं, छुड़ाते हैं और 'च्च, च्च, च्च' करने से ज़्यादे की ज़ेहमत भी नहीं उठाते. 'क्लाइमेट चेंज' की तो पूछिए ही मत! इस मुद्दे पर तो हमारा चिंतन, मनन और ज्ञान इतना सीमित है कि अप्रैल-मई में बेडरूम का एयर-कंडीशनर काम न करे, 'ग्लोबल वार्मिंग' के प्रभाव तभी याद आते हैं. इन दोनों ही लिहाज़ से नील माधव पंडा की 'कड़वी हवा' एक निहायत ही अच्छी और जरूरी फिल्म है. बंजर हो चले किसानों के रूंधे, सूखे गलों में घुटती चीखों, कराहों को सुन्न पड़ते कानों तक पहुंचाने में, 'कड़वी हवा' किसी कड़वी दवा की तरह ही पुरजोर असर करती है. 

बूढ़े बाबा (संजय मिश्रा) देख नहीं सकते, लेकिन हवा की खूब परख है उनको. कहते हैं, "आजकल हवा कुछ बीमार चल रही है". स्कूल में मास्टरजी पूछते हैं, "मौसम कितने होते हैं?"; बच्चे को दो ही पता हैं, सर्दी और गर्मी. बरसात तो वैसे भी कभी कभी ही होती है, कभी कभार सर्दी में, तो कभी गर्मी में. यहाँ खेतों में फसल कम उगती है, सरकारी कर्जों पर ब्याज़ अनचाही, मनमौजी बेल की तरह बढती ही रहती है. मोपेड पर बैंक का सरकारी एजेंट गन्नू (रनवीर शौरी) यमराज की तरह सबके हिसाब-किताब लेकर घूमता रहता है. बाबा के बेटे मुकुंद के सर का क़र्ज़ भी 25 हज़ार से बढ़कर 42 हज़ार तक पहुँच गया है. बाबा डरते हैं, कहीं रामसरन जैसे दूसरे किसानों की तरह ही उनका बेटा भी...!

सूखे, बंजर और रेतीले ज़मीनी समन्दर में लाठी टेकते-टेकते भटकते हुए बूढ़े बाबा के किरदार में संजय मिश्रा बहुत कम बोलते हैं, और सिर्फ जरूरत का ही बोलते हैं, पर उनके अन्दर की कराह, बदलते मौसम और कर्जे में डूबे परिवार की परवाह आपको हर वक़्त, हर फ्रेम में सुनाई देती है. बाप-बेटे में बातचीत नहीं होती, ऐसे में एक दिन बेटा बाबा को घर से बिना बताये बाहर जाने के लिए डांटता है, और बाप सिर्फ इतने से खुश कि इसी बहाने आज मुकुंद ने उनसे बात तो की. संजय मिश्रा इस भूमिका को कुछ इस हद तक परदे पर जीवंत रखते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, आखिरकार एक नेत्रहीन किरदार के रूप में इतना सजीव अभिनय आपने आखिरी बार किसका, कब और कहाँ देखा था? 'चौरंगा' के धृतिमान चटर्जी मेरे ज़ेहन में तुरंत आ जाते हैं. 

कुछ ऐसा ही कमाल रनवीर शौरी भी कर गुजरते हैं. हालाँकि उनके किरदार की बोलचाल पहले पहल आपको अटपटी सी लगती है, पर धीरे-धीरे जब आप पर उनके उड़िया होने का खुलासा ज़ाहिर होता है, आप उनके किरदार के साथ बेपरवाह जुड़ने लगते हैं. तिलोत्तमा शोम चौंकाती हैं. कुछेक दृश्यों में उनका अभिनय चेहरे के भावों का मोहताज़ भी नहीं रहता और अपना लोहा बड़ी मजबूती से मनवा जाता है. 

'कड़वी हवा' जिस ठहराव के साथ आपको खेतिहर किसानों की जिंदगी में उठते-बनते झंझावातों की तरफ धकेलती है, आप चाह कर भी उन ज़ज्बातों से अछूते नहीं रह पायेंगे. दृश्यों को सच्चाई के एकदम आसपास तक लाकर छोड़ जाने में नील माधव पंडा बखूबी सफल रहते हैं. गर्मी से बदहाल सरकारी बैंक के कर्मचारी बनियान में ही अपना काम निपटा रहे हैं. पैसों की वसूली के लिए यमराज बने घूमते गन्नू पर भी दूधवाले का दो महीने से पैसा उधार है. इसी संजीदगी के साथ 'कड़वी हवा' पहले तो आपको किरदारों से जोड़ती है, फिर उनकी कहानी का हिस्सा बनने का पूरा-पूरा मौका देती है, ताकि अंत तक आते-आते जब एक नाटकीय मोड़ के सहारे आपको फिल्म और कहानी के मुख्य खलनायक (क्लाइमेट चेंज) से रूबरू होना पड़े, तो न सिर्फ आप सिहर उठें, बल्कि थिएटर छोड़ते-छोड़ते इस बेहद जरूरी मुद्दे को कम आंकने की भूल से भी बचें. [3.5/5]                

Friday, 20 October 2017

गोलमाल अगेन: न लॉजिक, न मैजिक! [1.5/5]

हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का स्तर कुछ इस तलहटी तक जा पहुंचा है, कि रोहित शेट्टी की नयी फिल्म 'गोलमाल अगेन' देख कर सिनेमाहॉल से निकलते हुए ज्यादातर सिनेमा-प्रेमी एक बात की दुहाई तो ज़रूर देंगे, "कम से कम फिल्म में फूहड़ता तो कम है, हंसाने के लिए द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल भी तकरीबन ना के बराबर ही है". हालाँकि जो मिलता है, उसी से समझौता कर लेने और संतुष्ट हो जाने की, हम दर्शकों की यही प्रवृत्ति ही 'गोलमाल' की गिरती साख (जो पहली फिल्म से शर्तिया तौर पर बनी थी) और हंसी के लगातार बिगड़ते ज़ायके के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. सिर्फ अश्लीलता न होने भर की वजह से 'गोलमाल अगेन' को 'पारिवारिक' और 'मनोरंजक' कह देना महज़ एक बचकानी टिप्पणी नहीं होगी, बल्कि हमारी कमअक्ली का एक बेहतरीन नमूना भी. 

वैसे हंसी के लिए यहाँ भी कम सस्ते हथकंडे नहीं अपनाये जाते. गुस्सैल नायक के ऊपर उठने वाली ऊँगलियाँ करारी भिंडियों की तरह बार-बार तोड़ी जाती हैं. दुश्मन को 'धोने' के लिए उसे वाशिंग मशीन में डाल कर घुमाया जाता है. और तुर्रा ये कि ऐसा करते वक़्त दीवार पर चार्ली चैपलिन की तस्वीर तक दिखाई जाती है, मानो हालातों के मारे चैपलिन अभिनीत किरदारों के मुसीबत में घिरने से पैदा होती कॉमेडी की तुलना इन अधपके दृश्यों से की जा रही हो. थप्पड़ों की तो पूछिए ही मत! कब, किसने, किसको और कितनी बार मारा, दर्शकों के लिए एक रोचक जानकारी (फन फैक्ट) के तौर पर सवाल की तरह पेश किया जा सकता है; ठीक वैसे ही जैसे 'मैंने प्यार किया' फिल्म के 'कबूतर जा जा जा' गाने में 'जा' शब्द कितनी बार आया है? या फिर 'एक दूजे के लिए' फिल्म के एक ख़ास गाने में कितनी फिल्मों के नाम शामिल हैं? 

फ्रेंचाईज़ फिल्मों में पैर जमाये बैठे, रोहित शेट्टी 'गोलमाल' सीरीज की इस नयी फिल्म में हॉरर-कॉमेडी का तड़का लगाने के लिए एक अच्छी-खासी कहानी कहने की कोशिश करते हैं, जो अपने आप में और उनकी फिल्मों के लिए भी बड़ी हैरत और हैरानी की बात है. एक अच्छी सूरत और अच्छे दिल वाला भूत (मैं नहीं बता रहा, पर अंदाज़ा लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है) अपनी मौत का बदला लेना चाहता है. खलनायकों की नज़र एक अनाथाश्रम की ज़मीन हडपने पर है. भूत को अपना बदला लेने और अनाथाश्रम बचाने के लिए अनाथ नायकों की टोली (अजय, अरशद, श्रेयस, तुषार, कुनाल) के मदद की जरूरत है, और इसमें उसका साथ दे रही हैं तब्बू.

फिल्म की खामियों में इस बार 'कहानी का न होना' शामिल नहीं है, बल्कि कमज़ोर कहानी की कमज़ोर बुनियाद पर स्क्रिप्ट की भारी-भरकम इमारत खड़ी करने का अति आत्म-विश्वास ही फिल्म को और डांवाडोल कर देता है. मकान में भूत है. अन्दर कुछ लोग कैद हैं, और बारी-बारी से एक के बाद एक तीन लोग, जिन्हें भूतों पर विश्वास नहीं अन्दर जाते हैं. फिल्म में यह दृश्य चलता ही रहता है, जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता. भूत आखिर में खलनायकों को अपने हाथों खुद ही अंजाम तक पहुंचाता है, तो फिर बेकार-बेरोजगार नायकों की टोली की जरूरत क्यूँ कर थी? जहां तक कॉमेडी की बात है, 'गोलमाल अगेन' उन फिल्मों में से है, जो जोक्स पर ज्यादा भरोसा दिखाती हैं, हास्यास्पद घटनाओं पर कम. फिर भी वो दृश्य, जिनमें अजय और परिणीति के उम्र के अंतर का बार बार मज़ाक उड़ाया जाता है, हर बार सटीक बैठता है. जॉनी लीवर का स्टैंड-अप एक्ट बढ़िया है. फिल्म का सबसे मज़बूत हिस्सा होते हुए भी, नाना पाटेकर की मेहमान और विशेष भूमिका के बारे में काश मैं यहाँ ज्यादा कुछ लिख पाता! फिल्म में उनको इतने मजेदार तरीके से पिरो पाना रोहित का सबसे कामयाब दांव है, हालाँकि शुरूआती दौर में रोहित की ये कामयाबी तब्बू के मामले में आई लगती थी.         

आखिर में; तब्बू का किरदार ही फिल्म की कहानी का सूत्रधार है. रोहित उनके मुंह से '...इसके बाद उनकी जिंदगी बदलने वाली थी' 'भगवान की मर्ज़ी हो, तो लॉजिक नहीं मैजिक चलता है' जैसे जुमले जी भर के उछालते हैं, और इसी बहाने अपनी फिल्म में 'लॉजिक' न ढूँढने का जैसे अल्टीमेटम भी दे ही डालते हैं. इसीलिए भूतियापे की इस बेहद सादी और बासी कहानी में ढूंढना हो तो बस्स हंसी ढूंढिए, मुझे तो 2 घंटे 30 मिनट की फिल्म में गिनती के 5-6 बार ही ऐसे मौके दिखे और मिले; क्या पता? आप शायद मुझसे ज्यादा खुशनसीब निकलें. [1.5/5]         

Friday, 6 October 2017

तू है मेरा सन्डे: महानगरों का मजेदार 'मिडिल क्लास'! [4/5]

एक अरसा हुए हिंदी सिनेमा में भारत के 'मिडिल क्लास' को परदे पर छोटी-छोटी खुशियों के लिए कसमसाते देखे हुए; वो भी निचले, शोषित तबके पर बनती फिल्मों की तरह गहरी सहानुभूति और प्रबल संवेदनाओं की उदास चाह में नहीं, ना ही सितारों की जगमगाहट से चुंधियाई आँखों में महंगे-महंगे सपने बेचने की झूठी कोशिश में, बल्कि मनोरंजन के उस ईमानदार ख़याल के जरिये, जहां परदे की जिंदगी से असल जिंदगी का मिलान तकरीबन-तक़रीबन एक ही स्तर पर हो. हालाँकि बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी का 'मिडिल क्लास' अब चाहते, न चाहते हुए भी 'अपर मिडिल क्लास' में बदल चुका है, पर दिक्कतें, झिझक, चाहतें और ज़ज्बात अब भी उसी दायरे, उसी जायके के हैं. 

मिलिंद धैमड़े की 'तू है मेरा सन्डे' मुंबई जैसे महानगर में भी इस आम से दिखने वाले तबके को न सिर्फ ढूंढ पाने का कौशल दिखाती है, बल्कि उसकी जिंदगी से उन चंद लम्हों को चुराने में भी कामयाब रहती है, जिन्हें परदे पर देखने और उनसे अनायास लगाव महसूस करने में कोई दिक्कत, कोई परेशानी महसूस नहीं होती. यहाँ एक 'सन्डे' ही अपना है. हफ्ते के बाकी दिन हर कोई कहीं न कहीं अपनी हसरतों, अपनी आजादियों, अपनी चाहतों का खुद अपने ही हाथों गला घोंट रहा होता है. एक 'सन्डे' ही है, जब दोस्तों के साथ दोपहर भर फुटबॉल खेलने और शाम को चखने के साथ बियर की बोतल गटकाने का सुख वापस उस 'हफ्ते के बाकी दिनों' वाली दुनिया में जाने की हिम्मत और उम्मीद दे पाती है. और अगर वही उनसे छिन जाये तो? 

मुंबई की लोकल ट्रेनों में अगर आप रेगुलर आते-जाते रहे हों, तो 'तू है मेरा सन्डे' के किरदारों से जान-पहचान बनाना बेहद आसान हो जाता है. दोस्तों की एक ऐसी टोली, जहां 50 साल के गुजराती अंकल भी 23 साल के हीरो को 'भाई' कह के बुलाते हैं, और वो उनकी बीवी को 'भाभी'. 'तू है मेरा सन्डे' ऐसे ही पांच दोस्तों की जिंदगियों में पूरी बराबरी से और बारी-बारी से झांकती है. फिल्म अपने पहले ही दृश्य में आपको अपने होने के काफी कुछ मायने समझा जाती है. कूड़े और कबाड़ में अपने लिए कुछ मतलब का ढूंढते-तलाशते एक बूढ़े भिखारी पर एक आवारा कुत्ता भौंके जा रहा है, फुटओवर ब्रिज पर खड़े पाँचों दोस्त इसे अपनी-अपनी जिंदगियों से जोड़ कर देखने लगते हैं, और खुद पर हँसते भी हैं. कोई अपने खडूस, घटिया बॉस से तंगहाल है, तो किसी को घर-परिवार की झंझटों से 'कंटाल' आता है. सबके लिए एक 'सन्डे और फुटबॉल' का मेल ही है, जो उन्हें अपने होने का, जिंदगी जीने का सही एहसास दिलाता है. 

एक ईमानदार और मनोरंजक फिल्म के तौर पर, 'तू है मेरा सन्डे' आपको महानगरों की भागती-दौड़ती भीड़ में रिश्तों की घटती गर्माहट जैसे छू जाने वाले मुद्दों पर बहुत ख़ूबसूरती और मासूमियत से पेश आती है. शहाना गोस्वामी को छोड़ दें, तो फिल्म बड़े नामचीन सितारों से बचने की कामयाब कोशिश के चलते, पहले तो परदे पर और बाद में दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग़ में किरदारों को ज्यादा देर तक जिंदा रख पाती है. हालाँकि इन किरदारों और उनके आसपास के माहौल में आपको 'दिल चाहता है', 'रॉक ऑन' जैसी कुछ फिल्मों की जानी-पहचानी झलक जरूर दिख जाती है, पर जिस तरह की समझदारी से फिल्म अपने मुकाम तक पहुँचती है, आप इसे एक अलग फिल्म के नजरिये से ही पसंद करने लगते हैं. 

मजेदार किरदारों और ढेर सारे अच्छे दृश्यों के साथ, 'तू है मेरा सन्डे' देखते वक़्त आपके चेहरे पर एक हलकी मुस्कान हमेशा तैरती रहती है. अल्जाइमर से जूझते किरदार की भूमिका में शिव सुब्रह्मनियम का अभिनय बेहतरीन है. बरुण सोबती टीवी का जाना-माना नाम है. फिल्म के दृश्य में शहाना की किरदार उनसे कहती है, 'आप पर मेलोड्रामा सूट नहीं करता'; बरुण सिनेमाई परदे पर ज्यादा निखर कर आते है, कुछ ऐसे कि जैसे बने ही हों बड़े परदे के लिए. उम्मीद करूंगा कि हिंदी सिनेमा उन्हें वापस टीवी के डब्बे में यूँ ही खो जाने नहीं देगा. शहाना का परदे से सालों गायब रहना खलता है और उनका परदे पर दिख जाना भर ही अदाकारी में उनके मज़बूत दखल की याद ताज़ा कर जाता है. मानवी गागरू और रसिका दुग्गल अपने अपने किरदारों में जरूरत के सारे रंग बराबर नाप-जोख कर डालती हैं, और बेशक फिल्म के सबसे खुशनुमा चेहरों में शामिल हैं.

आखिर में; 'तू है मेरा सन्डे' हिंदी सिनेमा को एक नया विस्तार देने में बड़ी फिल्म साबित होने का पूरा माद्दा रखती है. 'पैरेलल सिनेमा मूवमेंट' और 'मेनस्ट्रीम मसाला' फिल्मों के बीच, याद कीजिये, कभी साफ़-सुथरी, सरल-सहज, सुगढ़ फिल्मों का एक और दौर दिलों में अपनी जगह बनाया करता था, टीवी पर आते हुए जो आज भी  सालों-साल आपके मनोरंजन की रंगत फीकी नहीं पड़ने देता; 'तू है मेरा सन्डे' उन्हीं तमाम अपनी सी लगने वाली फिल्मों में से एक है. [4/5] 

Friday, 29 September 2017

जुड़वा 2: सिनेमा के साथ कॉमेडी; कॉमेडी के साथ ट्रेजेडी! [1/5]

डेविड धवन की 'जुड़वा 2' देखते वक़्त, दो लोगों पर बेहद तरस आता है. एक तो विवान भटेना पर, जो फिल्म में खलनायक के तौर पर सिर्फ पिटने के लिए रखे गए हैं. शरीर के बाकी हिस्सों को नज़रंदाज़ कर भी दें, तो फिल्म में विवान के सर पर ही, कभी नारियल से, तो कभी फुटबाल से इतनी बार प्रहार किया जाता है, कि उन्हें दो-दो बार अपनी याददाश्त खोनी पड़ती है. इतनी ही बुरी हालत से मैं भी खुद को गुजरता हुआ पाता हूँ, जब मनोरंजन के नाम पर डेविड धवन मुझे वापस वही 20 साल पुरानी फिल्म चिपका डालते हैं, उन्हीं पुराने 'जोक्स' के साथ और उसी सड़ी-गली वाहियात कहानी के साथ. डेविड की मानें तो 'ऐसा केस 8 मिलियन में सिर्फ एक होता है', हम 80 के दशक में पैदा हुए बदनसीबों के साथ 'जुड़वा' जैसा केस 20 साल में दो-दो बार हुआ है; मुझे नहीं पता इन दोनों फिल्मों से सही-सलामत जिंदा बच जाने का जश्न मनाऊँ या झेलने का मातम? 

बॉलीवुड का एक ख़ास हिस्सा बार-बार बड़ा होने से और समझदार होने से इनकार करता आ रहा है. डेविड धवन भी उनमें शामिल हो चले हैं. डेविड के लिए मनोरंजन के मायने और तौर-तरीके अभी भी वही हैं, जो 20-25 साल पहले थे. हंसी के लिए ऐसी फिल्में मज़ाक करने से ज्यादा, किसी का भी मज़ाक बनाने और उड़ाने में ख़ासा यकीन रखती हैं. तुतलाने वाला एक दोस्त, 'तोतला-तोतला' कहकर जिस पे कभी भी हंसा जा सके. 'पप्पू पासपोर्ट' जैसे नाम वाले किरदार जो अपने रंगभेदी, नस्लभेदी टिप्पणी को ही हंसी का हथियार बना लेते हैं. लड़कियों को जबरदस्ती चूमने, छेड़ने और इधर-उधर हाथ मारने को ही जहां नायक की खूबी समझ कर अपना लिया जाता हो, अधेड़ उम्र की महिलाओं को 'बुढ़िया' और 'खटारा गाड़ी' कह के बुलाया जाता हो. मनोरंजन का इतना बिगड़ा हुआ और भयावह चेहरा आज के दौर में भी अगर 'चलता है', तो मुझे हिंदी सिनेमा के इस हिस्से पर बेहद अफ़सोस है.

प्रेम और राजा (वरुण धवन) बचपन में बिछड़े हुए जुड़वा भाई हैं. एक मुंबई के वर्सोवा इलाके में पला-बढ़ा टपोरी, तो दूसरा लन्दन का शर्मीला, कमज़ोर पढ़ाकू टाइप. फिल्म मेडिकल साइंस के उस दुर्लभ किंवदंती पर पनपती है, जहां दोनों भाई एक-दूसरे के साथ अपने दिमाग़ी और शारीरिक प्रतिक्रियाएं आपस में बांटते हैं. एक जैसा करेगा, दूसरा भी बिलकुल वैसा ही. फिल्म अपनी सुविधा से इस फ़ॉर्मूले को बड़ी बेशर्मी से जब चाहे इस्तेमाल करती है, जब चाहे भूल जाती है. जो हाथ किसी को मारते वक़्त एक साथ उठते हैं, वही रोजमर्रा के काम करते वक़्त एक साथ क्यूँ नहीं हिलते-डुलते? पर फिर डेविड धवन की फिल्म से इस तरह के तार्किक प्रश्नों के जवाब माँगना अपने साथ बेवकूफी और उनके के साथ ज्यादती ही होगी. जिन फिल्मों में टाइम-बम अपने आखिरी 10 सेकंड में फटने वाला हो, और हीरो लाल तार (क्यूंकि लाल रंग गणपति बप्पा का रंग है) काट के अपने लोगों को बचा ले; ऐसी फिल्मों को पूरी तरह 'बाय-बाय' करने का सुख आखिर हमें कब मिलेगा?

थोड़ा सोच कर देखें, तो 'जुड़वा 2' भद्दे हंसी-मज़ाक के लिए हमारे पुराने, दकियानूसी स्वभाव को ही परदे पर दुबारा जिंदा करती है. रंग, बोली, लिंग और शारीरिक बनावट के इर्द-गिर्द सीमित हास्य की परिभाषा को हमने ही अपनी निज़ी जिंदगी में बढ़ावा दिया है और देते आये हैं, फिर डेविड या उन जैसों की फिल्में ही क्यूँ कटघरे में खड़ी हों? नायक अगर नायिका की माँ से फ़्लर्ट करे, उनको गलती से किस कर ले और नायिका की माँ अगर उस पल को मजे से याद करके इठलाये, तो इसे डेविड का उपकार मानिए और एक प्रयोग की तरह देखिये. अगर आपको इस इकलौते दृश्य पर ठहाके के साथ हंसी आ जाये, तो समझिये कुछ बहुत गलत चल रहा है आपके भीतर, वरना आप अभी भी स्वस्थ हैं, सुरक्षित हैं. 

अभिनय में वरुण बेहद उत्साहित दिखते हैं. 'जुड़वा' के सलमान खान की झलक उनमें साफ़ नज़र आती है. उनमें एक ख़ास तरह का करिश्मा, एक ख़ास तरह की जिंदादिली है, जो बुरे से बुरे दृश्य में भी आपको उनसे कभी उबने नहीं देती, पर इस तरह की खराब फिल्म में सिर्फ इतने से ही बचा नहीं जा सकता. तापसी पन्नू और जैकलीन फ़र्नान्डीस अदाकारी में महज़ दिखावे के लिए हैं, वरना तो उनकी अदाकारी उनके 'फिगर' जितनी ही है, 'जीरो'. यूँ तो हंसी के लिए राजपाल यादव, अली असगर, उपासना सिंह, अनुपम खेर जैसे आधे दर्जन नाम फिल्म में मौजूद रहते हैं, पर उन पर भी कुढ़ने और चिढ़ने से ज्यादा फुर्सत नहीं मिलती. 'सुनो गणपति बप्पा मोरया' गाने के 'सिग्नेचर स्टेप' में वरुण के ठीक बायीं ओर डांस करने वाली 'एक्स्ट्रा' कलाकार अपने हाव-भाव से, आपके चेहरे पे मुस्कान लाने में कहीं ज्यादा कामयाब होती है, बजाय इस बेमतलब उछलने-कूदने वाले 'ब्रिगेड' के.     

कुल मिला कर, 'जुड़वा 2' को मनोरंजन के साथ किसी भी तरह से जोड़ कर देखना सिनेमा के लिए बड़ा शर्मनाक होगा. कुछ मजेदार 'जोक्स' को परदे पर एक के बाद एक चला देना, अपने आप में कॉमेडी के लिए ही एक ट्रेजेडी है. आने वाले दिनों में बॉक्सऑफिस कलेक्शन के भारी-भरकम आंकड़ों से आपको भरमाने की कोशिश होगी, मनोरंजन की गारंटी का वादा किया जाएगा; आपको बहकना चाहते हैं तो बेशक बहकिये, पर कम से कम बच्चों को तो दूर ही रखियेगा. एक 'जुड़वा' से हमें उबरने में सालों-साल लग गए, इस 'जुड़वा 2' का न जाने क्या असर होगा नयी पीढ़ी पर? [1/5]                 

Friday, 22 September 2017

न्यूटन: लोकतंत्र का तमाशा! सिनेमा का जश्न! [4.5/5]

चुनावों के वक़्त टीवी चैनलों और अखबारों में, नाखूनों पे लगी स्याही दिखाते जोशीले चेहरों की तस्वीरें कितने फ़क्र से भारत में लोकतंत्र की बहाली, चुनावों की कामयाबी और जनता के प्रतिनिधित्व का सामूहिक जश्न बयाँ करतीं हैं. ऐसा ही एक दृश्य अमित मासुरकर की 'न्यूटन' में भी है, मगर जब तक फिल्म में ये दृश्य आता है, आँखों के आगे से सारे परदे गिर चुके होते हैं, आसमान से झूठ के बादल छंट चुके होते हैं और अब उन्हीं चेहरों से भारत में लोकतंत्र की खोखली इमारत का सच टुकुर-टुकुर झाँक रहा होता है. ठीक वैसे ही, जैसे किसी बच्चे को खिलौना दिखाकर उसके हाथ में सिर्फ खाली पैकेट थमा दिया गया हो. 'न्यूटन' बिना शक आज के राजनीतिक माहौल और सरकारी तंत्र की खामियों पर एक सही, सीधी और सटीक टिप्पणी है.  

सोते हुओं को जगाने के लिए, 'न्यूटन' छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र दंडकारण्य को अपनी प्रयोगशाला बनाती है. स्थानीय प्रत्याशी की हत्या के बाद क्षेत्र में दुबारा चुनाव कराये जा रहे हैं, सेना की देखरेख में. नौजवान चुनाव अधिकारी (राजकुमार राव) अपने नाम की तरह ही अजीब है, अजब है, अकडू है. अपना नाम न्यूटन उसने खुद ही रखा था, नूतन कुमार से बदल कर. 'आई वांट टू मेक अ डिफरेंस' वाली फैक्ट्री से निकला है, घोर ईमानदारी का पुतला है. सिर्फ 76 मतदाताओं वाले पोलिंग बूथ पे चुनाव कराना कौन सी बड़ी बात है, मगर आर्मी अफसर आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) का डरना-डराना भी जायज़ है. ये वो इलाका है, जहां के बारे में टीवी स्टूडियोज में बैठे सूट-बूट वाले न्यूज़ एंकर्स को ज्यादा पता है, और उनकी चीख-चिल्लाहट में हमने भी काफी कुछ सुन (ही) रखा है. "अपने ही लोग हैं, अपने ही लोगों के खिलाफ हैं", "देशद्रोही हैं स्साले, देश बांटने की मांग करते हैं", "चींटी की चटनी खाते हैं, बताओ!", वगैरह, वगैरह. 

खैर, 'न्यूटन' किसी भी तरह और तरीके से नक्सल की समस्या पर पक्ष-विपक्ष का पाला चुनकर बैठ जाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि फिल्म के समझदार और ईमानदार नजरिये की वजह से आप जरूर अपने आप को इस दुविधा में अक्सर लड़खड़ाते हुए पाते हैं. लोकल बूथ लेवल ऑफिसर मलको (अंजलि पाटिल) जब भी बातों-बातों में वहाँ के लोगों की बात सामने रखती है, आपके नजरिये को एक ठेस, एक धक्का जरूर लगता है. आत्मा सिंह जब बन्दूक न्यूटन के हाथ में थमा कर कहता है, 'ये देश का भार है, और हमारे कंधे पर है'; या फिर जब विदेशी रिपोर्टर पूछती है, 'चुनाव सुचारू रूप से चलाने के लिए आपको क्या चाहिए?" और उसका जवाब होता है, "मोर वेपन (और हथियार)!"; वो आपको खलनायक नहीं लगता, बल्कि आपको उसकी हालत और उसके हालात पर दया ज्यादा आती है. वो भी उसी सिस्टम का मारा है, और महंगा जैतून का तेल खरीदते वक़्त उसके माथे पर भी शिकन आती है.  

फिल्म के एक दृश्य में गाँवों से लोग मतदान के लिए जुटाए जा रहे हैं, और बराबर के दृश्य में एक महिला काटने-पकाने के लिए मुर्गियां पकड़ रही है. 'न्यूटन' इस तरह के संकेतों और ब्लैक ह्यूमर की दूसरी ढेर सारी मिसालों के जरिये आपका मनोरंजन भी खूब करती है, और आपको सोचने पे मजबूर भी. आत्मा सिंह नाश्ता करते हुए कहता है, "बड़ी इंटेंरोगेशन के बाद मुर्गियों ने अंडे दिये हैं". न्यूटन के पूछने पर कि क्या वो भी निराशावादी है?, मलको टन्न से बोल पड़ती है, "मैं आदिवासी हूँ'. खंडहर पड़े प्राइमरी स्कूल में बने बूथ में सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे लोगों के आने का इंतज़ार कर रहे हैं, माहौल शांत है, पर धीरे-धीरे आपको सरकारी तंत्र और खोखले दावों की चरमराहट सुनाई देनी शुरू हो जाती है.

इतने सब उथल-पुथल और खामियों के बावज़ूद, 'न्यूटन' एक आशावादी फिल्म बने रहने का दम-ख़म दिखाने में सफल रहती है. न्यूटन की ईमानदारी, उसकी साफगोई, बदलाव के लिए उसकी ललक कहीं न कहीं आपको उसकी तरफ खींच कर ले जाती है. ऐसे न्यूटन अक्सर सरकारी दफ्तरों में किसी अनजाने टेबल के पीछे दफ़न भले ही हो जाते हों, उनकी कोशिशों का दायरा भले ही बहुत छोटा रह जाता है, पर समाज में बदलाव की जो थोड़ी बहुत रौशनी बाकी है, उन्हीं से है. ठीक 9 बजे ऑफिस आ जाने वालों पर हँसते तो हम सभी हैं, पर शायद ऐसे न्यूटन भी उन्हीं में से एक होते हैं. फिल्म में ट्रेनर की भूमिका में संजय मिश्रा फरमाते हैं, "ईमानदार होके आप कोई एहसान नहीं कर रहे, ऐसा आपसे एक्सपेक्टेड है'. कम से कम फिल्म इस कसौटी पर सौ फीसदी सही साबित होती है.

राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी की बेहतरीन अदाकारी, रघुवीर यादव, अंजलि पाटिल और संजय मिश्रा के सटीक अभिनय और मयंक तिवारी के मजेदार संवादों से लबालब भरी 'न्यूटन' साल की सबसे अच्छी फिल्म तो है ही, अपने विषय-वस्तु की वजह से बेहद जरूरी भी, और 'उड़ान', 'आँखों-देखी', 'मसान' जैसी नए भारत के नए सिनेमा की श्रेणी और शैली की मेरी पसंदीदा, चुनिन्दा फिल्मों में से एक. [4.5/5]       

Friday, 15 September 2017

लखनऊ सेन्ट्रल: फर्ज़ी जेल, फ़िल्मी बैंड! [2/5]

फ़रहान अख्तर फिल्म में हों, और आपको मज़ा दो-चार दृश्यों में ही दिखने वाले रवि किशन से मिलता हो, तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि रंजीत तिवारी की 'लखनऊ सेंट्रल' कितनी अच्छी या बुरी हो सकती है? यशराज फ़िल्म्स की हालिया रिलीज़ हुई फिल्म 'कैदी बैंड' से हद मिलती-जुलती कहानी पर बनी 'लखनऊ सेंट्रल' अपने मुख्य कलाकार की कमज़ोर अदाकारी और परदे पर नाकामयाब किरदार को कुछ काबिल सह-कलाकारों के बेहतरीन अभिनय से ढकने, छुपाने की कोशिश तो भरपूर करती है, पर कितनी देर? 

उत्तर प्रदेश के गंवई गायक किशन गिरहोत्रा की भूमिका में फ़रहान की स्टाइलिंग इतनी बनावटी और चिकनी-चुपड़ी है, जैसे तेल में चुपड़े उनके बाल, जैसे उनके गले में पूरे तमीज से तह किया हुआ मफलर. निश्चित तौर पर उनकी कास्टिंग फिल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष है, हालाँकि फर्जीवाड़ा यहीं तक नहीं रुका है. मुंबई फिल्मसिटी में बने लखनऊ के सेंट्रल जेल का सेट पहाड़ों से घिरा है, और न तो कैमरा इसे परदे पर दिखाने से कोई परहेज़ करता है, न ही निर्देशक रंजीत तिवारी को इस मामूली सी गलती से फिल्म की साख पर लगने वाली बड़ी चोट का अंदाज़ा होता है. गनीमत है, फिल्म में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल जैसे कुछ छोटे ही सही, पर मज़बूत कंधे तो हैं.

किशन (फ़रहान अख्तर) का सपना है मशहूर गायक बनने का, पर एक दिन एक झड़प के बाद उसे आईएएस अफसर की हत्या के झूठे इलज़ाम में उम्रकैद सुना दी जाती है. उसके मुरझाते सपने को थोड़ी हवा तब लगती है, जब युवा मुख्यमंत्री (रवि किशन) के आदेश पर जेल में 15 अगस्त जलसे के लिए कैदियों का बैंड बनाने की मुहिम शुरू होती है. खुद का बैंड जहां एक तरफ उसके सपनों को उड़ान दे सकता है, उसे नाम, मुकाम और पहचान दे सकता है, दूसरी तरफ बैंड की आड़ में जेल से भाग कर आज़ादी का स्वाद चखने का मौका भरपूर है. हालाँकि जेलर (रोनित रॉय) के रहते ऐसा सोचना भी खतरे की घंटी है. 

'कैदी बैंड' जहां इसी कहानी को बेहतर, पर चमकदार प्रोडक्शन डिज़ाईन के जरिये परदे पर बयाँ करती है, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने लुक में थोड़ा तो खुरदुरापन, कालिख़ और मटमैलापन लाकर विश्वसनीयता के पैमाने पर ज्यादा अंक बटोर जाती है. हालाँकि रंजीत तिवारी की इस तरह की हॉलीवुड फिल्मों में दिलचस्पी साफ़ दिख जाती है, जब भी वो जेल में इस्तेमाल होने वाले तरीकों, चालाकियों और रणनीति की बात करते हैं. जहां फ़रहान और डायना पेंटी अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद अभिनय के सुर लगाने में कमज़ोर दिखते हैं, वहीँ उनके साथी कलाकारों की भूमिकाओं में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल बेहतरीन हैं. रवि किशन बेहद सटीक हैं. इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस और ट्रैफिक पुलिस की वर्दी का रंग एक होने पर उनका कटाक्ष फिल्म में कई बार दोहराया जाता है, पर हर बार उतना ही मजेदार लगता है. 

आखिर में, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने कुछ गिनती के हिस्सों के रोमांच और कुछ सह-कलाकारों के अभिनय के आगे या पीछे और कुछ नहीं है. बचकानी 'कैदी बैंड' से हाथ लगी निराशा ने इस फिल्म से उम्मीदें काफी बढ़ा दी थीं, पर अफ़सोस! फिल्म के खाते में 'उतनी भी बुरी नहीं है' से ज्यादा तारीफ़ नसीब नहीं होती. असली जेलों के असली बैंडों की तुलना में ये फ़िल्मी बैंड 'बैन'ड' कर दिये जाएँ तो ही अच्छा!! [2/5]